प्राण गायत्री मंत्र
ॐ सोऽहं से मार्ग पाया, कैलाश मे महादेव पार्वती जी ने किया निवासा,
प्राण गायत्री का भया प्रकाशा, ॐ गुरूजी कौन पुरुष ने बाँधी काया, कौन डोर से हंसा आया,
कौन कमल ने संसार रचाया, कौन कमल से जीव का वासा, कौन कमल मे निरंजन निराई,
कौन कमल मे फ़िरी दुहाई, कहो सिद्ध असंख्य युग की बात, नहीं तो धरो सब ठाट-बाट,
ॐ गुरूजी अलख पुरुष ने बाँधी काया, कमल से संसार रचाया, ह्रदय कमल मे जीव का वासा,
कुञ्ज कमल मे निरंजन निराई, त्रिकुट महल मे फ़िरी दुहाई, कौन के हम शिष्य हैं,
कौन हमारा नाम, कौन हमारा इष्ट है, कौन हमारा गाँव, शब्द के हम शिष्य हैं,
सोऽहं हमारा नाम, प्राण हमारा इष्ट है, काया हमारा गाँव, ॐ सोऽहं हंसाय विद्महे,
प्राण प्राणाय धीमहि, तन्नो ज्योति स्वरूप प्रचोदयात. इतना प्राण गायत्री मंत्र सम्पूरण भया,
श्रीनाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश.
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त्रिशूल जाप
🌺🌺त्रिशूल जाप🌺🌺
ॐ गुरूजी आदेश गुरूजी सतगुरुओ को आदेश गुरूजी
ॐ गुरूजी,
आदिपुरुष ने त्रिशूल रचाया,
त्रिगुणों को एक बन्ध बसाया,
पहली धार सत्व गुण दिखाया,
दूजी धार रजस गुण चमकाया,
तीजी धार में तमस गुण भराया,
लोहे का त्रिशूल सतगुरु का मान
निर्गुण निराकार का ध्यान,
तीन लोक नो खण्ड चौदह भुवन
अलखपुरुष का त्रिशूल लहराया
नाथसिद्धो की वाणी साधक ने मानी
भय कटे रोग मिटे दूर हो नागन काली
पवित्र हो आसन,
पवित्र हो काया,
पवित्र हो धरती पाताल आकाश
जहाँ त्रिशूल का वास
भुत पिशाच ना आवे पास
रक्षा करे स्वंभूजति गोरखनाथ जी बाला
त्रिशूल जाप सम्पूर्ण भया अनन्त करोड़ सिद्धो में कथ मथ कर गंगाघाट पर कहा
गुरु के चरणों में नमस्कार बार बार नमस्कार
नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश "सोॐ"
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आरती
अंबे तू है जगदंबे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली ।
तेरे ही गुण गाएं भारती,
ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती ।।
तेरे भक्त जनों पे माता, भीर पड़ी है भारी ।
दानव दल पर टूट पड़ो मां, करके सिंह सवारी ॥
सौ सौ सिंहो से है बलशाली, है दस भुजाओं वाली ।
दुखियों के दुख को निवारती ।। ओ मैया ……
मां बेटे का है इस जग में, बड़ा ही निर्मल नाता ।
पूत कपूत सुने हैं पर, ना माता सुनी कुमाता ॥
सब पे करूणा दरसाने वाली, अमृत बरसाने वाली ।
दुखियों के दुखड़े निवारती ।। ओ मैया ……
नहीं मांगते धन और दौलत, न चांदी न सोना ।
हम तो मांगे मां तेरे मन में एक छोटा सा कोना ॥
सब की बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली ।
सतियों के सत को संवारती ।। ओ मैया ……
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श्री गोरक्षनाथ जी की आरती
श्री गोरक्षनाथ जी की आरती
ऊँ जय गोरक्ष देवा, श्री स्वामी जय गोरक्ष देवा।
सुर-नर मुनि जन ध्यावें, सन्त करत सेवा॥
ऊँ गुरुजी योगयुक्ति कर जानत, मानत ब्रह्म ज्ञानी।
सिद्ध शिरोमणि राजत, गोरक्ष गुणखानी ॥1॥ जय
ऊँ गुरुजी ज्ञान ध्यान के धारी, सब के हितकारी।
गो इन्द्रिन के स्वामी, राखत सुध सारी ॥2॥ जय
ऊँ गुरुजी रमते राम सकल, युग मांही छाया है नाहीं।
घट-घट गोरक्ष व्यापक, सो लख घट माहीं ॥3॥ जय
ऊँ गुरुजी भष्मी लसत शरीरा,रजनी है संगी।
योग विचारक जानत, योगी बहु रंगी ॥4॥ जय
ऊँ गुरुजी कण्ठ विराजत सींगी-सेली, जत मत सुख मेली।
भगवाँ कन्था सोहत, ज्ञान रतन थैली ॥5॥ जय
ऊँ गुरुजी कानन कुण्डल राजत, साजत रविचन्दा।
बाजत अनहद बाजा, भागत दुख-द्वन्द्वा ॥6॥ जय
ऊँ गुरुजी निद्रा मारो,काल संहारो, संकट के बैरी।
करो कृपा सन्तन पर, शरणागत थारी ॥7॥ जय
ऊँ गुरुजी ऐसी गोरक्ष आरती, निशदिन जो गावै।
वरणै राजा 'रामचन्द्र योगी', सुख सम्पत्ति पावै ॥8॥ जय
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श्री गोरक्ष-चालीसा
