फौजी की फौज करेगी मौज






ॐ गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:।


गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।



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जय गुरु धर्म नाथ

गुरु की मूरत मन में धयान !
गुरु के शब्द मंत्र मन मान !!
गुरु के चरण हृदय मैं धारो !
गुरु पारब्रह्म सदा नमस्कारो !!
मत को भ्रम भूले संसार !
गुरु बिन कोई न उतरे पार !!
भूले को गुरु मार्ग पाये !
अवर त्याग हरि भक्ति लाये !!
जन्म मरन की त्रास मिटाई !
गुरु पूरन की इह बढियाई !!
~.~.~.~.~.~.~.~.~

गुरु देवो गुरु देवता, गुरु बिन घोर अन्धकार !
जे गुरु वाणी वेगला रादिवादिया संसार !!



एक निरंजन ध्याऊँ
गुरुजी मैं तो एक निरंजन ध्याऊँ।




दूजे के संग नहीं जाऊँ।। 


दुःख ना जानूँ दर्द ना जानूँ।


ना कोई वैध बुलाऊँ।।


सदगुरु वेध मिले अिवनाशी।


वाकी ही नाड़ी बताऊँ।। गुरुजी...




एक निरंजन ध्याऊँ


गुरुजी मैं तो एक निरंजन ध्याऊँ।



गंगा न जाऊँ जमना न जाऊँ।


ना कोई तीरथ नहाऊँ।।


अड़सठ तीरथ है घट भीतर।


वाही में मल मल नहाऊँ।। गुरुजी....




एक निरंजन ध्याऊँ


गुरुजी मैं तो एक निरंजन ध्याऊँ।



पत्ती न तोड़ूँ पत्थर न पूजूँ।


न कोई देवल जाऊँ।।


बन बन की मैं लकड़ी न तोड़ूँ।


ना कोई झाड़ सताऊँ।। गुरुजी....




एक निरंजन ध्याऊँ


गुरुजी मैं तो एक निरंजन ध्याऊँ।



कहे गोरख सुन हो मच्छन्दर।


ज्योत से ज्योत मिलाऊं ।।


सदगुरु के मैं शरण गये से।


आवागमन मिटाऊँ ।। गुरुजी....




एक निरंजन ध्याऊँ

गुरुजी मैं तो एक निरंजन ध्याऊँ।

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गुरु की मूरत मन में धयान !
गुरु के शब्द मंत्र मन मान !!
गुरु के चरण हृदय मैं धारो !
गुरु पारब्रह्म सदा नमस्कारो !!
मत को भ्रम भूले संसार !
गुरु बिन कोई न उतरे पार !!
भूले को गुरु मार्ग पाये !
अवर त्याग हरि भक्ति लाये !!
जन्म मरन की त्रास मिटाई !
गुरु पूरन की इह बढियाई !!
~.~.~.~.~.~.~.~.~

गुरु देवो गुरु देवता, गुरु बिन घोर अन्धकार !
जे गुरु वाणी वेगला रादिवादिया संसार !!



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श्री गुरु प्रार्थना और महिमा

आदि मध्य नाहिं अन्त है, बने मिटे कछु नाहिं।
अमृत रहता एक रस, तीन काल के माहिं॥

नमों सच्चिदानन्द को, नमस्कार सब वेश।
सतगुरु धर्मनाथ को, बार बार आदेश॥

सतगुरु प्रबल समर्थ हैं, दयासिन्धु जगदीश।
"सेवक" निशदिन चरण में, नम्र होय धर शीष ॥

अधम उबारण भय हरण, सतगुरु परम दयालु।
गुरु बिन दूजा है नहीं, "सोम" शीघ्र कृपालु॥

जिसकी गुरु रक्षा करें, उसको दुःख न नेक।
"सेवक" चित्त में धारिये, दृढ़ कर ऐसी टेक॥

सतगुरु धर्मनाथ के बार बार बलि जाहु।
सत्य वचन कहे, मम मति अमल उछाहु॥

एक भरोसा एक बल, नहीं अन्य विश्वास।
"सेवक" निशदिन हो रहो, गुरु चरण का दास॥

जिसने सतगुरु को किया, अर्पण अपना शीष।
मिलती उसे अवश्य है, मुक्ति विश्वास बीस॥

सतगुरु सन्मुख ना द्रवे, धृक वह बुद्धि विवेक।
"सेवक" व नहीं पायेंगे, मनुज जन्म फल नेक॥

