मरो वे जोगी मरो मरण है मीठा
तिस मरणी मरो जिस मरणी गोरख मरि दीठा
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अवधू ईश्वर हमारै चेला भणींजै, मछींद्र बोलिये नाती।१।
निगुरी पिरथी परलै जाती, हम उल्टी थापना थापी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शिव हमारे चेले है, मत्स्येन्द्रनाथ नाती चेला यानी चेले का चेला। हमें स्वयं गुरु धारण करने की आवश्यकता नही थी। क्योंकी हम साक्षात परमात्मा है। किंतु इस डर से की कही हमारा अनुकरण कर अज्ञानी लोग बिना गुरु के ही योगी होने का दंभ न भरने लगें, हमने मत्स्येन्द्रनाथ को गुरु बनाया। जो वस्तुतः उल्टी स्थापना अथवा क्रम है। यदि हम ऐसा न करते तो गुरुहीन पृथ्वी प्रलय में चली जाती अर्थात नष्ट हो जाती।
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मन पवना धोरी जोतावो, सतनां सांतीड़ा समधावो।१।
दया धर्म नां बीज अणावो, इणीं परिषे त्रे जावो।२।
षातां न षूटै, देतां न निठै, जम बार नहीं जाइ।३।
मछीन्द्र प्रसादै जती गोरष बोल्या, नित नवेरड़ौ थाइ।૪।
महायोगी गोरख योगीजनो को उपदेश करते है की इस पवन रुपी कृषक के अन्तर्गत मन रुपी बैल को जोतवाओ ( यानी श्वास द्वारा मन को नियन्त्रित करो) और सत्य स्वरुप की नाथ (नथुनो मे नाथ डालकर रस्सी द्वारा नियन्त्रण रखना) डालकर इस बैल को दिशा प्रदान करो। दया व धर्म रुपी बीज लेकर इस खेत (साधना पथ) मे डालो। मछेन्द्रनाथ के कृपा प्रसाद से जती गोरखनाथ कथन करते है की इस प्रकार से यदि खेती करोगे तो ऐसी फसल प्राप्त होगी, जो खाने से खत्म नही होगी, देने से कम नही होगी, सदा नित्य व नवीन बनी रहेगी और ऐसी खेती करने वाले को कभी यम का द्वार नही देखना पड़ेगा।
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ऐसा जाप जपौ मन लाई, सोहं सोहं अजपा गाई।१।
आसण दिढ करि धरौ धियानं, अहनिस सुमिरौ ब्रह्म गियानं।२।
महायोगी गोरख निर्वाण मार्ग के अनुगामी योगियो को उपदेश करते हुए कहते है की इस मन का उस परम मे लय करके, ऐसी योग की अवस्था को प्राप्त करो की सोहं - २ के भाव के संग निरंतर अजपा जाप दृढ़ हो जाए ( यानी निज के "मै" भाव रुपी द्वैत का लय परमात्मा मे होकर, केवल एक अलख पुरुष स्वरुप मे सूरति दृढ़ होकर व्याप्त रहे)। महायोगी गोरख कथन करते है की दृढ़ता पूर्वक योग व ध्यान धरो ( यानी मायावी प्रपंचो के कारण हलचल मे ना आकर निरन्तर योगयुक्त रहो), इस प्रकार से योग अनुसंधान करने पर निरन्तर ब्रह्मज्ञान का स्मरण रहने लगेगा ( यानी चेतना निरन्तर ब्रह्म स्वरुप बनी रहेगी)।
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सति सति भाषंत श्री गोरष जोगी, अमे तौ रहिबा रंगै।१।
अलेष पुरसि जिनि गुर मुषि चीन्ह्यं, रहिबा तिसकै संगै।२।
महायोगी गोरख सत्य - २ वचन कहते है की हम तो अपने रंग मे मस्त रहते है ( यानी निरन्तर निज चैतन्य स्वरुप की मस्ती मे मग्न रहते है और किसी अन्य के संग की कोई चाह नही करते है)। महायोगी गोरख पुन: कथन करके योगीजनो को उपदेश करते है की सर्वश्रेष्ठ स्थिति तो अपने निज के आनंद मे स्थित होकर उनमुक्त रुप से विचरण करने मे है, लेकिन यदि संग करना भी हो तो ऐसे जागृत साधक का करना चाहिए, जिसने गुरुज्ञान के आधार से अलख पुरुष (परमात्मा) को पहचान (साक्षात्कार) लिया हो ( यानी गुरुज्ञान व गुरुआज्ञा से विरुद्ध रहने वाले व आत्मज्ञान से रहित व्यक्ति का संग नही करना चाहिए, क्योंकी न तो उसकी निज की कोई गति हो सकती है और न ही उसका संग करने मे कोई सार है)।
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तृकुटी संगम कृपा भरिया, मद नीपज्या अपारं।१।
कुसमल होता ते झड़ि पड़िया, रहि गया तहाँ तत सारं।२।
एवहा मद श्री गोरष केवटया, बंदत मछींद्र ना पूता।३।
जिनि कैवटया तिनि भरि भरि पीया, अमर भया अवधूता।૪।
महायोगी गोरख कहते है की त्रिकुटी संगम ( इडा, पिंगला व सुषुम्ना का मेल जहाँ होता है) उस परम सता की अनुकम्पा (अनुभूति) से परिपूर्ण हो गया ( यानी योग की परकाष्ठा जब धटित हुई तो अमृत स्त्राव होने लगा और सहस्त्रार स्थान मे अनुभूति होने लगी )। अपार मदिरा (ब्रह्मनुभूति रुपी मदिरा) का प्राकट्य हुआ, जिससे सारा मल (द्वैत) झड़ गया और एक सार तत्व (ब्रह्म तत्व) शेष रह गया। मछेन्द्रनाथ के शिष्य महायोगी गोरखनाथ कहते है की हमने ऐसी मदिरा का निज घट मे पान किया और परमानंद की अनुभूति की। महायोगी गोरख पुन: परम सत्य का कथन करते है की जो कोई भी इस मदिरा को प्राप्त करेगा, वह इसको भर भर कर पियेगा और अवधूत पद को पाकर अजर अमर हो जायेगा।
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आईसौ भील पारघी हाथ नही, पाई प्यंगुलो मुष दांत न काही।१।
हयों हयों मृधलौ धुणही न तही, घंटा सुर तिहां नाद नाही।२।
भीलड़ै तिहां ताणियौ बाण, मन हीं मृघलौ बेधियौ प्रमांण।३।
हयौं हयौं मृगलौ बेधियो बांण, धुण ही बांण न थी सर तांण।૪।
भीलड़ीं मातंगी रांणी, मृघलौ आंणीं ठांणीं।५।
चरण बिहूेंणौं मृगलौ आण्यौ, स्रीस सींग मुष जाइ न जांण्यौ।६।
भणत गोरषनाथ मछिंद्र नां पूता, मारयो मृघ भया अवधूता।७।
याही हियाली जे कोई बूझै, ता जोगी कौ तृभुवन सूझै।८।
महायोगी गोरख कहते है की एक ऐसा शिकारी ( हमारा चैतन्य आत्मिक स्वरुप) है, जिसके हाथ नही, पाँव नही और मुख मे दाँत नही ( यानी स्थूलता रहित) है। उसके पास मृग को वश मे करने के लिए न तो बाण है, ना कोई सुरीला राग है और ना ही कोई नाद या घंटा आदि है। फिर भी शिकारी ने बिना किसी बाण के केवल इच्छा (शिव संकल्प) द्वारा ही मृग (मन) को बेध कर मार दिया। इसके उपरान्त मदमाती भीलनी ( पराशक्ति कुण्डलिनी) उस चरण हीन (चंचलता रहित) मृग (मन) को उसके मूल स्थान (सहस्त्रार स्थान) पर ले आयी, जहाँ उसका सिर, सींग, पूँछ आदि कुछ जाना नही जा सकता था ( यानी वह मन किसी भी प्रकार के नाम, रुप से परे परम शून्य स्वरुप हो गया)। मछेन्द्रनाथ के शिष्य महायोगी गोरखनाथ कथन करते है की हे योगीजनो! सुनो जिसने इस मृग (मन) को मार लिया (अपने अनुकूल कर लिया) वही परम अवधूत पद को पा सकेगा और जो इस सार ज्ञान की निज अन्त:करण मे अनुभूति कर लेगा, वह र्त्रिकालदर्शी होकर, परम ज्ञान को उपलब्ध हो जायेगा।
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अबधू अहूंठ परबत मंझार, बेलडी माड्यौ बिस्तार।१।
बेली फूल बेली फल, बेलि अछै मोत्याहल।२।
सिष्टि उतपनीं बेली प्रकास, मूल नही पर चढ़ी आकास।३।
उरध गोढ कियौ विसतार, जांण नै जोसी करै विचार।૪।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! अहूँठ पर्वत ( साढ़े तीन हाथ के इस शरीर) मे माया रुपी बेल का विस्तार है। इसी माया रुपी बेल पर स्थूल जगत रुपी फल व फूल लगे है, लेकिन इसके अलावा मुक्ति रुपी फल भी इसी बेल पर लगता है ( यानी परम मुक्ति को पाने का आधार भी यह शरीर ही है)। इसी बेल के प्रकाश से जगत की उत्पति हुई है ( यानी मायावी द्वैत भाव के कारण ही इस सकल जगत का पसारा है)। इसका कोई मूल नही है ( यानी माया मिथ्यारुप व आधारविहीन है), लेकिन फिर भी यह आकाश चढ़ गई है ( यानी चेतना के उच्च स्तरो तक इसका विस्तार हो गया है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की इस माया रुपी बेल ने विस्तार प्राप्त कर ब्रह्मानुभूति पर आवरण डाल दिया है। अत: हे भौतिक जगत के ज्ञानियो, इस सार बात पर विचार करो ( यानी जगत के मिथ्या ज्ञान का दंभ त्यागकर, परम सत्य के ज्ञान का विचार करो ताकी माया का पर्दा हटे व सत्य ज्ञान की प्राप्ति हो पाये)।
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लूण कहै अलूंणां, घृत कहै मै रूषा।१।
अनल कहै मै प्यासा मूवा, अन्न कहै मैं भूखा।२।
पावक कहै मै जाडण मूवा, कपड़ा कहै मै नागा।३।
अनहद मृदंग बाजै, तहां पांगुल नाचन लागा।૪।
आदिनाथ बिहवलिया बाबा, मछिंन्द्रनाथ पूता।५।
अभेद भेद भेदीले जोगी, बंदत गोरष अवधूता।६।
महायोगी गोरख कहते है की ऐसा योगी जिसने आत्म अनुभूति कर ली, वह सब कारणो का भी कारण है। सभी कारणो को कारणत्व उसी से प्राप्त होता है, लेकिन स्वयं वह किसी कारण भाव से बंधा नही होता है। ऐसे शिवस्वरुप योगी के सामने लवण कहता है की मै अलूणा हूँ ( यानी लवण मे वह सामर्थ्य नही की उनको लूणा स्वाद दे सके, वह उनसे लूणापन माँगता है), घी कहता है की मै रुखा हूँ, हवा कहती है की मै प्यासी हूँ, अन्न कहता है की मै भूखा हूँ, अग्नि कहती है की मै जाड़े से मर रही हूँ और कपड़ा कहता है की मै नंगा हूँ। गोरखनाथ जी महाराज यहाँ संकेत करते है की ऐसी अवस्था तभी घटित होती है, जब योगी के घट मे अनाहत रुपी मृदंग बजता है और उसके ताल पर पंगु हो चुकी आत्मा ( यानी परमात्म आनंद से संयुक्त, सर्व विकारो व इन्द्रियो के संग से रहित, चैतन्य रुप से व्याप्त आत्मा) नाचने लगती है। ऐसे पूर्ण परमानंद प्राप्त अलख स्वरुप योगी, आदिनाथ जिनके दादा गुरु है और मछेन्द्रनाथ का जो शिष्य है, वह परमअवधूत गोरखनाथ जी महाराज कहते है की मैने अभेद (अद्वैत) के भेद (रहस्य) को भेद कर परमपद को पा लिया है।
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काया गढ़ भींतरि, देव देहुरा कासी।१।