श्री गोरक्ष-चालीसाजय जय जय गोरक्ष अविनाशी, कृपा करो गुरुदेव प्रकाशी ।जय जय जय गोरक्ष गुणखानी, इच्छा रुप योगी वरदानी ॥ अलख निरंजन तुम्हरो नामा, सदा करो भक्तन हित कामा।नाम तुम्हारो जो कोई गावे, जन्म-जन्म के दुःख नसावे ॥जो कोई गोरक्ष नाम सुनावे, भूत-पिसाच निकट नही आवे।ज्ञान तुम्हारा योग से पावे, रुप तुम्हारा लखा न जावे॥निराकर तुम हो निर्वाणी, महिमा तुम्हारी वेद बखानी ।घट-घट के तुम अन्तर्यामी, सिद्ध चौरासी करे प्रणामी॥भरम-अंग, गले-नाद बिराजे, जटा शीश अति सुन्दर साजे।तुम बिन देव और नहिं दूजा, देव मुनिजन करते पूजा ॥चिदानन्द भक्तन-हितकारी, मंगल करो अमंगलहारी ।पूर्णब्रह्म सकल घटवासी, गोरक्षनाथ सकल प्रकाशी ॥गोरक्ष-गोरक्ष जो कोई गावै, ब्रह्मस्वरुप का दर्शन पावै।शंकर रुप धर डमरु बाजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजै॥नित्यानन्द है नाम तुम्हारा, असुर मार भक्तन रखवारा।अति विशाल है रुप तुम्हारा, सुर-नुर मुनि पावै नहिं पारा॥दीनबन्धु दीनन हितकारी, हरो पाप हम शरण तुम्हारी ।योग युक्त तुम हो प्रकाशा, सदा करो संतन तन बासा ॥प्रातःकाल ले नाम तुम्हारा, सिद्धि बढ़ै अरु योग प्रचारा।जय जय जय गोरक्ष अविनाशी, अपने जन की हरो चौरासी॥अचल अगम है गोरक्ष योगी, सिद्धि देवो हरो रस भोगी।कोटी राह यम की तुम आई, तुम बिन मेरा कौन सहाई॥कृपा सिंधु तुम हो सुखसागर, पूर्ण मनोरथ करो कृपा कर।योगी-सिद्ध विचरें जग माहीं, आवागमन तुम्हारा नाहीं॥अजर-अमर तुम हो अविनाशी, काटो जन की लख-चौरासी ।तप कठोर है रोज तुम्हारा को जन जाने पार अपारा॥योगी लखै तुम्हारी माया, परम ब्रह्म से ध्यान लगाया।ध्यान तुम्हार जो कोई लावे, अष्ट सिद्धि नव निधि घर पावे॥शिव गोरक्ष है नाम तुम्हारा, पापी अधम दुष्ट को तारा।अगम अगोचर निर्भय न नाथा, योगी तपस्वी नवावै माथा ॥शंकर रुप अवतार तुम्हारा, गोपीचन्द-भरतरी तारा।सुन लीज्यो गुरु अर्ज हमारी, कृपा-सिंधु योगी ब्रह्मचारी॥पूर्ण आश दास की कीजे, सेवक जान ज्ञान को दीजे।पतित पावन अधम उधारा, तिन के हित अवतार तुम्हारा॥अलख निरंजन नाम तुम्हारा, अगम पंथ जिन योग प्रचारा।जय जय जय गोरक्ष अविनाशी, सेवा करै सिद्ध चौरासी ॥सदा करो भक्तन कल्याण, निज स्वरुप पावै निर्वाण।जौ नित पढ़े गोरक्ष चालीसा, होय सिद्ध योगी जगदीशा॥बारह पाठ पढ़ै नित जोही, मनोकामना पूरण होही।धूप-दीप से रोट चढ़ावै, हाथ जोड़कर ध्यान लगावै॥अगम अगोचर नाथ तुम, पारब्रह्म अवतार।कानन कुण्डल-सिर जटा, अंग विभूति अपार॥सिद्ध पुरुष योगेश्वर, दो मुझको उपदेश।हर समय सेवा करुँ, सुबह-शाम आदेश॥सुने-सुनावे प्रेमवश, पूजे अपने हाथ।मन इच्छा सब कामना, पूरे गोरक्षनाथ॥ऊँ
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SHIV CHALISA
दोहा
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान ।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला । सदा करत सन्तन प्रतिपाला ॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके । कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये । मुण्डमाल तन छार लगाये ॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे । छवि को देख नाग मुनि मोहे ॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी । बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी । करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे । सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ । या छवि को कहि जात न काऊ ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा । तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥
किया उपद्रव तारक भारी । देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥
तुरत षडानन आप पठायउ । लवनिमेष महँ मारि गिरायउ ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा ॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई । सबहिं कृपा कर लीन बचाई ॥
किया तपहिं भागीरथ भारी । पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी ॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं । सेवक स्तुति करत सदाहीं ॥
वेद नाम महिमा तव गाई । अकथ अनादि भेद नहिं पाई ॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला । जरे सुरासुर भये विहाला ॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई । नीलकण्ठ तब नाम कहाई ॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा । जीत के लंक विभीषण दीन्हा ॥
सहस कमल में हो रहे धारी । कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी ॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई । कमल नयन पूजन चहं सोई ॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर । भये प्रसन्न दिए इच्छित वर ॥
जय जय जय अनंत अविनाशी । करत कृपा सब के घटवासी ॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै ॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो । यहि अवसर मोहि आन उबारो ॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो । संकट से मोहि आन उबारो ॥
मातु पिता भ्राता सब कोई । संकट में पूछत नहिं कोई ॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी । आय हरहु अब संकट भारी ॥