गुरु आज्ञा दे सो करे, देख करे कुछ नाहिं।
ऐसे गुरु मुखि पायेंगे, सत्य पथ जग के माहिं॥

सतगुरु की शिक्षा बिना, छुटे नहीं विवाद।
"सेवक" गुरु को ढूँढ ले, होवे दूर विषाद॥

गुरु चरणन की धूरि को धूर धूर कर जीव।
दूर दूर हो कपट से, भूरि भूरि मिल पीव॥

अब तो मुर्ख सचेत हो, आयु चली है बीत।

"सेवक" गुरु की शरण में, सीख भजन की रीत॥




जय गुरु धर्म नाथ





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गुरु





गुरु राग है गुरु रागनी गुरु बिना कोण दुःख हरे !

गुरु ही दर्पण गुरु के दर्शन गुरु नाम से काल डरे !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 





गुरु ही माता गुरु पिता है गुरु बिन कोण धीर धरे !



गुरु अजर है गुरु अमर है गुरु अगत मै सीर करे !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 




गुरु सत्संग है गुरु रसरंग है गुरु दाता गुरु दानी है !



गुरु करतारा गुरु संसारा गुरु महिमा सबने जानी है !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 



जय गुरुदेव



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बिन गुरु ज्ञान कहाँ ते पाऊं



गुरु-शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है।

गुरु,शिष्य को पुत्रवत समझकर, उसे टेड़े-मेडे मार्गौ से निकाल ले जाते है,

जिन्हे शिष्य "सोम"के लिए समझ पाना कठिन होता है।

इसलिए कई बार शिष्य अभिमान मे आकर गुरु की अवज्ञा कर जाता है,

इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है।

यधपी गुरु उसे कुछ भी न कहे,

किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है।

इसके लिए शिष्य मे गुरु के प्रति संपूर्ण समर्पण की अवश्यकता है।


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1 .गुरु ज्ञान बाँटते रहे, ले सके वही लेत,
भभूत समझे तो लगे, वर्ना वह तो रेत |



2. अमल करे तबही बढे, गुरु सबके हीसाथ,
 करम सेही भाग्य बढे, भाग्य उसीके हाथ |





गुरु ज्ञान की गंगा. गुरु ज्ञान की गंगा. बहती रहे दिन रात !

गोता जिसने भी लगाया. वह हो गया भाव से पार !! 







जय गुरुदेव




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एक कच्ची मिट्टी के ढेले को सानकर, उसे चाक पर आकार देकर,

आग में तपाकर सुंदर कलाकृति के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय उस कुम्भकार को है

जिसने इतनी मेहनत करके उसे दूसरों के लिए बनाया .....धन्य है वह .

ठीक उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को संवारकर दूसरों के समक्ष अपनी क्षमताओं को

प्रदर्शित करने के लिए तैयार करता है,

वह उसके भविष्य के निर्माण में उसका सहयोग करता है.

मन से गहन अन्धकार को निकालकर जो अपने शिष्य को

प्रकाश से भरे सही मार्ग पर ले जाए वोही वास्तव में गुरु कहलाने का अधिकारी है

फिर चाहे वो माँ हो,

पिता हो, गुरु हो,

भाई अथवा बहन या फिर मित्र या कोई और.

हमें जीवन में जिससे ज्ञान प्राप्त हो जाए वही हमारा गुरु 



रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||






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इस वेबसाइटकी रचनाएं श्रुति एवं स्मृति के आधार पर 

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इसी भाव के साथ बाबा शिवगोरख नाथ जी की सेवा में ........