सहज सुभाइ, मिले अविनासी।२।
बंदत गोरषनाथ सुणौ नर लोई।३।
काया गढ़ जीतैगा, बिरला कोई।૪।
महायोगी गोरख कहते है की देव, देवालय और तीर्थ आदि सब इसी काया के भीतर है, लेकिन चेतन रुप मे परम सहजता व सरलता से संयुक्त होने पर ही योगी को इस घट मे परमात्म एकात्मय उपलब्ध हो पायेगा। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज पुन: कथन करते हुए कहते है की हे मानव ! सुनो, कोई बिरला ही इस काया रुपी किले को जीतकर उस परमपद मे स्थित हो पायेगा (क्योंकी यहाँ निज से निज को ही जीतना पड़ेगा)।
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आऊं नही जाऊं, निरंजन नाथ की दुहाई।१।
प्यंड ब्रह्मंड षोजता, अन्हे सब सिधि पाई।२।
काया गढ़ भींतरि, नव लष खाई।३।
दसवे द्वारि अवधू ताली लाई।૪।
महायोगी गोरख अलख पुरुष (निरंजन नाथ) को साक्षी करके कहते है की ना तो हमारा कही आना है और ना ही कही जाना है ( यानी हमारे लिए किसी प्रकार का आवागमन नही है)। हमने पिंड (काया) में ही ब्रह्माण्ड को खोज लिया, जिससे इसी काया मे ही हमे सर्व प्रकार की सिद्धता प्राप्त हो गयी। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की कायागढ़ (शरीर रुपी किले मे) नौ लाख खाइयाँ है (यानी नवरंध्रो मे चौरासी लाख योनियो के अनेको संस्कार भरे हुए है) जिनको हमने योग द्वारा पाट दिया है और दसवे द्वार पर लगे ताले को कुण्डलिनी शक्ति रुपी ताली लगाकर खोल लिया है, जिससे ब्रह्मरंध स्थान पर विजय प्राप्त हो गयी है।
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सप्त धात का काया पींजरा, ता मांहि जुगति बिन सूवा।१।
सतगुरु मिलै तो ऊबरै, नहीं तौ परलै हूवा।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह काया सात धातुओं ( रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र) से बना हुआ पिंजरा है, जिसमे योग युक्ति के अभाव के कारण जीव सुषुप्त रुप से बन्धन मे पड़ा है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की सदगुरु शरणागति ही जीव को सर्व बन्धनो से उबारने का एकमात्र साधन है (क्योंकी सदगुरु ही जीव को चेतन करके शिवत्व का मार्ग प्रशस्त कर सकता है), अन्यथा तो बारम्बार बन्धन से संयुक्त होकर विनाश को प्राप्त होता रहेगा।
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काल न मिटया जंजाल न छुटया, तप कर हूवा न सूरा।१।
कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा।२।
महायोगी गोरख कहते है की यदि योगयुक्ति धारण करके भी साधक का आवागमन समाप्त नही होता है, जगत का जंजाल मिटता नही है और तप के द्वारा वह परम निर्भयता व उपरामता को नही पाता है तो फिर ऐसे योगानुसंधान का क्या लाभ है ? ( यानी ऐसा योग का मार्ग ही सारहीन हो जाता है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की बिना पूर्ण गुरु की शरण लिये, गृहत्याग कर जोग नही लेना चाहिए, इससे वह अपयश ही पाता है ( क्योंकी पूर्ण गुरु के मार्गदर्शन मे ही पूर्णता को पाया जा सकता है, जिससे सकल द्वन्दो का नास हो जाता है)।
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अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी, ता मै झिलमिल जोति उजाली।१।
जरां जोग तहां रोग न ब्यापैं, ऐसा परषि गुरु करना।२।
तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरना।३।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! ऐसे ज्ञान का विचार करो जिससे ज्योति का झिलमिल प्रकाश प्रत्यक्ष हो जाये ( यानी ज्योतिस्वरुप परमात्मा के निर्मल नूर का साक्षात्कार हो जाए और हमारा अन्तर उससे प्रकाशित हो उठे)। साधक को परख करके गुरु करना चाहिए, ताकी सदगुरु की कृपा से ऐसा परम योग घटित हो, जिस के बाद फिर माया का कोई रोग व्याप्त ना हो पाए। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की यदि तन व मन के स्तर से ऊपर उठकर, उस परम सता से परिचय (साक्षात्कार) नही हुआ, तो फिर किसलिए योग का अनुसंधान करके कष्ट पाना है ( यानी योग की सार्थकता तभी है जब वह परमात्मा से एकरुपता स्थापित करा दे, अन्यथा तो वह प्रंपच मात्र बन कर रह जाता है)।
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ऐसी गायत्री घर बारि हमारै, गगन मंडल मैं लाधी लो।१।
इहि लागि रहा परिवार हमारा, लेइ निरंतरि बांधी लो।२।
कानां पूछां सींग बिबरजित, बर्न बिवरजित गाई लो।३।
मछिंद्र प्रसादै जती गोरष बोल्या, तहां रहै ल्यो लाई लो।૪।
महायोगी गोरख कहते है की हमारे घर मे ऐसी गाय (गायत्री) बँधी है, जिसे हमने गगन मंडल (ब्रह्मारंध) में प्राप्त (लाधी) किया है ( यानी हमारे काया रुपी घर मे चेतन रुप से परमात्मा रुपी गाय का वासा हुआ है )। मेरा सारा परिवार (सकल इन्द्रियाँ व मन) इसी गाय की सेवा मे लगा रहता है (यानी मन सहित समस्त इन्द्रिया निरन्तर परमात्म रस का रसपान करते रहते है, अन्य कोई भटकाव शेष नही रहा है )। यह गाय कान, सींग, पूँछ व रंग से रहित है ( यानी परमात्म सता सम्पूर्ण मायावी द्वैत व प्रपंच से रहित, परम र्निकार व निर्लेप रुप से व्याप्त है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की मेरे गुरु मछेन्द्रनाथ के कृपा प्रसाद से हम निरन्तर उस परम उन्मुक्त अवस्था मे ही निवास करते हुए, ब्रह्मानुभूति मे ही लवलीन रहते है।
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अनहद सबदै संष बुलाया, काल महादल दलिया लो।१।
काया कै अंतरि गगन मंडल मैं, सहजै स्वामी मिलिया लो।२।
महायोगी गोरख कहते है की अनाहत शब्द रुपी शंख का उदघोष करते हुए हमने काल की सेना का दमन कर दिया ( यानी अनाहत नाद के जागरण से उन सभी कारणो का नाश हो गया जो काल का ग्रास बनाने वाले तथा जन्म मरण के प्रपंचो मे फँसाने वाले थे)। महायोगी गोरखनाथ का कथन है की तदउपरान्त इसी घट (काया) के भीतर, हमने गगन मंडल (सहस्त्रार स्थान) पर सहज रुप से स्वामी (परब्रह्म) को पा लिया (यानी उनसे तादाम्य प्राप्त हो गया)।
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ममिता बिनां माइ मुइ, पिता बिनां मूवा छोरु लो।१।
जाति बिहूँनां लाल ग्वालिया, अहनिस चारै गोरु लो।२।
महायोगी गोरख कहते है की ममत्व मिट जाने पर माया रुपी माई का क्षय हो जाता है और अंहकार रुपी पिता की समाप्ति पर, उनके बच्चो यानी षड्विकारो का भी नाश हो जाता है। इस प्रकार जाति (देहगत) प्रपंचो से रहित होकर ग्वाला (गोरखनाथ), रात दिन गोरु (गाय) चराता रहता है यानी इन्द्रियो को संयमित करके, उन्हे निरन्तर परमात्म स्मृति मे लगाये रखता है।
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गोरष लो गोपलं लो, गगन गाइ दुहि पीवै लो।१।
मही बिरोली अंमी रस पीजै, अनभै लागा जीजै लो।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे गोपाल! ( इन्द्रियो के पालक) यानी हे मानव! तुम भी गोरखनाथ की तरह गगन मण्डल (शून्य स्थान) रुपी गाय के दुग्ध (ब्रह्मानुभूति) का पान करो। इस सकल मायावी पसारे रुपी दही को मथकर उसके सार रुपी अमृत ( परमात्म अनुभूति) का पान करो और फिर अभय होकर जीवन जीयो (क्योंकी ब्रह्मानुभूति सर्व प्रकार के द्वैत व भय का नाश कर देती है और इससे संयुक्त जन परम उन्मुक्त अवस्था मे विधमान रहता है
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एक गाइ नौ बछड़ा, पंच दुहेबा जाइ।१।
एक फूल सोलह करंडियां, मालनि मन मैं हरिष न माइ।२।
पगां बिहूनड़ै चोरी कीधी, चोरी नै आंणी गाई।३।
मछिंद्र प्रसादै जति गोरष बोल्या, दूझै पाणी न ब्याई।૪।
महायोगी गोरख कहते है की आत्मा रुपी एक गाय है जिसके नौ बछड़े (यानी नवरंध्र) है, जो इस गाय (आत्मा) का दुग्ध पान करते है (यानी इसकी आध्यात्मिक शक्ति का ह्रास करते है)। इसके साथ ही पंच इन्द्रियो द्वारा इस आत्मा रुपी गाय का दुग्ध दोहा जाता है ( यानी इनके द्वारा आत्मिक शक्तियो का दोहन होता रहता है)। लेकिन योगी अपने योगबल से सोलह करंडियो वाले पुष्प को पा लेता है ( यानी सहस्त्रार स्थान मे स्थित सोलह कलाओ से संयुक्त चन्द्रमा रुपी परमानंद को प्राप्त करता है), जिससे आत्मरुपी मालिन परम सुख को प्राप्त करती है।
महायोगी गोरख पुन: कथन करते है की हमने तो बिना पैरो के गाय की चोरी कर ली ( यानी अचल समाधिस्थ होकर आत्मा को ब्रह्मानुभूति की प्राप्ति कराई)। गुरु मछेन्द्रनाथ के कृप्या प्रसाद से जति गोरख कहते है की इसके उपरान्त यह गाय दोबारा नही बिआई यानी गुरु कृपा से आवागमन सदा काल के लिए समाप्त हो गया और हमने उस परम अलख स्वरुप को एकाकार कर लिया।
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डूंगरि मंछा जलि सुसा, पांणीं मैं दौं लागा।१।
अरहट बहै तुसालवां, सूलै कांटा भागा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब साधक का मन (मंछा) चेतना के उच्चतम स्तर (डूंगरि) पर पहुँच जाता है, तो फिर मायावी परिवेश मे रहते हुए भी वह माया से सदा र्निलेप ही रहता है। उसका जागृत विवेक सत् और असत् का यथार्थ ज्ञान पाकर माया का नाश कर देता है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की ऐसे अवस्था बोध मे साधक ब्रह्मानुभूति द्वारा परम तृप्ति को पाता है और शूल (विधा) से काटे (अविधा) का निवारण (क्षय) हो जाता है।