धन निर्धन को देत सदाहीं । जो कोई जांचे वो फल पाहीं ॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी । क्षमहु नाथ अब चूक हमारी ॥
शंकर हो संकट के नाशन । मंगल कारण विघ्न विनाशन ॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं । नारद शारद शीश नवावैं ॥
नमो नमो जय नमो शिवाय । सुर ब्रह्मादिक पार न पाय ॥
जो यह पाठ करे मन लाई । ता पार होत है शम्भु सहाई ॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी । पाठ करे सो पावन हारी ॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई । निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई ॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे । ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा । तन नहीं ताके रहे कलेशा ॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे । शंकर सम्मुख पाठ सुनावे ॥
जन्म जन्म के पाप नसावे । अन्तवास शिवपुर में पावे ॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी । जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
॥ दोहा ॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश ॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान ।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण ॥
॥ इति शिव चालीसा ॥
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श्री दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुख हरनी ॥
निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहुँ लोक फैली उजियारी ॥
शशि ललाट मुख महा विशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ॥
रुप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ॥
तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥
अन्नपूरना हुई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥
प्रलय काल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावैं । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावैं ॥
रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्धि ॠषि मुनिन उबारा ॥
धरा रुप नरसिंह को अम्बा । परगत भई फाड़ कर खम्बा ॥
रक्षा करि प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं । श्री नारायण अंग समाहीं ॥
क्षीरसिंधु में करत विलासा । दयासिंधु दीजै मन आसा ॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥
मातंगी धूमावती माता । भुवनेश्वरि बगला सुख दाता ॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी । क्षिन्न लाल भवदुख निवारिणी ॥
केहरि वाहन सोहे भवानी ।लांगुर वीर चलत अगवानी ।।
कर में खप्पर खड़ग विराजै । जाको देख काल डर भाजै ॥
सोहे अस्त्र और त्रिसूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत । तिहुँ लोक में डंका बाजत ॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥
रुप कराल काली को धारा । सेन सहित तुम तिहि संहारा ॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ॥
अमर पुरी औरों सब लोका । तब महिमा सब रहे अशोका ॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजैं नर नारी ॥
प्रेम भक्ति से जो जस गावै । दुःख दारिद्र निकट नहीं आवै ॥
ध्यावें तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म मरण ताको छुट जाई ॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ॥
शंकर आचारज तप कीनों । काम क्रोध जीति सब लीनों ॥
निशि दिन ध्यान धरो शंकर को । काहु काल नहिं सुमिरो तुमको ॥
शक्ति रुप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछतायो ॥
शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जै जै जै जगदम्ब भवानी ॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥
मोको मात कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो ॥
आशा तृष्णा निपट सतावै । रिपु मूरख मोहि अति डर पावै ॥
शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरौ इकचित तुम्हें भवानी ॥
करो कृपा हे मातु दयाला । ॠद्धि सिद्धि दे करहु निहाला ॥
जब लगि जियौं दया फल पाऊँ । तुम्हरो जस मैं सदा सुनाऊँ ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ॥
देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपार जगदम्बा भवानी ॥
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गणेश चालिसा,
जय जय जय वंदन भुवन, नंदन गौरिगणेश । दुख द्वंद्वन फंदन हरन,सुंदर सुवन महेश ॥
जयति शंभु सुत गौरी नंदन । विघ्न हरन नासन भव फंदन ॥
जय गणनायक जनसुख दायक । विश्व विनायक बुद्धि विधायक ॥