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बाबा शिवगोरख नाथ जी का आशिर्वाद हम सब पर हमेशा बना रहे /

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पूर्ण गुरु के बिना जीवन का कल्याण संभव नहीं है |

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ 
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥ 

गुरु के बिना घोर अंधेरा है | गुरु के बिना हमें सत्य की समझ नहीं आ सकती है और न ही चित्त को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं | न ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है | आज मनुष्य का जीवन अंधकार से ग्रस्त है और गुरु की प्राप्ति के बिना क्या स्थिति होती है |

जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ 
ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥


जिस व्यक्ति ने सतगुरु पुरष की प्राप्ति नहीं की | वह भाग्यहीन समय के बंधन में फंस जाता है | उन्हें जन्म - मरण के भयानक कष्ट को भोगना पड़ता है | आवागमन की विष्टा रुपी गंदगी को झेलना पड़ता है 

जे लख इसतरीआ भोग करहि नव खंड राजु कमाहि ॥ 
बिनु सतगुर सुखु न पावई फिरि फिरि जोनी पाहि ॥


कितने भी संसार के भोगों को भोग लो या राज्य को कितना भी विस्तृत कर लो | सारी पृथ्वी का राज्य भी भोग लो | लेकिन सतगुरु की शरण के बिना न तो आवागमन से छुटकारा हो सकता है और न ही सुख शांति की प्राप्ति ही कर सकते हैं |

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ 
बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥


सभी स्मृति, शास्त्र वेद कहते हैं कि बिना गुरु के मुक्ति असंभव है | कितना भी सोच विचार कर देख लो, मुक्ति की प्राप्ति के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ेगा |

गुरु बिन माला फेरता, गुरु बिन करता दान |
कहे कबीर निहफल गया गावहि वेद पुरान |

गुरु की प्राप्ति किए बिना चाहे माला फेरे या दान पुण्य इत्यादि कितने भी कर्म कर लें | सब व्यर्थ चले जाते हैं | ऐसा सभी शास्त्रों का कथन है, यदि जीवन का वास्तविक कल्याण चाहिए तो जरूरत है पूर्ण गुरु की शरण में जाने की |

गुरु बिन भाव निधि तरइ न कोई | जो बिरिंच संकर सम होई ||

यदि कोई ब्रह्मा के सामान सृष्टि का सृजन करने की समर्थ प्राप्त कर ले, या शिव के सामान सृष्टि संहार करने की शक्ति प्राप्त कर ले | परन्तु गुरु के बिना भवसागर से पार नहीं हो सकता | यहाँ तक कि गुरु की शरण में गए बिना बहुत शक्ति समर्थ प्राप्त कर लेने पछ्चात भी विषय विकारों का त्याग करना मुश्किल है

भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ 
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥

ब्रह्मा, नारद, वेद व्यास किसी से भी पूछ लो गुरु के बिना कल्याण नहीं, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता | इस लिए हमें भी चाहिए हम भी ऐसे पूर्ण गुरु की खोज करें, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के हमें दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है |

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सेवा - कर्त्तव्य है, मजदूरी नहीं


" जिस मिशन का ध्येय - विश्व शांति हो, वो अकेले गुरु महाराज जी का निजी दायित्व कैसे हो सकता है?

....जिस अभियान ने सम्पूर्ण मानवता के दर्द को मिटाने का बीड़ा उठाया हो - क्या उसे एकमेव महाराज जी का मिशन कहना सही होगा?"

ग्रंथों में गुरु के मिशन में हाथ बटाने अर्थात सेवा की आपर महिमा गाई है | किसी ने कहा, गुरु - सेवा एक कल्पवृक्ष है | किसी ने उसे बैकुंठ धाम का द्वार बताया | रामचरितमानस ने तो इसे भक्ति स्वरूप ही कह डाला, जो महाकल्याणकारी है | किसी ने तो इसे मुक्ति की युक्ति कहा |