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चंद सूर नीं मुंद्रा कीन्ही, धरणी भस्म जल मेला।३।
नादी ब्यंदी सींगी आकासी, अलख गुरु नां चेला।૪।
महायोगी गोरख कहते है की हमने चन्द्र और सूर्य (इड़ा व पिंगला) के मार्ग को त्याग, निज चेतना को सुषुम्णा मार्ग से प्रवाहित कर दिया। यही हमारे लिए मुद्रा धारण करना है। इसी प्रकार सांसारिकता को भस्म करके ( परम र्निलेप रुप से मायापति होकर ), उस भस्म को वैराग्य रुपी जल मे डालकर, उसे शरीर पर रमा लिया ( यानी सांसारिक लीला हेतु माया को अधीन करके जगत का खेल खेला )। यही हमारे लिए शरीर पर भस्म धारण करने का अभिप्राय है। महायोगी गोरख का कथन है की इसी प्रकार हमने नादी ( निरंतर नादानुसंधान), बिंदी ( बिंद (वीर्य) रक्षा करते हुए, अखंड ब्रह्मचर्य व्रत की पालना), सिंगी ( शब्द ब्रह्म से एकरुपता) और आकाशी ( निरन्तर शून्य स्वरुप (स्थूलता से परे ) स्थिति), को धारण करते हुए, अलख गुरु का शिष्यत्व प्राप्त कर लिया ( यानी परम र्निकार की अवस्था मे परमात्म एकरुपता को आत्मसात कर लिया)।
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नाद अनाहद गरजै गेणं, पछिम ऊग्या भांणं।१।
दक्षिण डीबी उतर नाचै, पाताल पूरब तांणं।२।
महायोगी गोरख कहते है की गगन (त्रिकुटी) मे अनाहत नाद का गर्जन हो उठा और सूर्य (मूलाधार शक्ति) का पश्चिम (सुषुम्ना मार्ग) मे उदय हो गया। जागृत मूलाधार शक्ति सहस्त्रार मे नाचने लगी, जिससे पूर्व (सहस्त्रार) का परम ज्ञान चेतन हो उठा और हम सर्व मायावी प्रपंचो से पार हो गये।
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बदंत गोरषनाथ दसवीं द्वारी, सुर्ग नै केदार चढ़िया।१।
इकबीस ब्रह्मण्ड ना सिवर ऊपरि, ससमवेद ऊचरिया।२।
द्वादस दल भीतरि रवि सक्ति, ससि षोड़स सिव थांनं।३।
मूल सहंसर जीब सींब घरि, उनमनी अचल धियांयनं।૪।
महायोगी गोरख कहते है की दसवें द्वार (ब्रह्मरंध) से होते हुए योगी मोक्ष पद (स्वर्ग) की प्राप्ति के लिए शिव स्थान (केदार) तक चढ़ाई चढ़ता है और २१ ब्रह्मांडो से परे की उपराम अवस्था मे अपने मूल शाश्वत स्वरुप का उदघोष सुनता है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज कथन करते है की मूलाधार स्थान मे स्थित सूर्य की बारह कलाओ मे शक्ति का वास है और सहस्त्रार स्थान मे स्थित चन्द्रमा की सोलह कलाओ मे शिव का वास है। जब बारह कलाओ से संयुक्त मूलाधार शक्ति का सहस्त्रार स्थान मे सोलह कलाओ से संयुक्त शिव तत्व से एकात्मय होता है, तो पूर्ण शिवत्व का जागरण घटित होता है। इसके परिणाम स्वरुप जीव का शिव घर मे वास हो जाता है ( यानी जीव की चेतना शिव स्वरुप हो जाती है) और वह उन्मनावस्था मे स्थित होकर, परमसमाधि को प्राप्त हो जाता है।
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सुंनि न अस्थूल ल्यंग नहीं पूजा, धुंनि बिन अनहद गाजै।१।
बाड़ी बिन पहुप पहुप बिन साइर, पवन बिन भृंगा छाजै।२।
राह बिन गिलिया अगनि बिन जलिया, अंबर बिन जलहर भरिया।३।
यह परमारथ कहौ हो पंडित, रुग जुग स्यांम अथरबन पढ़िया।૪।
संसमवेद सोहं प्रकासं, धरती गगन आदं।५।
गंग जमुन बिच षेलै गोरष, गुरु मछिन्द्र प्रसादं।६।
महायोगी गोरख कहते है की वह जो ना शून्य है और ना ही स्थूल है और ना ही स्थूल रुप से चिन्हित करके उसकी पूजा हो सकती है। वह जो बिना ध्वनी के अनहद नाद रुप मे गूंजायमान हो उठता है। वह जो बिना वाटिका का पुष्प और बिना पुष्प के सौरभ है। वह जो बिना पवन के चारो तरफ सुगंधि का पसारा कर, भवरौ के समूह को आकर्षित किए रहता है। वह जो बिन राहु के ग्रस लेता है, बिना अग्नि के जला देता है और बिना आकाश के बादलो से बारिश करा देता है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज वेद (ऋग, यजु, साम, अर्थ) व शास्त्रो का तोता रटन करने वाले तथाकथित ब्राह्मणो से पूछते है की इन परम वाक्यो का अर्थ कहो (जानो)। तदउपरान्त सिद्ध शिरोमणि जति गोरखनाथ जी महाराज कथन करते है की यह निज से निज को प्रकाशित करने वाला सोहंभाव ( परम सता से एकरुपता का ज्ञान) है, जो धरती, जल या आकाश मे नही व्याप्ता है ( यानी यह आदि अन्त से परे परम अवस्था है)। अन्त मे महायोगी गोरखनाथ जी महाराज कहते है की गुरु मछेन्द्र के कृपा प्रसाद से हमने गंगा (इडा) और जमुना (पिंगला) के बीच (सुषुम्ना) मे खेल ( परमानंद ) किया और इस परम ज्ञान का अनुभव पाया ( यानी परम समाधि से संयुक्त होकर आत्म साक्षात्कार की अनुभूति की)।
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बझौ पंडित ब्रह्म गियानं, गौरष बोलै जाण सुजांन।१।
बीज बिन निसपति, मूल बिन बिरषा, पांन फूल बिन फलियाँ।२।
बांझ केरा बालूड़ा, प्यंगुल तरवरि चड़िया।३।
गगन बिना चंद्रम, बाह्मांड बिन सूरं, झूझ बिन रचिया थानं।૪।
ए परमारथ जे नर जांणैं, ता घटि परम गियांनं।५।
महायोगी गोरख कहते है की हे पंडितो (ज्ञानियो)! इस सतही ज्ञान से परे ब्रह्मज्ञान को समझो, आज गोरखनाथ अपने अनुभव की कसौटी के आधार पर तुम्हे इस ब्रह्मज्ञान का कथन कर रहे है, इसलिए इसको जानो। वह परमब्रह्म बिना बीज के उत्पन्न होने वाला है ( यानी वह स्वयं मूल रुप है, सकल ब्रह्माण्ड उसी का पसारा है), वह बिना मूल का वृक्ष है (यानी निराधार है), वह बिना फूलो व पत्तो के फल देने वाला है (यानी प्रकृति के नियम उसे नही बाँधते, वह उनसे सर्वदा परे है)। वह बंध्या का बालक है ( यानी कार्य कारण से बंधा नही है)। वह बिना आकाश का चन्द्रमा है ( सर्वत्र एकरुप से व्याप्त है, कोई द्वैत उसमे नही व्यापता है), वह बिना ब्रह्मांड का सूर्य है ( यानी निराधार रुप से सबको संचालित करने वाला है), वह बिना मैदान के घटित होने वाला युद्ध है ( यानी शून्य स्थान मे उसका पसारा है)। महायोगी गोरखनाथ जी का कथन है की जिसके अन्तर मे इस परमार्थ भाव का उदय होता है उसको ही यह परम ज्ञान सुलभ हो जाता है।
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ग्यांन गुरु दोऊ तूबा अम्हारे, मनसा चेतनि डांडी।१।
उनमनी तांती बाजन लागी, यही विधि तृष्णां षाडीं।२।
एण सतगुरि अम्हे परणांब्या, अबला बाल कुवांरी।३।
मछिंद्र प्रसाद श्रीगोरष बोल्या, माया नां भौ टारी।૪।
महायोगी गोरख कहते है की सदगुरु और सत्यज्ञान हमारे दो तुम्बे है ( यानी तन रुपी तम्बूरे के आधार है और इनके आधार से ही तुम्बे मे धुन (नाद) बजती है), मानसिक चेतना इस तम्बूरे की डांडी है। जब तम्बूरे पर कसी हुई तारे बजने लगती है (अनहत नाद का जागरण होता है) तो उन्मनावस्था घटित होती है और इस प्रकार सभी तृष्णाएँ खंडित (नष्ट) होकर छूट जाती है। महायोगी गोरखनाथ कहते है की सदगुरु ने इस श्रेष्ठ अवस्था मे बालकुमारी (माया) से हमारा परिणय करा दिया (अर्थात हमे मायापति बना दिया) और इस प्रकार गुरु मछेन्द्रनाथ के कृपा प्रसाद से सदा काल के लिए माया का भय दूर हो गया (यानी हमने सदाकाल के लिए माया पर जीत प्राप्त कर ली)।
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सुरहट घाट अम्हे बणिजारा, सुंनि हमारा पसारा।१।
लेण न जाणौं देण न जाणौं, एद्वा बजण हमारा।२।
भणंत गोरषनाथ मछिन्द्र का पूता, एद्वा बणिज ना अरथी।३।
करणीं अपणीं पार उतरणां, बचने लेणां साथी।૪।
महायोगी गोरख का कथन है की मै सुरघट घाट (परम स्थान) का व्यापारी हूँ और शून्य मे हमारा पसारा है (यानी शून्य स्थान मे हमारा व्यवसाय क्रियान्वित होता है)। हमारा व्यापार भी ऐसा है जो लेन देन की भावना से रहित है। मछेन्द्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ कहते है की हमारे इस व्यापार का अर्थ है की गुरु के वचनो का आधार तो जरुर लेकर रखो, लेकिन सार बात तो अपनी निज की करणी है जिसके कारण मुक्ति पद को प्राप्त किया जा सकता है (यानी गुरु ज्ञान के अनुरुप श्रेष्ठ करणी करते हुए परम पद को पाना ही महायोगी गोरखनाथ जी के लिए अगम का व्यवसाय है)।
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ततबणिजील्यौ तत बणिजील्यौ, ज्यूं मोरा मन पतियाई।१।
सहज गोरषनाथ बणिज कराई, पंच बलद नौ गाई।२।
सहज सुभावै बाषर ल्याई, मोरे मन उड़ियांनी आई।३।
महायोगी गोरख कहते है की जीवन मे ऐसे परम तत्व का वाणिज्य (व्यापार) करो, जैसे की हमने किया और उसको करके मन मे विश्वास हो गया की यही सर्वोतम व खरा वाणिज्य है। गोरखनाथ तो पांच बैलो (ज्ञानेंद्रियो) और नौ गायो (नव रंध्रो) के संग, सहज ज्ञान का वाणिज्य करते है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की हमने इन पाँच बैलो व नौ गायो के संग वाणिज्य (लेन देन) किया और इनके लिए सहज भाव का बाखर उपलब्ध करा दिया, जिसके परिणामस्वरुप हमारा मन ऊँची उड़ान लेने लग गया है ( यानी इनके चंचलता रहित, सहज भाव मे स्थित होने से मन पूर्ण निर्लेप रुप से परम अवस्था मे टिक गया )।
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तिल कै नाकै तृभवन सांध्या, कीया भाव विधाता।१।
सो तौ फिर आपण हीं हूवा, जाकौं ढूंढण जाता।२।