एक रदन गज बदन विराजत । वक्रतुंड शुचि शुंड सुसाजत ॥
तिलक त्रिपुण्ड भाल शशि सोहत । छबि लखि सुर नर मुनि मन मोहत ॥
उर मणिमाल सरोरुह लोचन । रत्न मुकुट सिर सोच विमोचन ॥
कर कुठार शुचि सुभग त्रिशूलम् । मोदक भोग सुगंधित फूलम् ॥
सुंदर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥
धनि शिव सुवन भुवन सुख दाता । गौरी ललन षडानन भ्राता ॥
ॠद्धि सिद्धि तव चंवर सुढारहिं । मूषक वाहन सोहित द्वारहिं ॥
तव महिमा को बरनै पारा । जन्म चरित्र विचित्र तुम्हारा ॥
एक असुर शिवरुप बनावै । गौरिहिं छलन हेतु तह आवै ॥
एहि कारण ते श्री शिव प्यारी । निज तन मैल मूर्ति रचि डारि ॥
सो निज सुत करि गृह रखवारे । द्धारपाल सम तेहिं बैठारे ॥
जबहिं स्वयं श्री शिव तहं आए । बिनु पहिचान जान नहिं पाए ॥
पूछ्यो शिव हो किनके लाला । बोलत भे तुम वचन रसाला ॥
मैं हूं गौरी सुत सुनि लीजै । आगे पग न भवन हित दीजै ॥
आवहिं मातु बूझि तब जाओ । बालक से जनि बात बढ़ाओ ॥
चलन चह्यो शिव बचन न मान्यो । तब ह्वै क्रुद्ध युद्ध तुम ठान्यो ॥
तत्क्षण नहिं कछु शंभु बिचारयो । गहि त्रिशूल भूल वश मारयो ॥
शिरिष फूल सम सिर कटि गयउ । छट उड़ि लोप गगन महं भयउ ॥
गयो शंभु जब भवन मंझारी । जहं बैठी गिरिराज कुमारी ॥
पूछे शिव निज मन मुसकाये । कहहु सती सुत कहं ते जाये ॥
खुलिगे भेद कथा सुनि सारी । गिरी विकल गिरिराज दुलारी ॥
कियो न भल स्वामी अब जाओ । लाओ शीष जहां से पाओ ॥
चल्यो विष्णु संग शिव विज्ञानी । मिल्यो न सो हस्तिहिं सिर आनी ॥
धड़ ऊपर स्थित कर दीन्ह्यो । प्राण वायु संचालन कीन्ह्यो ॥
श्री गणेश तब नाम धरायो । विद्या बुद्धि अमर वर पायो ॥
भे प्रभु प्रथम पूज्य सुखदायक । विघ्न विनाशक बुद्धि विधायक ॥
प्रथमहिं नाम लेत तव जोई । जग कहं सकल काज सिध होई ॥
सुमिरहिं तुमहिं मिलहिं सुख नाना । बिनु तव कृपा न कहुं कल्याना ॥
तुम्हरहिं शाप भयो जग अंकित । भादौं चौथ चंद्र अकलंकित ॥
जबहिं परीक्षा शिव तुहिं लीन्हा । प्रदक्षिणा पृथ्वी कहि दीन्हा ॥
षड्मुख चल्यो मयूर उड़ाई । बैठि रचे तुम सहज उपाई ॥
राम नाम महि पर लिखि अंका । कीन्ह प्रदक्षिण तजि मन शंका ॥
श्री पितु मातु चरण धरि लीन्ह्यो । ता कहं सात प्रदक्षिण कीन्ह्यो ॥
पृथ्वी परिक्रमा फल पायो । अस लखि सुरन सुमन बरसायो ॥
'सुंदरदास' राम के चेरा । दुर्वासा आश्रम धरि डेरा ॥
विरच्यो श्रीगणेश चालीसा । शिव पुराण वर्णित योगीशा ॥
नित्य गजानन जो गुण गावत । गृह बसि सुमति परम सुख पावत ॥
जन धन धान्य सुवन सुखदायक । देहिं सकल शुभ श्री गणनायक ॥
श्री गणेश यह चालिसा,पाठ करै धरि ध्यान । नित नव मंगल मोद लहि,मिलै जगत सम्मान ॥
द्धै सहस्त्र दस विक्रमी, भाद्र कृष्ण तिथि गंग । पूरन चालीसा भयो, सुंदर भक्ति अभंग ॥
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हनुमान चलीसा
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
बुध्दिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार ॥
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपिस तिहुँ लोक उजागर ॥
राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि-पुत्र पवन सुत नामा ॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै कांधे मूँज जनेऊ साजै ॥
संकर सुवन केसरीनंदन । तेज प्रताप महा जग बंदन ॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचंद्र के काज सँवारे ॥
लाय सजीवन लखन जियाये । श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डर ना ॥
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥
भूत पिसाच निकट नहिँ आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ॥
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥
संकट तें हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ॥
और मनोरथ जो कोइ लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ॥
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ॥
साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ॥
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ॥
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ॥
अंत काल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेंइ सर्ब सुख करई ॥
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥
जो सत बर पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ॥
जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥
दोहा
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लषन सीता सहित,हृदय बसहु सुर भूप ॥