जब एक पिता कोई कार्य या व्यापर करता है, तो क्या उसे अपने बेटों को मदद के लिए आह्वान करने की जरूरत पड़ती है? यदि सुपूत है, तो स्वयं ही बाप के कंधे से कंधा मिलाकर साथ आ खड़ा होता है | जितनी भी अपनी समझ है, सामर्थ्य है - बिन कहे ही उनके व्यापार में झोंक देता है | उसकी नजर अपने निजी स्वार्थ पर नहीं होती | पिता के लक्ष्य की सफलता ही उसका स्वार्थ होता है | उसकी समृद्धि ही उसका एकमेव वेतन या पारिशमिक ! गौर करो साधक! गुरु को तो हम अपनी माता, पिता,बल्कि सर्वस्व मानते हैं - गुरु ही मात - पिता अरु बीर | फिर उनके द्वारा संचालित मिशन में, जिसमें उनका भी तिल भर स्वार्थ नहीं, साथ खड़े होने के लिए हमें क्यों आह्वान या प्रेरणाओं की जरूरत पड़ती है? क्या हम सांसारिक सुपूतों से भी गए गुजरे हैं? या फिर हमने उन्हें अभी अपने सांसारिक पिता से ऊँचा दर्जा ही नहीं दिया? अरे भाई, इस विश्व कल्याणकारी मिशन में उनके साथ खड़े होना महज एक सद्कर्म नहीं है | हमारा कर्त्ताब्य है | हमारी ड्यूटी है | ऐसा करके हम कोई अहसास नहीं करेंगे - न उन पर, न खुद पर! यह तो हमारा धर्म है | एक बेटे का धर्म | उनका मिशन, हमारा मिशन है! हम सबके जीवन का मिशन है!
इसलिए क्यों चाहिए हमें पुण्यों की सौगातें| क्यों चाहिए कोई आश्वासन या मुक्ति का सिहासन! गुरु महाराज जी का मिशन - बाण अपने अंतिम लक्ष्य को भेदे और हम उसमें अपने को यथासामर्थ्य आर्पित कर सकें - क्या यही हमारे लिए काफी नहीं? क्या यही हमारा परम सौभाग्य नहीं? महाराज जी के मुख पर संतुष्टि या प्रसन्नता की प्यारी मुस्कान विखर जाए - क्या यही हमारा वेतन नहीं? क्या इसी में मेरी, तुम्हारी, सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति नहीं"




संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ||

संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ||


श्री गुरु अर्जुन देव जी सुखमनी साहिब में कहते हैं कि जो जन संत कि शरणागत होते हैं, उनका कल्याण होता है | पर यहाँ ध्यातव्य है कि संत किसे कहा गया | संत अर्थात वे महापुरष,जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है और अपनी शरण में आने वाले जिज्ञासुओं को भी करवाने कि सामर्थ्य रखते हैं | जो भी ज्ञान दीक्षा कि पिपासा लिए उनके सानिंध्य में आते हैं, वे तत्षण ही उन्हें उनके अंतर्जगत में परमात्मा के तत्वरूप का दर्शन करा देते हैं | परमात्म - दर्शन के उपरान्त साधक साधना सुमिरन द्वारा अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होता है व एक दिन अपने लक्ष्य ईश्वर को पूर्णत पा लेता है | अंश अंशी में मिल जाता है | फिर वह आवागमन के चक्र में नहीं फंसता | यही जीव का सर्वोत्तम कल्याण
है |
आगे कि दो पंकितयां कुछ रहस्यात्मक हैं | उनमें कहा गया -संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार अर्थात जो पूर्ण संतों कि शरण में नहीं आते, अपितु उसकी निंदा करते हैं, उन्हें बार - बार जन्म लेना पड़ता है| वे पुन: मृत्युलोक में आने को विवश होते हैं | अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं | पर मुख्य प्रशन है कि उनके लिए अवतार शब्द क्यों प्रयोग किया गया | जबकि प्रचलित भाषानुसार तो अवतार शब्द श्री राम, श्री कृषण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है | दरअसल इस शलोक में अवतार शब्द व्यगात्मक रूप में प्रयुक्त किया गया है | जैसे कि यदि आप बनारस कि तरफ जाएँ, तो वहां गुरु शब्द किस के लिए प्रयोग किया जाता है? यदि देखें तो गुरु शब्द हमारी संस्कृति के अनुसार अत्यंत महान शब्द है | उन ज्ञानी पुरषों को इससे संबोधित किया जाता है | जो हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले जाने कि सामर्थ्य रखते हैं | परन्तु बनारस में यह शब्द व्यगात्मक रूप में, असामाजिक तत्वों के लिए प्रयोग किया जाता है | ठीक इसी प्रकार इस शलोक में भी ऐसे दुष्टजनों के लिए जो संतों कि निंदा करते हैं, उनका विरोध करते हैं, उनके लिए व्यंगात्मक रूप में अवतार शब्द प्रयोग किया गया है | क्यों कि यह अटल सत्य है कि जब - जब भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं, तब - तब ये दुष्टजन भी जन्म लेते हैं | प्रभु के कार्य का विरोध करने के लिए, सत्य के खिलाफ आंधी चलाने के लिए | इसी बात को भगवान श्री कृषण जी ने भी अर्जुन को कहा कि ऐसा कोई समय नहीं था जब तू नहीं था, मैं नहीं था अथवा ये दुष्ट लोग नहीं थे और न ही भविष्य में ऐसा कभी होगा |
तात्पर्य यह है कि संतों के निंदक भी हमेशा ही संसार में रहते हैं | जब - जब संत आते हैं, तब - तब ये निंदक भी साथ - साथ आते हैं | हर युग में, हर वार, खूब डटकर संतों व उनके सत्य प्रचार का विरोध करते हैं | परन्तु संत महापुरषों ने कभी भी इन विरोधियों को अपना अवरोधक नहीं माना | अपितु उन्होंने तो इन्हें सत्य के बीजों को दूर - दूर तक बिखेरने वाली आंधी समझा | इसलिए अवतार जैसा सम्मानीय सम्बोधन का प्रयोग किया |