महायोगी गोरख कहते है की अति सूक्ष्म व गहन रीति के प्रयासो व सम्पूर्ण त्रिभुवन में तलाश करने पर भी परब्रह्म की प्राप्ति नही हुई। परन्तु जब विधाता ने स्वयं मेरे हृदय मे भाव उत्पन्न किया (यानी जब उनकी अनुकम्पा हुई) तो जिसे मै सर्वत्र ढूढ़ रहा था, फिर मै स्वयं वही हो गया।
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सहज पलांण पवन करि घोड़ा, लै लगांम चित चबका।१।
चेतनि असवार ग्यांन गुरु करि, और तजौ सब ढबकाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की पवन (श्वास) रुपी घोड़े पर सहजता रुपी पलांण (काठी) बांधो। इस पर लय (परमात्म स्मृति) की लगाम व चित का चाबुक (अनुशासित चितवृति) धारण करो। गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की सब प्रकार के प्रपंचो को त्यागकर, आत्मा (चैतन्य स्वरुप) को सवार बनाओ और गुरु ज्ञान का आधार लेकर, परम अनुभूति तक पहुंचो व उसे आत्मसात करो।
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अहरणि नाद नै ब्यंद हथौड़ा, रवि ससि षालां पवनं।१।
मूल चापि डिढ आसणि बैठा, तब मिटि गया आवागवनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की अहरन ( जिसका लोप न हो पाए यानी निरन्तर व्याप्त) अनाहत नाद के घटित होने मे बिंदु (शुक्र) हथौड़ा है ( यानी नाद के जागरण का आधार)। इड़ा व पिंगला नाड़िया पवन मार्ग से ध्वनि गुजंन पैदा करने वाली धौंकनी है (यानी इनके माध्यम से नाद प्रकट होकर योगी को उपलब्ध होता है)। महायोगी गुरु गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की आसन दृढ़ता से मूलाधार मे सुषुप्त पड़ी शक्ति को उध्र्वरेता करते हुए, यदि योगी सहस्त्रार मे नाद ब्रह्म (शिवत्व) से एकत्व प्राप्त कर लेता है, तो फिर उसके लिए किसी प्रकार का आवागमन शेष नही रहता है।
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एक मै अनंत अनंत मै एकै, एकै अनंत उपाया।१।
अंतरि एक सौ परचा हूवा, तब अनंत एक मै समाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की एक (परब्रह्म) ही मे अनंत सृष्टि का वास है और सकल सृष्टि मे उस एक परम सता का ही वास है। उस एक ने ही सम्पूर्ण अनंत सृष्टि को उत्पन्न किया है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की जब अपने निज के अंतर मे उस एक से परिचय हो जाता है, तो यह सारी अनंत सृष्टि उस एक मे ही समा जाती है।
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रमि रमिता सौ गहि चौगांनं, काहे भूलत हौ अभिमांनं।१।
धरन गगन बिचि नही अंतरा, केवल मुक्ति मैदानं।२।
महायोगी गोरख कहते है की राम (ब्रह्म) मे रमते हुए यह चौगान (सांसारिकता) का खेल खेलो (क्योंकी बिना परमात्म अनुकम्पा के संसार के आकर्षण भटकाव पैदा कर देंगे), इसलिए व्यर्थ के देहअभिमान मे आकर इस सार बात को मत भूलो। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की गगन और आकाश के बीच कोई अंतर (भेद) नही है (यानी द्वैत व्याप्त नही है), जब ऐसी अभेद दृष्टि इस जगत के खेल को खेलते हुए तुम्हारी हो जायेगी, तो सामने सिर्फ "कैवल्य मुक्तिपद" रुपी खुला मैदान ही शेष दिखाई देगा। ( यहाँ महायोगी गोरखनाथ जी महाराज संकेत कर रहे है की सभी द्वैतभाव व भेदबुद्धि से ऊपर उठकर परमात्म सता मे समग्र का लय कर देना ही, मुक्तिपद (मोक्ष, निर्वाण) को पाना है)।
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त्रिअषिरी त्रिकोटी जपीला, ब्रह्मकुंड निज थांनं।१।
अजपा जाप जपंता गोरष, अतीत अनुपम ग्यांनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की त्रिगुणात्मकता (सत,रज,तम) से ऊपर उठकर त्रिकुटी स्थान मे खुद को स्थित करो, वही पर ब्रह्म का कुंड (परमात्मा का वास) है तथा वही मुझ आत्मा का भी मूल निवास है (यानी इसी स्थिति मे आत्मा व परमात्मा की एकरुपता घटित होती है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की इस स्वरुप मे अजपा जप करते हुए, हमने उस परम दुर्लभ व सर्वोपरी ज्ञान को प्राप्त किया, जो अब तक पहुँच से बाहर ही रहा था।
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द्वै अषिरी दोई पष उधारीला, निराकार जापं जपियां।१।
जे जाप सकल सिष्टि उतपंनां, ते जाप श्रीगोरषनाथ कथियां।२।
महायोगी गोरख कहते है की र्निकार का जाप ही द्वाक्षरी जाप है जिससे दोनो पक्षो का उद्धार हो जाता है (यानी उस एक परमज्योति स्वरुप परमात्मा से तादात्मय होने पर साधक के इहलोक व परलोक, र्निगुण व सगुण तथा स्थूल व सूक्ष्म दोनो पक्षो का पूर्ण रुप से कल्याण हो जाता है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज यहाँ उस जाप का कथन कर रहे है जिससे सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है ( यहाँ महायोगी गोरख संकेत कर रहे है की उस एक परमसता से अन्यत्र कोई भी सार प्राप्ति नही करा सकता, क्योंकी सृष्टि के आदि, मध्य व अन्त मे उसी का सकल पसारा है। इसलिए किसी भ्रम मे पड़े बिना उस एक सर्वोच्च सता का जाप करते, उसकी सिद्धि करो यानी उसको जानने का प्रयास करो व उससे एकात्मय प्राप्त करो)।
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एक अषीरी एकंकार जपीला, सुंनि अस्थूल दोइ वांणी।१।
प्यंड ब्रह्मांड समि तुलि ब्यापीले, एक अषिरी हम गुरमुषि जांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की र्निकार रुप से व्याप्त उस एक (एकाक्षरी) ॐकार का जप करो (यहाँ महायोगी गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की विभिन्न अक्षरी मंत्रो (द्वादशक्षरी,पंचाक्षरी आदि) के मकड़जाल से ऊपर उठकर, उस एक सर्वोच्च सता मे चित का लय करो), जो शून्य व स्थूल दोनो मे एकाकार अक्षय ब्रह्म रुप से व्याप्त है। उस अलख पुरुष परमात्मा का इस पिंड मे तथा सारे ब्रह्माण्ड मे एक समान वासा है (वस्तुत: पिंड मे ही ब्रह्माण्ड व्याप्त है)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की इस एकाक्षरी (एकरुप से व्याप्त परम सता) को हमने गुरु ज्ञान को शिरोधार्य करते हुए, गुरु कृपा से जाना।
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कवल बदन काया करि कंचन, चेतनि करौ जपमाली।१।
अनेक जनम नां पातिग छूटै, जपंत गोरष चवाली।२।
महायोगी गोरख कहते है की जाप मे कमलदल ( मूलाधार चक्र ) का तो सुमेरु बनाओ ( यानी मूलाधार से सहस्त्रार की तरफ जाप को लेकर बढ़ो) और काया को कंचन (मनके) बना लो ( यानी काया रुपी मनको का आधार लेकर इस जाप को जपो)। चैतन्य (परमात्म सता) रुपी धागे मे इन मनको (काया) को पीरो लो ( यानी उस अलख पुरुष मे काया की सभी वृतियो का लय करते हुए जाप करो)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की इस प्रकार का जाप करने से साधक जन्मो - २ के पापो का नाश करते हुए, चौरासी के चक्र से पार हो जाता है।
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अवधू जाप जपौ जपमाली चीन्हौं, जाप जप्यां फल होई।१।
अगम जाप जपीला गोरष, चीन्हत बिरला कोई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! जपमाला पहचान कर जाप करो ( यहाँ महायोगी गोरख संकेत कर रहे है की स्थूल माला पकड़कर जाप करना वस्तुत: जाप नही है, जाप वह जहाँ साधक अपनी चितवृतियो का लय किसी एक अलौकिक सता मे करते हुए निरन्तर उससे जुड़ा रहे और अजपाजप स्वत: निरन्तर चलता रहे। साधनापथ पर व्याप्त विभिन्न भ्रमो के कारण ही महायोगी कह रहे है की पहले पहचान करो की किसका जाप किया जाए, फिर जाप मे उतरो), क्योंकी जाप से ही प्राप्ति होती है, लेकिन जाप (एकरुपता) उसका करो जिससे अविनाशी प्राप्ति हो ( यानी क्षणिक स्थूल प्राप्ति कराने वाला जाप, कभी सार लक्ष्य की प्राप्ति नही करा सकता)। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की जिस अगम (परम शून्य) के जाप को हमने जपा, उसको तो कोई विरला ही पहचान पाता है
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एही राजा राम आछै, सर्वे अंगे बासा।१।
येही पांचौ तत, सहजि प्रकासा।२।
ये ही पांचौ तत, समझि समांनां।३।
बदंत गोरष इम, हरि पद जांनां।૪।
महायोगी गोरख कहते है की इस घट मे ही "राम" (जीव का चेतन आत्मिक स्वरुप) व्याप्त है जो परमात्म अनुभूति द्वारा ज्ञात होता है और उसी का सब अंगो मे वास है। यही पंच तत्वो को सहज रुप से प्रकाशित कर रहा है ( यही पांचो तत्वो का आधाररुप है) और इसी परमसता का बोध होने पर पांचो तत्वो का लय होकर, समभाव जागृत होता है। महायोगी गोरखनाथ का कथन है की इस स्वरुप से ही हरि पद (ब्रह्म) को जाना जा सकता है
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सक्ति रुपी रज आछै, सिव रुपी ब्यंद।१।
बारह कला रव आछै, सोलह कला चन्द।२।
चारि कला रवि की जे, ससि घरि आवै।३।
तौ सिव सक्ति संमि होवै, अन्त कोई न पावै।૪।