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काली चालीसा
जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।
महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥
अरि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥
अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥
भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥
दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥
चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥
सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥
अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥
भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥
महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥
पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥
शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥
तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥
रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥
नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥
कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥
महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥
भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥
आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥
कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥
ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥
कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥
सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥
त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥
खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥
रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥
तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥
ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥
तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥
बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥
करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥
तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥
शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥
मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥
दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥
संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥
प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥
काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥
दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥
करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥
सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥
॥ दोहा ॥
प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।
तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥
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श्री शनि चालीसा
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुःख दूर करि , कीजै नाथ निहाल ॥1॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु , सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय , राखहु जन की लाज ॥2॥
जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छवि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवन चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमकै ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥
पिंगल, कृष्णो, छाया, नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुःख भंजन ॥
सौरी, मन्द शनी दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जापर प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं । रंकहुं राव करैं क्षण माहीं ॥
पर्वतहू तृण होइ निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत वन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥
वनहुं में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥
लषणहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥
रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महँ कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ॥
तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ॥
तनिक विकलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गतो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रोपदी होति उधारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देव-लखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावै ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिह सिद्ध्कर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥
जब आवहिं स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥
तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्वसुख मंगल भारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥
॥ दोहा ॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों 'भक्त' तैयार ।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥
॥इति श्री शनि चालीसा॥
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गायत्री
1. गणेश गायत्री:
ॐ एक दंधाया विदमहे
वक्रतुन्दय धीमहि
तन्नो तन्तिही प्रचोदयात
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2. विष्णु गायत्री:
ॐ नारायणाय विदमहे
वासुदेवाय धीमहि
तन्नो विष्णु प्रचोदयात
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3. शिव गायत्री:
ॐ पंचावाक्त्राया विदमहे
महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्राय प्रचोदयात
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4. ब्रह्मा गायत्री:
ॐ चतुर्मुखाय विदमहे
हंसा रुद्राय धीमहि
तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात
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5. राम गायत्री:
सीता वल्लभाय धीमहि
तन्नो रामही प्रचोदयात
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6. कृष्ण गायत्री
ॐ देवकी नन्दनाय विदमहे
वासुदेवाय धीमहि
तन्नो कृष्णा प्रचोदयात
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7. इन्द्र गायत्री:
ॐ सहस्रानेत्राया विदमहे
वज्रहस्ताय धीमहि
तन्नो इन्द्रा प्रचोदयात
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8. हनुमान गायत्री:
ॐ अन्जनिसुतय विदमहे
वायुपुत्राय धीमहि
तन्नो मारुतिः प्रचोदयात
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9. सूर्य गायत्री:
दिवकराया धीमही
तन्नो सूर्यः प्रचोदयात
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10. चन्द्र गायत्री:
ॐ शिर्पुत्राया विदमहे
अमृत तत्वाय धीमहि
तन्नो चंद्रह प्रचोदयात
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11. यम गायत्री:
महाकालाय धीमहि
तन्नो यामहः प्रचोदयात
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12. वरुण गायत्री:
ॐ जल्बिम्बाया विदमहे
नील पुर्शयाय धीमही
तन्नो वरुणयाय प्रचोदयात
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13. नारायणा गायत्री:
ॐ नारायणाय विदमहे
वासुदेवाय धीमहि
तन्नो नारायणः प्रचोदयात
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14. नरसिंह गायत्री :
ॐ उग्रंरिशिन्घये विदमहे
वज्रंखाया धीमहि
तन्नो नर्सिंगायाय प्रचोदयात
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15. दुर्गा गायत्री:
ॐ गिर्जयाय विद्महे
शिव पिरयाय धीमहि
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात
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16. लक्ष्मी गायत्री:
ॐ महा ळक्ष्मयेइ विदमहे
विश्नुप्रिययेइ धीमहि
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात
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17. सरस्वती गायत्री:
ॐ श्ररस्वतेयेइ विदमहे
ब्रह्मपुत्रिये धीमहि
तन्नो देवी प्रचोदयात
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18. अग्नि गायत्री:
ॐ महज्वल्येइ विदमहे
अग्निदेवाया धीमहि
तन्नो अग्निः प्रचोदयात
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19. पृथ्वी गायत्री:
ॐ पृथ्वी देवयेई विदमहे
श्रहस्रमुर्तयेइ धीमहि
तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात
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20. तुलसी गायत्री:
ॐ तुलसी विद्महे
विष्णु पिर्य धीमहि
तन्नो वृंदा प्रचोदयात
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देवी मन्त्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ रुपेण संस्थिता
या देवी सर्वभूतेषु शक्ती रुपेण संस्थिता
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रुपेण संस्थिता
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
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गुरु धर्म नाथ को आदेश
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