निंदक नेअरे रखिये, आँगन कुटि छवाय |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय || 

संत कबीर जी कहते हैं कि निंदक हमारे हितकारी हैं, हमारा कल्याण करते हैं | इसलिए उन्हें सदा समीप ही रखना चाहिए | जैसे संत ज्ञानवर्षा कर हमारे कर्म संस्कार धोते हैं, वैसे ही ये अज्ञानी निंदक हमारी निंदा चुगली कर हमारे पाप कर्मों का सफाया करते हैं | इस तरह एक प्रकार से ये भी संत अवतारों कि भांति हमारा उद्धार ही करते हैं |




मैं और मेरा लक्ष्य - दूसरा कोई नहीं!



आध्यात्मिक गुरु एक ही होते हैं | पर उपगुरु (शिक्षा गुरु) बहुत से हो सकते हैं | जैसे दत्तात्रेय जी ने 24 उपगुरु बनाए थे | .....एक दिन एक राह पर चलते - चलते दत्तात्रेय जी ने देखा कि सामने से पूरी सजबज और बैंड - बाजे के साथ एक बारात आ रही है | खूब धूम - धडाका हो रहा है | पर वहीं, उस सड़क के किनारे झाड़ियाँ की ओर तीर साधे एक शिकारी खड़ा है | उसकी दृष्टि अपलक, एकटक अपने शिकार पर गडी हुई है | न तो बारात की चकाचोंध ने उसका ध्यान बांटा और न उसके हंसी - ठट्ठे और शोर शराबे ने! शिकारी ने एक पल के लिए भी बारात की ओर मुड़कर नहीं देखा | एकचित होकर डटा रहा, अपने लक्ष्य पर! दत्तात्रेय जी ने उसे देखते ही प्रणाम किया, कहा -'आज से आप मेरे (उप) गुरु हैं | जब भी मैं ब्रह्मज्ञान की साधना में बैठूँगा, तो आपकी प्रेरणा से अपने प्रभु, अपने लक्ष्य पर, इसी प्रकार एक - केन्द्रित होने की कोशिश करूंगा | इतना तन्मन्य की आसपास की माया या दुनिया के विचारों का मुझे भान ही न रहे!' "सोम"




सतगुरु क्षमा कर दो उनको

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

जो विवेक से शून्य, दें कोरे तर्क,
बिन गुरु पाना चाहते ईश्वर |
जो जन्म अनेकों बदल चुके,
विश्वास नहीं परिवर्तन पर |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें दिव्य प्रकाश का भान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||

जो नहीं जानते गुरु उन्हें,
भवसागर पार करा सकता |
जो नहीं मानते कोई उन्हें,
घट में ईश्वर दिखला सकता |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें निज संस्कृति का मान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

अहंकार वश होकर जो,
कठिनाई अपनी बड़ा लेते |
वेदों व् धर्म - ग्रंथों तक को,
जो मनघड़त ठहरा देते |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
स्वीकार जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||



कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा ...