महायोगी गोरख कहते है की इस घट मे रक्त रुप मे शक्ति का वास है और बिंदु (वीर्य) रुप मे शिव का वास है। बारह कलाओ ( चिंता, तरंग, दंभ, माया, परग्रहण (दूसरो से प्राप्ति की कामना), परपंच, हेत (मोह), बुद्धि, काम, क्रोध, लोभ, दृष्टि (स्थूल रुप से) ) से संयुक्त सूर्य तत्व (मूलाधार स्थान मे) तथा सोलह कलाओ (शांति, निवृति, क्षमा, निर्मलता, निश्छलता, ज्ञान, स्वरुप, पद, निर्वाण, निर्भिक, निरंजन, अहार, निद्रा, मैथुन, नम्रता, अमृत) से संयुक्त चन्द्र तत्व (सहस्त्रार स्थान मे) भी इसी घट मे व्याप्त है। वर्तमान समय तो सूर्य की कलाएँ ही प्रधान है ( यानी माया प्रबल है)। गोरखनाथ जी का कथन है की यदि रवि स्थान की चार कलाएँ शशि स्थान मे मिल जाए (यानी शिव तत्व की प्रबलता प्रभावी हो) तो शिव व शक्ति की एकरुपता हो जाए ( यानी योगी परम अनुभूति को प्राप्त हो जाए)। ऐसी अवस्था प्राप्त योगी का फिर कोई अन्त नही पा सकता ( यानी ऐसा योगी अलख रुप से व्याप्त होकर, अमरत्व को पा जाता है, जिसका भेद नही पाया जा सकता है)
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मन मारै मन मरै, मन तारै मन तिरै।१।
मन जै अस्थिर होइ, तृभुवन भरै।२।
मन आदि मन अंत, मन मधें मन सार।३।
मन ही तै छूटै, विषै विकार।૪।
महायोगी गोरख योगीजनो को मन की महता बताते हुए कहते है की मन ही मारता है और मन ही मरता है (यानी परमात्म आनंद मे लय हो चुका मन, जीव को जीते जी परम मृत्यु (समाधी) की प्राप्ति करा देता है), यही मन तारने वाला है और यही मन तरने वाला है (यानी मायावी आकर्षणो से निर्लेप होकर मन, उन्मुक्त रुप से जीव को निर्वाण पद प्रदान कराता है)। लेकिन मन के अस्थिर होने पर त्रिलोकी (सम्पूर्ण) प्राप्तियो का क्षय हो जाता है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज का कथन है की ये मन ही आदि, मध्य, अन्त तक व्याप्त है (सारा ब्रह्माण्ड इसी मन का पसारा है) और सार रुप से भी मन की ही प्राप्ति होती है ( यानी ब्रह्म रुप होकर यही मन परमात्म साक्षात्कार करा देता है)। मन ही से सभी प्रकार के विषय विकारो का त्याग होता है, जिससे परम निवृत अवस्था योगी को सुलभ हो पाती है।
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बाई बाजै बाई गाजै, बाई धुनि करै।१।
बाई षट चक्र बेधै, अरधै उरधै मधि फिरै।२।
सोहं बाई हंसा रुपी, प्यंडै बहै।३।
बाई कै प्रसादि, ब्यंद गुरमुष रहै।૪।
महायोगी गोरख कहते है की वायु (श्वास कला सिद्धि) ही घट मे गाजै बाजै बजवाती है (यानी वायु के आधार से ही योगी शब्द (नाद) को सुन पाता है) और वायु के आधार से ही योगी षट्चक्रो का भेदन करके, नीचे से ऊपर की ओर ऊर्जा को प्रवाहित करता है। यही वायु प्रत्येक घट मे प्रवाहित होकर श्वास - प्रतिश्वास (प्राणो के माध्यम से) " सोऽहं - हंस " मंत्र को निरंतर चेतन करती है और वायु के प्रसाद से ही बिंदु (शुक्र) ब्रह्मरन्ध मे स्थिर हो पाता है, जिससे योगी उध्रवरेता होकर स्थिर मानस से गुरु ज्ञान को आत्मसात कर लेता है।
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नादै लीन ब्रह्मा, नादै लीना नर हरि।१।
नादै लीना ऊमापति, जोग ल्यौ धरि धरि।२।
नाद ही तो आछै, सब कछू निधांनां।३।नाद ही थै पाइये, परम निरवांनां।૪।
महायोगी गोरख कहते है की मूल ॐकार के अभिव्यक्त रुप नाद (शब्द ब्रह्म) मे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश लीन (व्याप्त) है। योगी को चाहिए की नाद की अनुभूति को सदा सहेज कर रखे व उसका रक्षण करे, क्योंकी नाद की यह अनुभूति ही परम योग (एकात्मकता) की प्राप्ति करा देती है। महायोगी गोरख का कथन है की नाद मे ही सर्व निधियो (खजानो, उपलब्धियो) का वास है (यानी नाद सिद्धि योगी को समर्थ कर देती है ) और नाद से ही योगी निर्वाण पद को पा जाता है।
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ॐकार आछै, मूल मंत्र धारा।१।
ॐकार व्यापीले, सकल संसारा।२।
ॐकार नाभी ह्रदै, देव गुरु सोई।३।
ॐकार साधे बिना, सिधि न होई।૪।
महायोगी गोरख कहते है की सभी के मूल मे ॐकार (शब्द रुप या नाद रुप परमात्मा) का वास है और उसी से सारी धारा छूटी है ( सारी सृष्टि का उत्पति कर्ता वही है)। सारे संसार मे वही व्याप रहा है, नाभी से हृदय तक ( स्वाधिष्ठान से, हृदय अनाहत अादि तक) उसी का निवास है। गोरखनाथ जी कहते है की ॐकार ही देवता है, ॐकार ही गुरु है और बिना ॐकार को साधे सिद्धि नही हो सकती है।
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दसवैं द्वार निरंजन उनमन बासा, सबदैं उलटि समांनां।१।
भणंत गोरषनाथ मछींद्र नां पूता, अविचल थीर रहांनां।२।
महायोगी गोरख का कथन है की दशमद्वार (सहस्त्रार मार्ग) से निरंजन रुप होकर हमने उनमन मे वासा कर लिया और वापिस शब्द मे शब्दरुप हो गए। मछेन्द्रनाथ के पुत्र (शिष्य) गोरक्षनाथ कहते है की इस प्रकार से हमने अपने मूल अविचल स्वरुप को प्राप्त कर लिया ( यानी स्थिर रुप से अपने शाश्वत परमात्म स्वरुप मे स्थित हो गए)।
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द्वादसी त्रिकुटी यला पिंगुला, चवदसि चित मिलाई।१।
षोड़स कवलदल सोल बतीसौ, जुरा मरन भौ गमाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की अवस्था सिद्धि से इडा - पिंगला व सुषुम्ना का त्रिकुटी में मेल हो जाता है और योगी की चितवृति ब्रह्म मे लय कर जाती है। योगी षोड़श दल कमल (विशुद्ध चक्र) की सिद्धता को पाकर योग के बतीसो लक्षण प्रकट कर देता है ( यौगिक कलाओ से संयुक्त हो जाता है) और ऐसी तुरीय अवस्था मे जरा - मरण की भवभीति का सर्वरुप से क्षय हो जाता है ( योगी कालजयी व मायाजीत अवस्था को पा लेता है )।
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पांच सहंस मैं षट अपूठा, सप्त दीप अष्ट नारी।१।
नव षंड पृथी इकबीस मांहीं, एकादसि एक तारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब योगी के घट मे उस परम सता का प्राकटय होता है तो पंचमी स्थिति होकर वृति पलट जाती है ( यानी योगी की चेतना सहस्त्रार मे स्थित हो जाती है और उसकी प्रवृति बर्हिमुखी से अंर्तमुखी हो जाती है)। योगी के अन्तर मे परम का दीप जल उठता है और कुंडलिनी शक्ति सिद्ध हो जाती है। योगी नौखंड व २१ ब्रह्मांडो का अपने घट मे दर्शन करते हुए, परम एकरस शून्य समाधी मे लीन हो जाता है।
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मन पवन अगम उजियाला, रवि ससि तार गयाई।१।
तीनि राज त्रिविधि कुल नांहिं, चारि जुग सिधि बाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की मन व पवन का संतुलन साधकर जब योगी सार संयम को पाता है तो अगम की ज्योत उसमे चेतन हो उठती हेै, इस ज्योति के सामने सूर्य, चन्द्र और तारे भी छिप जाते हेै। गोरखनाथ जी का कथन है की ऐसी अवस्था मे योगी के लिए त्रिगुणात्मक रुप से व्याप्त माया का यह सकल पसारा शेष नही बचता ( योगी की चेतना इसके पार स्थित हो जाती है) और चौथे लोक मे उसकी सिद्धता का डंका बजता है ( योगी परम निर्लेप अवस्था मे स्थित हो जाता है)।
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अवधू बोल्या तत बिचारी, पृथ्वी मै बकवाली।१।
अष्टकुल परबत जल बिन तिरिया, अदबुद अचंभा भारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो बात अवधूतो ने परम तत्व की अनुभूति के आधार पर कही की परमात्म एकात्म प्राप्त करके योगी माया से निर्लेप मुक्त पद पा जाता है, उसे पृथ्वी (सांसारिक परिवेश मे) मे बेकार (व्यर्थ) समझा गया (यानी सांसारिक जीवो ने उसे काल्पनिक मानकर नकार दिया)। महायोगी गोरख का कथन है की सांसारिक मनुष्यो को इस बात पर परम आश्चर्य है की यह अष्टकुल पर्वत ( यह स्थूल काया व उसमे विराजमान चेतन सता), बिना जल (सूक्ष्म माया) से संयुक्त हुए कैसे पार हो सकता है ( यानी साधारण सांसारिक जीवो को यह बात सम्भव ही नही लगती की माया से रचित इस संसार मे कोई माया से रहित व निर्लेप रहते हुए, परमगति को प्राप्त कर सकता है)।
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काया कंथा, मन जोगोटा, सत गुरु मुझ लाषाया।१।
भणंत गोरषनाथ रुड़ा राषौ, नगरी चोर मलाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह मन जोगी (योगसिद्धि का कारक) है और काया उसकी गुदड़ी (योग का आधाररुप) है, यह ज्ञान मुझे गुरु कृपा से ज्ञात हुआ है। गोरखनाथ जी का कथन है की इस सार ज्ञान की रक्षा करो, क्योंकी नगरी मे चोर घुस आए है ( यहाँ गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की मन का योगयुक्त अवस्था मे लय करके व काया रुपी नगरी की विकारो रुपी चोरो से रक्षा करके ही इस ज्ञान को आत्मसात किया जा सकता है, अन्यथा तो नगरी के ये चोर ( विषय - विकार) व्यवधान पैदा करके इस ज्ञान को निज अनुभव मे नही आने देंगे और साधक सार प्राप्ति से वंचित रह जायेगा)।
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मनसा मेरी ब्यौपार बांधौ, पवन पुरषि उतपनां।१।
जाग्यौ जोगी अध्यात्म लागौ, काया पाटण मै जांनां।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे मेरी मनसा (इच्छा) तुम अब अपना व्यापार (प्रसार) बांध लो (समेट लो), क्योंकी प्राण पुरुष उत्पन्न (चेतन) हो गया है (यानी गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की जब मन व पवन के संजोग से प्राण चेतन हो जाते है और श्वास प्रतिश्वास अजपा जप शुरु हो जाता है, तब सभी इच्छाओ व वासनाओ का लय उस चेतनता मे होने लगता है)। गोरखनाथ जी का कथन है की इस प्रकार से जब सच्चे अर्थो मे किसी योगी मे योग (परमात्म एकरुपता की चाह ) की जागृति होती है, तब वह अध्यात्म (आत्म साक्षात्कार) के पथ पर आरुढ़ होता है और काया नगरी मे प्रवेश करके उस परमसता की खोज करता है।
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आत्मां उतिम देव ताही की न जांणौ सेव।१।
आंन देव पूजि पूजि इमहि मरिये।२।
नवे द्वारे नवे नाथ, तृबेणीं जगन्नाथ, दसवे द्वारि केदारं।३।
जोग जुगति सार, तौ भौ तिरिये पारं।૪।
कथंत गोरषनाथ विचारं।५।
महायोगी गोरख कहते है की आत्मा सर्वोतम देवता है ( यानी हमारे घट मे व्यापत चेतन सता ही सर्वोपरी है)। लेकिन उसकी सेवा (मर्म) तो जानते नहीं हो और अन्य देवताओ को पूज पूजकर व्यर्थ ही काल का ग्रास बनते रहते हो।
नव द्वारों (इन्द्रियो के नौरंध्र) में नव नाथो का वासा है, त्रिवेणी (त्रिकुटी) में जगन्नाथ का स्थान है और दशम द्वार (ब्रह्मरंध) में केदारनाथ (परब्रह्म) का स्थान है। गोरखनाथ जी का कथन है की योग युक्ति ही सार है जो इसको अनुभव द्वारा प्राप्त कर लेगा, वह भव से पार हो जायेगा।
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सोनां ल्यौ रस सोनां ल्यौ, मेरी जाति सुनारी रे।१।
धंमणि धमीं रस जांमणि जांम्या, तब गगन महा रस मिलिया रे।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे भाई! हम परम रस रुपी सोना बाटने वाले सुनार है, तुम हमसे आत्मानंद रुपी सोना ले लो। सबसे पहले श्वास को साधकर, अजपाजप करते हुए मन को स्थिर करो, फिर रस जमना (प्रकट होना) शुरु होगा। तदउपरान्त योगसिद्ध अवस्था से योगी ब्रह्मरंध्र मे महारस का पान करते हुए, परम रसपूर्ण अवस्था मे स्थित हो जायेगा।
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पूनिम महिला चंदा जिम नारी संग रहणां।१।
ग्यांन रतन हरि लीन्ह परांणां।२।
महायोगी गोरख कहते है की पूर्णिमा के चाँद के समान जो सिद्धता को पा चुका पुरुष है, यदि वह भी स्त्री के संग वास करता है ( विषयो के सम्पर्क मे आता है), तो उसका ज्ञान हर लिया जाता है और उसके प्राणो का क्षय हो जाता है।
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गगन सिषर आछै, अंबर पांणीं।१।
मरता मूढ़ां लोकां, मरम न जांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की ऊपर गगन शिखर (ब्रह्मरंध) मे पांणीं ( परमानंद रुपी अमृत) पाया जाता है ( यानी सहस्त्रार मे ब्रह्मनुभूति करके साधक अमर पद को पा लेता है)। गोरखनाथ जी का कथन है की फिर भी अजीब विडंम्बना है की बिना इस मरम को जाने, मूर्ख लोग यूँ ही मरते रहते है ( यहाँ गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की हे मनुष्य! बिना उस परम सता का भेद जाने, ये जीवन मरण का चक्र यू ही लगा रहेगा। इसलिए अपनी चेतना को ऊचाँ उठाकर, उस परम सता की थाह प्राप्त कर ले)।
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जैसी मन उपजै, तैसा करम करै।१।
काम क्रोध लोभ लै, संसार सूंनां मरै।२।
महायोगी गोरख कहते है की मानव धर्मसंगत कार्यो को ना करके अपनी मनमत से कर्म करते है ( यानी गुरुमत या सन्तमत की अवहेलना करते है)। इस प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह के अधीन होकर, यह सारा संसार बिना किसी प्राप्ति के यूँ ही मरा जा रहा है। ( यहाँ गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की हे मनुष्य! मनमत का त्याग करके गुरु की शरणागति हो और गुरुमत का अनुसरण कर जीवन के सार लक्ष्य को प्राप्त कर ले)।
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आछै आछै बिद, न पड़िबा कंध।१।
लाष तोला मोल जाये, जे एक षिसै बिंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की यदि बिन्दु का आश्रय सिद्ध है ( यानी यदि योगी उध्र्वरेता होकर तेज का रक्षण करके सिद्धता प्राप्त कर लेता है) तो कंध का पतन नही होता है ( यानी शरीर काल का ग्रास नही बनता, बल्कि योगसिद्धि का साधन बन जाता है)। गोरखनाथ जी का तो कथन है की यदि एक बूंद तेज का भी क्षय हो जाता है तो समझो की तुमने लाखो की कीमत की वस्तु को खो दिया (यानी बिंद अनमोल है क्योंकी इसकी रक्षा किये बिना योगसिद्धि संभव ही नही है)।
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मन मांहिला हीरा बीधा सो सोधीनै लीणां, सो षांणां सो पीवणां।१।
मछिन्द्र प्रसादै जति गोरष बोल्या, बिमल रस जोई जोई नै मिलणां।२।
महायोगी गोरख कहते है की मन के अंदर हीरा बिंधना है (यानी मन को परमात्मा के साथ एकाकार करते हुए आत्मज्ञान रुपी हीरे को पाना है), यही आत्मज्ञान के खोजी साधक की सच्ची व सार प्राप्ति है ( यानी इससे अलग कुछ भी पाना असार है)। साधक का तो यही खाना है और यही पीना है ( यानी यही उसके लिए सर्वस्व है, उसकी सूरति निरन्तर यही स्थित रहनी चाहिए)। गुरु मछेन्द्र के कृपा प्रसाद से गोरखनाथ जी ने इसको प्राप्त किया, इसलिए वे कहते है की हे भाई! जो इस प्रकार सहज रीति से मन पर सिद्धता पा सकेगा, उसी को वह र्निमल सहज आनंद उपलब्ध होगा।
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जिहि घरि चंद सूर नहिं ऊगै, तिहिं धरि होसी उजियारा।१।
तिन्हां जे आसण पूरौ, तौ सहज का भरौ पियाला।२।
महायोगी गोरख कहते है की जहाँ चन्द्रमा या सूर्य का उदय नही होता, लेकिन फिर भी वहाँ अलौकिक प्रकाश व्याप्त रहता है (यानी वहाँ ब्रह्मज्योती का प्रकाश सदा खिला रहता है)। गोरखनाथ जी का कथन है की जिसने वहाँ आसन लगा लिया ( यानी जिसकी चित वृति का लय उस अवस्था मे हो गया), वह पूर्ण सहजता को प्राप्त करके परमानंद से भर जाता है ( यानी इस अवस्था मे साधक परम निश्छल व अहंकार से रहित होकर, सहजानंद मे स्थित हो जाता है)।
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पै र जोई नै एद्वा पुरिष पधारया, पुरिष नी पारिषा पाई।१।
पुरिषै मिलि पुरिष रस राष्या, पुरिषैं पुरिष निपाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे भाई! जिसने उस अलख पुरुष को ह्रदय मे पधराया होगा, उसी को उसकी परख हो पाती है (यहाँ गोरखनाथ जी कह रहे है की परमात्मा की थाह तो उसी को मिल सकती है जिसके अन्तर मे उसका प्राकट्य हो जाता है, अन्य कोई साधन नही है जो उसका भेद दे पाए)। उस परमपुरुष से मिलन होने पर ही परमानंद घटित होता है और ब्रह्मानुभूति हो जाती है।
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बांमा अंगे सोइबा जमचा भोगबा, संगे न पीवणा पांणीं।१।
इमतौ अजरांवर होइ, मछिंद्र बोल्यौ गोरष बांणी।२।
स्त्री के अंग मे (संग में) सोना तो यम का भोग करना है ( यानी इस रीति से वह स्त्री को नही भोगता बल्कि वह खुद काल द्वारा भोग लिया जाता है )। साधक को तो चाहिए की वह अवस्था सिद्ध हो जाने तक स्त्री के साथ पानी तक भी ना पीये (यह सांकेतिक कथन है की स्थिर योगयुक्त अवस्था की प्राप्ति से पहले मायावी आकर्षण भटकाव पैदा कर सकते है, इसलिए सावधानी रखने मे ही शुभ है)। मछेन्द्रनाथ जी गोरखनाथ जी को कहते है की हे गोरखनाथ! इस प्रकार ही अजर - अमर पद को पाया जा सकता है ( यानी संयम से संयुक्त साधना ही परम प्राप्ति करा सकती है)।
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पहलै पहरै सब कोई जागै, दूजै पहरै भोगी।१।
तीजै पहरै तस्करी जागै, चौथे पहरे जोगी।२।
नाथ कहते है की पहले पहर मे तो सभी जागकर जगत के धंधे - धोरी मे लगे रहते है और दूसरे पहर मे भोगी जीव वासना पूर्ति हेतु जागता है। तीसरे पहर मे तामसिक कर्म वाले जागते है, लेकिन चौथे पहर मे योगीजन जागरण करते है।
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संमी सांझै सोइबा मंझै जागिबा, तृसंधि देणा पहरा।१।
तीनि पहर पर दोई घट जाइबा, तिहां छै काल चा हेरा।२।
महायोगी गोरख कहते है की सांझ ढ़लने के बाद सो जाना चाहिए (यानी कुछ समय के लिए शरीर को आराम देना चाहिए) और मध्यकाल (मध्यरात्री) मे जागना चाहिए (यानी मध्यरात्री मे योग को साधना चाहिए)। इस प्रकार तीनो पहर चेतन रहकर पहरा देना चाहिए (यानी पूर्ण जागरुक रहकर समय का सदुपयोग करना चाहिए)। महायोगी गोरख का कथन है की रात्री के तीन पहर बीत जाने पर भी काल घात लगाये रहता है, इसलिए ब्राह्ममूर्हत मे भी सतत चेतन रहना चाहिए। क्योंकी ब्राह्ममुहर्त मे सोने वाले को भी काल ग्रस लेता है, इसलिए योगी सदा ब्राह्ममुहर्त मे जागकर कालजय स्थिति को पा लेता है।
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पड़वा आनन्दा बीजसी चंदा, पांचौ लेबा पाली।१।
आठमि चौदसी ब्रत एकादसी, अंगि न लाऊं बाली।२।
महायोगी गोरख कहते है की प्रतिपदा आदि का अनाध्याय कर, श्रम से निरस्त होकर लौकिक मनुष्य सांसारिक विषयो के चिन्तन मे रत रहता है, जबकी योगी की प्रतिपदा तो ब्रह्मानंद मे मगन हो जाना है (यानी ब्रह्मनुभूति से संयुक्त होकर परम विश्राम की प्राप्ति करना)। जिस प्रकार द्वितिया को साधारण मनुष्य चन्द्र दर्शन करता है, वैसे ही योगी अपनी पंच ज्ञानेन्द्रियो को सभी रसो व विषयो से हटाकर उनकी रक्षा करते हुए, परमात्म दर्शन को आरुढ़ होता है। गोरखनाथ जी का कथन है की जिस प्रकार अष्टमी, चर्तुर्दशी, एकादशी आदि के नियम व व्रत साधारण मनुष्य रखते है, वैसे ही योगी के लिए व्रत है की वह स्त्री के शरीर को स्पर्श न करे ( यानी मनसा, वाचा, कर्मणा सहित किसी भी प्रारुप मे विषयो के प्रति आसक्त ना हो)।