कहाँ है जन्नत? कहाँ है उसकी भोर?
है कोई जो ले जाए, उस एक की और?
ग़फलत की निद्रा से जगायेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन देगा सूर्य से अधिक प्रकाश?
जिसे मापने को कम पड़ेंगे तारे गगन आकाश
तमस की काली रात में, उजाले की किरण दिखाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो मन के वीराने में ज्ञान पुष्प करेगा प्रफुलित
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहम; पञ्च चोर जायेंगे मिट
आत्मा से भोगो की मलिनता उतार, पवित्र बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो बहती नदी को पहुँचाएगा उसके स्रोत?
हिलोरे खाती, भाटा लाती, होती ओतप्रोत
नदी की थकान दूर कर सागर मिलन कराएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो भक्ति का पथ पढ़, आत्मा की पुस्तक
अध्यात्म का रहस्य, दीक्षा का सत्य लाएगा मुझ तक
इंसानी पशु से मानव, मानव से ज्ञानी बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो तोड़ेगा कर्मों की बेड़ी?
संभालेगा डगरों पे तिरछी टेढ़ी – मेढ़ी
उँगली पकड़, विकारों से बचा, सत्यपथ पर चलेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो कराएगा साक्षात्त दर्शन चरण चक्षु मुंड?
तड़पते प्यासे चातक को देगा स्वाति बूँद
विवेक दृष्टि दे, अंतर्घर की क्षुधा बुझाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

शास्त्र-ग्रन्थ, बाईबल, गीता, कुरान भी करती है ऐलान
घट में दिखती दिव्य ज्योति मिल जाए अगर कोई संत महान
अमृत कुंड नाम भक्ति भण्डार का है कोष
दिव्य ज्योति जलाते है कलयुग में भी आशुतोष .......








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अपने शारीर को मांसाहारी भोजन द्वारा गंदा मत करो |


घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए, 
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय, 
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें,
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें,
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें |

संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद, बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं | बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती | आस - पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते ,जाने - अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं!

कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता | पर क्या यही दो दिन धार्मिक बातें माननी चाहिए? क्या बाकी दिन ईश्वर के नहीं है? जब पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है, भगवान को पसंद नहीं, तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए? वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह लेकर जाते हैं? नहीं न! फिर क्या यह शारीर परमात्मा का जीता - जागता मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं | फिर इस जीवंत मंदिर में मांस क्यों? कबीर जी ने सही कहा, हमने तो इस मंदिर रुपी शारीर को कब्र बना दिया है | बर्नार्ड शा ने भी यही कहा - 'हम मांस खाने वाले वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं|'

जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ 
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥

यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके, उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे?



कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ 
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥

मांसाहार से मनुष्य का स्वाभाव हिंसक हो जाता है और वो राक्षस बन जाता है | उसके द्वारा किए गए सभी धर्म कार्य व्यर्थ चले जाते हैं | जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन! अगर शुद्ध सात्विक भोजन खाया जाए, तो मन में भी वैसे ही विचार और भावनाएं उठेंगी | अगर हम तामसिक भोजन जैसे चिकन - शिकन,मिर्च - मसलें खाते हैं, तो मन में तामसिक गुण पैदा हो जाते हैं | हिंसा, क्रोध जैसी भावनाएं उठती हैं | एक सर्वे किया गया, जिसमें 75 प्रतिशत कैदी मांसाहार पाए गए | कभी ध्यान से देखिओ मांसाहारी लोग अक्सर बड़े गुस्सैल होते हैं | जरा सी कोई बात हुई नहीं कि वे तमतमा उठते हैं |

देखो, जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है | अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह उसी का भक्षण करता है | उसी पर कायम रहता है | शेर भूखा होने पर भी कभी शाक - पत्तियां नहीं खाएगा | गाय चाहे कितनी भी शुधाग्रस्त क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी | क्या कभी उसको मांसाहार करते हुए देखा है? बस एक इन्सान ही है, जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य - अभक्ष्य खा लेता है | स्वयं विचार कीजिए, पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है | 

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nath dhuna










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