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अमावस पड़िवा मन घट सूंनाँ, सूंनां ते मंगलवारे।१।
भणता गुंणता ब्राह्मण बेद विचारै, दसमी दोष निबारै।२।
महायोगी गोरख कहते है की अमावस और पड़िवा को सांसारिक विद्वान अनाध्यायादि (अध्ययन न करना) रहकर उसे मनाते है, लेकिन योगी तब मन व घट मे शून्य को साधता है, उसके लिए शून्य मे स्थित हो जाना ही अमावस व पड़िवा को मनाना है। योगी का व्रत (मंगलवारे) र्निलेप अवस्था सिद्धि ही है। गोरखनाथ जी का कथन है की दशमी के दिन ब्राह्मण तो वेद का विचार करता है, जबकी योगी यम - नियमादि द्वारा शरीर के दोषो को दूर करता है (यानी शरीर तथा मन की शुद्धि करके संयम को साधता है)।
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चारि पहर आलंगन निंद्रा, संसार जाइ बिषिया बाही।१।
ऊभी बांह गोरषनाथ पुकारै, मूल ना हारौ म्हारा भाई।२।
महायोगी गोरख का कथन है की रात्री के चारों पहर स्त्री आलिंगन और निद्रा में बिताकर, यह सारा संसार विषयो के बहाव मे पतन को प्राप्त हो रहा है। इसलिए योगेश्वर गोरखनाथ जी दोनो बांहो को उठाकर पुकार करते है कि भाई मूल (शुक्र) को मत हारो (क्षय मत करो), (यानी गोरखनाथ जी चेतावनी देते हुए कह रहे है की भाई अपने शरीर के मूल की रक्षा करो, इसके बिना कोई प्राप्ति सम्भव नही है)।
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नासिका अग्रे भ्रूमंडले, अहनिस रहिबा थीरं।१।
माता गरभि जनम न आयबा, बहुरि न पीयबा षीरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की नासाग्र (नासिका के अग्र भाग से होकर) से होते हुए भ्रूमंडल (भ्रूमध्य) मे रात दिन स्थिर रहो (यानी भ्रुकूटि मे ध्यान धरकर चित का लय करते हुए निरन्तर अपने शिव स्वरुप की स्थिति मे तन्मय रहो)। महायोगी गोरख का कथन है की ऐसी परम (शिवरुप) अवस्था की निरन्तर स्थिति से रहने से आवागमन मिट जायेगा। फिर न तो दोबारा माता के गर्भ मे आना पड़ेगा और न ही स्तनपान करना पड़ेगा।
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बैठां बार चलत अठारै, सूतां तूटै तीस।१।
कई थन करंतां चौसटि तूटै, क्यौ भजिबो जगदीस।२।
महायोगी गोरख कहते है की बैठते, चलते, सोते हुए हम व्यर्थ ही श्वासो रुपी निधी को गवाँ देते है। बैठते समय बारह, चलते समय अठारह, सोते समय तीस और इसी प्रकार अन्य प्रपंचो मे चौसठ श्वासो का क्षय हो जाता है। इन श्वासो का उपयोग हमे अजपाजाप के द्वारा परमात्म तादात्मय प्राप्त करने के लिए करना चाहिए था, लेकिन हम असार रुप से इनका व्यय कर देते है और इस क्रम मे बिना किसी प्राप्ति के काल (मृत्यु) समीप खड़ा हो जाता है। इसलिए महायोगी गोरखनाथ जी का कथन है की हे मनुष्य! यदि इसी प्रकार प्राण ऊर्जा को व्यर्थ गवाँ दिया और काल की भेंट चढ़ गए, तो फिर प्राणरहित शरीर से कैसे परमात्म एकरुपता पाओगे। ( यहाँ महायोगी गोरखनाथ संकेत कर रहे है की जगत के प्रपंच मे पड़कर इन बेशकिमति श्वासो को मत गवाओ, जीवन की प्रत्येक क्रिया को परमात्मा सता की दिशा मे क्रियान्वित करके जीवन के सार लक्ष्य को प्राप्त करो)।
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जिनि जाण्या तिनि षरा पहैचाण्या, वा अटल स्यूं लो लाई।१।
गोरष कहै अमें कानां सुणता, सो आष्या देष्या रै भाई।२।
महायोगी गोरख यहाँ परमात्म साक्षात्कार की अनुभूति से संयुक्त होकर कहते है की एक उसको (परमात्मा को) जान लेने पर सार रुप मे सभी कुछ पहचान लिया जाता है ( यानी परम सता को जान लेने पर सर्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, फिर कुछ जानना शेष नही रहता है) और ऐसी अवस्था योगी को परम पद मे लय कर देती है। गोरखनाथ जी का तो कथन है की हे भाई! जो सिर्फ कानो से सुना गया था, हमने तो वो आँखो से देख लिया है ( यानी अभी तक जो सिर्फ वाचा मे कहाँ या सुना गया था, हमने उसका साक्षात अनुभव कर उन्मुक्त अवस्था को पा लिया)।
( यहाँ गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की सिर्फ ज्ञान बखारते मत रहो, वाचा मे आया हुआ शुष्क (अनुभवरहित) ज्ञान किसी काम का नही है, सच्चे साधक को चाहिए की आगे बढ़े और उस ज्ञान को निज अनुभव की कसौटी पर परख कर, निज अनुभव से युक्त ज्ञान का कथन करे)।
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दरसण माईं दरसण बाप, दरसण माहीं आपै आप।१।
या दरसण का कोई जाणै भेव, सो आपै करता आपै देव।२।
महायोगी गोरख कहते है की निज अन्तर मे परम सता का दर्शन (साक्षात्कार) ही सब कुछ है, वही माता (आदि - शक्ति) है वही पिता (शिव स्वरुपता) है। सबसे अहम बात यह है की दर्शन की अनुभूति मे केवल आप ही होते हो, वहाँ निज से निज को ही पा लिया जाता है, किसी दूसरी सता की वहाँ उपस्थिति नही होती है, केवल एक र्निलेप सता परब्रह्म रुप से आप ही शेष रह जाते हो। गोरखनाथ जी का कथन है की इस दर्शन (अनुभूति) का जो भेद जानता है, वह स्वयं ही परमात्म स्वरुप हो जाता है ( यानी निज के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान होने पर योगी अपनी विराटता को समझता है और अपने आप ही में सर्वज्ञ हो जाता है)।
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रहता हमारे गुरु बोलिये, हम रहता का चेला।१।
मन मानै तो संगि फिरै, नहितर फिरै अकेला।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो अलख की रहणी मे रहता है वह हमारा गुरु है और हम ऐसी श्रेष्ठ रहणी वाले विरले योगी का ही शिष्यत्व ग्रहण करते है। गोरखनाथ जी का कथन है की गुरु के ज्ञान को आत्मसात करने के उपरान्त यदि सुलभ हो तो हम उनके सानिध्य मे विचरण करते है, नही तो अकेले विचरते है। (यहाँ गोरखनाथ जी का अभिप्राय है की गुरु तो तत्व रुप से सदा ही हमारे अंग संग है, शिष्य को यह आशा नही करनी चाहिए की हमेशा गुरु के साथ ही विचरे, जब तक गुरुकृपा से उनका सान्धिय लाभ मिले वह लेना चाहिए, तदउपरान्त उन्मुक्त रुप से विचरण करते हुए गुरु ज्ञान की कसौटी पर खुद को परखना चाहिए।
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कथणी कथै सों सिष बोलिये, वेद पढ़ै सो नाती।१।
रहणी रहै सो गुरु हमारा, हम रहता का साथी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो उपदेश किये गये ज्ञान को क्रियान्वित करता हुआ, उसका कथन करता है, वह हमारा शिष्य है और जो वेदपाठी है (यानी जो बिना निज के अनुभव के पोथी पढ़कर शुष्क ज्ञान को कहता है) उनसे तो हमारा बहुत दूर का सम्बन्ध है (यानी उनसे हमारी कोई निकटता नही है, वह तो शिष्य से भी बहुत बाद के स्तर का है)। गोरखनाथ जी का कथन है की जो उस परम ज्ञान की रहणी मे रहते हुए, उसका उपदेश करता है, वह हमारा गुरु है और ऐसी रहणी रहने वाले का ही हम संग करते है।
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नाथ कहै मेरा दून्या पंथ पूरा, जत नही तौ सत का नीसूरा।१।
जत सत किरिया रहणि हमारी, और बलि बाकलि देवी तुम्हारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की मेरे दोनो पंथ (पक्ष) पूरे है। शारीरिक रुप से संयम (यत) पूरा है और मानसिक रुप से सत्य की सता (गुरु सता व परमात्म सता) पर दृढ़ भाव (सत) पूरा है। इन दोनो की पूर्णता के बिना साधक शूर (समर्थ) नही हो सकता (क्योंकी ये एक दूसरे के पूरक है व किसी एक की प्राप्ति कर लेना भी सारपूर्ण नही हेै)। गोरखनाथ जी का कथन है की हे देवी (माया)! तुम्हारी बलि तो बकरे (अपूर्ण व कमजोर साधक) होते है, लेकिन हमारी तो रहणी ही जत - सत की क्रिया वाली है, इसलिए हम तुम्हारी भेंट नही बल्कि तुम हमारी भेंट हो (यानी संयम व सत्य की रहणी रहकर हम माया का ही भक्षण कर लेते है)।
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सकृति अहेडै मिसरिध, कोस बल ज्यू बागो।१।
गोरष कहै चालती मारुं, कान गुरु तौ लागो।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह चंचल माया बड़ी प्रबल है। इसकी मोहीनी शक्ति ऐसी है की यह साधक को दूर से ही ग्रस लेती है (यानी साधक को लगता है की माया तो आस पास भी नही है, लेकिन फिर भी यह उसको अपने मोह पास मे जकड़ लेती है)। लेकिन गोरखनाथ जी का कथन है की मै पूर्ण गुरु का चेला हूँ और माया का तो मै तभी दमन कर दूंगा जब यह कोई कुचक्र हमारे निमित रचने की चेष्टा करेगी (यानी माया का हमारे ऊपर कोई प्रभाव पैदा कर पाना तो बहुत दूर की बात है, इसके तो हमारी तरफ चलायमान होने से पहले ही इसको नष्ट करके मै अपने गुरु के ज्ञान की महिमा को प्रतिष्ठापित करुंगा)।
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कोण देस स्यूं आये जोगी, कहा तुम्हारा भाव।१।
कौण तुम्हारी बहण भाणजी, कहां धरोगे पाव।२।
महायोगी गोरख से जिज्ञासु प्रश्न करता है की हे योगी! आप किस देश से आये हो और कहाँ जाने की आपकी इच्छा (भाव) है। कौन आपकी बहन भानजी है (यानी कौन आपकी निकटता को पायेगा) और कहाँ आप पाँव रखोगे (यानी किसका दमन करोगे)?
पछिम देस स्यूं आये जोगी, उतर हमारा भाव।१।
धरती हमारी बहण भाणजी, पापी के सिर पाव।२।
महायोगी गोरख उतर देते हुए कहते है की हम पश्चिम देश से आये है ( यानी सुषुम्ना मार्ग से माया की रचना करके आये है) और उतर देश को जाने का भाव है (यानी सहस्त्रार मार्ग से माया का खण्डन करके ब्रह्मतत्व तक पहुँचने की इच्छा (भाव) है)। कुण्डलिनी हमारी बहन भानजी है ( क्योंकी योगी सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करता है, जिससे उध्र्व मार्ग का द्वार खुलता है ) और पापी के सिर पर हम पाँव रखते है ( यानी हम पाप (बुराई) का दमन करते है)।
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मन तेरा की माई मूंडूं, पवन दउं र बहाई।१।
मन पवन का गम नहीं, तहां रहै ल्यौ लाई।२।
मन पवन का गम नहीं, तहां रहै ल्यौ लाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे मन! तेरी माई (माया) को तो मै चेली बना लूंगा (अधीन कर लूंगा) और पवन को बहा दूँगा (यौगिक बंध लगाकर पवन का निरोध कर दूँगा)। फिर उस परम अवस्था मे लीन हो जाऊँगा, जहाँ मन व पवन की पहुँच ही नही है (यानी भौतिकता से परे परम चेतनता की स्थिति)।
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मन बांधूंगा पवन स्यूं पवन बांधूंगा मन स्यूं।१।
तब बोलेगा कोवत स्यूं।२।
महायोगी गोरख कहते है की पवन द्वारा मन का निरोध करना चाहिए यानी पहले प्राण को (प्राणायाम द्वारा) साधकर मन को संयमित करना चाहिए (उन्मन की स्थिति मे स्थित करना चाहिए)। इस प्रकार उन्मनि अवस्था को प्राप्त मन द्वारा प्राण तो स्वत: ही सिद्ध हो जाते है। फिर ऐसी परम उन्मुक्त अवस्था मे योगी अनाहद नाद का श्रवण करता है और उसके घट मे वाचा से परे परम मौन व शान्ति घटित होती है।
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सबद हमारा षरतर षांडा, रहणि हमारी साची।१।
लेषै लिषी न कागद मांडी, सो पत्री हम बाची।२।
महायोगी गोरख कहते है की हमारा शब्द (कथनी) तेज खाँडे (तेज तलवार) की तरह है (यानी नाथ द्वारा कथित ज्ञान रुपी तलवार तुरन्त मायावी अज्ञान को काट देती है) और गोरखनाथ जी ने उस परम अवस्था (सच्ची रहणी) की अनुभूति मे स्थित होकर यह ज्ञान दिया है। इसलिए गोरखनाथ जी कहते है की हमने रटा रटाया, पहले से पोथीयो मे लिखा हुआ तुमसे नही कहा है, जो वचन हमने कहे है वह निज की अनुभूति ही है जो किसी ग्रन्थ मे अंकित नही है।
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दिसटि पड़ै ते सारी कीमति, कीमति सबद उचारं।१।
नाथ कथै अगोचर बाणी, ताका वार न पारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की शब्द (शब्दब्रह्म) का बोध होना बहुत कीमति है, लेकिन उसका वास्तविक महत्व तब समझ आता है जब शब्द मे संकेतित परब्रह्म निज अनुभव मे प्रतिष्ठित होता है। गोरखनाथ जी का कथन है की है यह अगम का ज्ञान तुमसे कह रहा हूँ जो अपार है तथा इन्द्रियो से परे का विषय है (भौतिक इन्द्रियो से इसे नही जाना जाता) यानी जब तुम खुद इन्द्रियो से परे की अवस्था मे स्थित हो जाओगे तभी यह ज्ञान आत्मसात कर पाओगे।
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राति गई अध राति गई, बालक एक पुकारै।१।
है कोई नगर मैं सूरा, बालक का दु:ख निवारै।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे मानव! तूने अनेको जन्म लिए और बिना अनुभूति के सभी काल की भेंट चढ़ गए, क्योंकी रात्री के अंधकार की भांति सभी जन्मो मे अज्ञानता का अंधकार व्याप्त रहा। इस बार भी यह जीवन अज्ञानता के अंधकार मे आधा बीत गया है और अब हमारे घट मे विराजमान बालसमान वह परम निश्छल सता पुकार करती है की अबकी बार इस अज्ञान अंधकार से बाहर निकलने के लिए किसी समर्थ गुरु का सहारा मिले, ताकी जन्म मरण के इन असाध्य कष्टो के कुचक्र से इस जीवात्मा को छुटकारा मिल सके।
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पंडित भंडित अर कलबारी, पलटी सभा विकलता नारी।१।
अपढ़ बिपर जोगी घरबारी, नाथ कहै रे पूता इनका संग निबारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे पुत्र (शिष्य)! थोथे ज्ञानी से (यानी जिसकी कथनी तो ज्ञानयुक्त है लेकिन उसकी रहणी ज्ञान के अनुरुप नही है), भांड की तरह अर्थविहिन चर्चा करने वाले से, मदिरा का सेवन करने वाले से, सत्यज्ञान से विपरित चर्चा करने वाली सभा से, कामातुर स्त्री से, अनपढ़ ब्राह्मण से और ऐसा योगी जो दुनियावी धंधो मे उलझा हो, इनसे हमेशा दूर रहना चाहिए और इनका संग नही करना चाहिए।
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त्रियाजीत ते पुरिषा गता, मिलि भानंत ते पुरिषा गता।१।
बिसासघातगी पुरिषागता, कायरौतत ते पुरिषा गता।२।
अभष भषंते पुरिषा गता, सबद हीण ते पुरिषा गता।३।
उदित राषंत ते पुरिषा गता, परत्रिया राचंत ते पुरिषा गता।૪।
सति सति भाषंत गोरष बाला, इतनि त्यागी रहो निराला।५।
महायोगी गोरख कहते है की जो पुरुष कामवासना के कारण स्त्री द्वारा जीत लिये जाते है उनका विनाश हो जाता है, जो पुरुष एक दूसरे को नीचा दिखाने के भाव से आपस मे वैमनस्य रखते है, वे भी विनाश को प्राप्त हो जाते है। विश्वासघाती और कायर पुरुषो का भी क्षय हो जाता है। जो पुरुष ना खाने योग्य (अभक्ष) तामसिक पदार्थो का सेवन करते है और जो गुरु ज्ञान की अवहेलना करते है, वे विनाश को प्राप्त हो जाते है। इसी प्रकार जो पुरुष बिन्दु (वीर्य) की रक्षा नही करते और जो परस्त्री गमन करते है, उनका विनाश हो जाता है। गोरखनाथ जी का तो कथन है की जो इन बातो का त्याग करता है, वह सदा निराली उन्मुक्त अवस्था मे स्थित रहता है।
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सत्यो सीलं दोय असनानं, त्रितीये गुरु बायक।१।
चत्रथे षीषा असनान, पंचमे दया असनान।२।
ये पंच असनान नीरमला, निति प्रति करत गोरखबाला।३।
महायोगी गोरख कहते है की मैं पाँच प्रकार के स्नान नित्य करता हूँ। पहला स्नान सत्य की धारणा के रुप मे करता हूँ ( निरन्तर अपने सत्य स्वरुप की जागृति मे रहता हूँ), दूसरे स्नान के रुप मे अपने नियमो व मर्यादाओ की निरन्तर पालना करता हूँ ( यानी योगेश्वर जीवन की मर्यादाओ के अनुरुप आचरण करता हूँ), तृतीय स्नान के रुप मे गुरु द्वारा दिये गए ज्ञान का चिन्तन मनन करके उसकी धारणा करता हूँ (सदा गुरु ज्ञान को शिरोधार्य करता हूँ), चतुर्थ स्नान के रुप मे गुरु शिष्य परम्परा का निर्वहन करता हूँ (यानी जो ज्ञान गुरु ने मुझे दिया, उसको आगे पात्र शिष्यो को प्रदान करता हूँ ), पंचम स्नान के रुप मे मै निरन्तर प्राणी मात्र के लिए दया व करुणा से परिपूर्ण समभाव रखता हूँ ( यानी प्रत्येक जीव मे निराकार रुप से व्याप्त अपने ही निज के चैतन्य स्वरुप का दर्शन करता हूँ, द्वैत भाव से परे एकात्मक रुप मे स्थित रहता हूँ )। गोरखनाथ जी का कथन है की ये पाँच स्नान नित्य प्रति करने से मै एक निश्छल बालक के समान निर्मल व र्निलेप अवस्था को पाकर निरन्तर परमपद मे स्थित रहता हूँ।
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तूंबी में तिरलोक समाया, त्रिवेणी रबि चंदा।१।
बूझौ रे ब्रंभ गियानी, अनहद नाद अभंगा।२।
महायोगी गोरख कहते है की इस देह रुपी तूंबी मे सारा ब्रहमांण्ड समाया हुआ है, इसमे ही त्रिवेणी (इड़ा, पिंगला,सुषुम्ना रुपी त्रिवेणी), सहस्त्रार मे व्याप्त सूर्य ( शिव तत्व) तथा मूलभाग मे चन्द्रमा (शक्ति तत्व) व्याप्त है। गोरखनाथ जी का कथन है की हे ब्रह्मज्ञानियो! इस तूंबी मे निरन्तर बजने वाले (अभंग) अनाहत नाद की खोज करके, उसे सुनो। इस अवस्था को पाकर तुम माया से परे, उस परम पद मे स्थित हो जाओगे।
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चापि भरै तो बासण फूटै, बारै रहे तो छीजै।१।
बसत घणेरी बासन बोछा, कहो गुरु क्या कीजै।२।
महायोगी गोरख से शिष्य निवेदन करता है की गुरु जी! जिस प्रकार क्षमता से अधिक मात्रा मे पदार्थ भरने पर बर्तन फूट सकता है, उसी प्रकार पात्रता से अधिक ज्ञान देने पर ज्ञान शिष्य मे ठहर नही पाता है और हो सकता है शिष्य साधना मार्ग से ही पलायन कर जाए। यदि गुरु शिष्य की क्षमता अनुसार अल्प ज्ञान देता है तो ज्ञान की पूर्णता शिष्य मे विकसित नही हो पायेगी और अपूर्ण ज्ञान विनाश को प्राप्त हो सकता है। हे गुरुजी! बर्तन छोटा है और वस्तु की मात्रा अधिक है (यानी ज्ञान विस्तृत है लेकिन शिष्य की ग्राहक क्षमता अल्प है), अब बताइये क्या किया जाए ??
अवधू सहजै लैणा सहजै दैणा, सहजै प्रीति ल्यौ लाई।३।
सहजै सहजै चलैगा रे अवधू, तौ बासण करैगा समाई।૪।
अब महायोगी गोरख उतर देते हुए कहते है की हे अवधूत! ज्ञान का लेन देन सरल ढंग से होना चाहिए, उसमे जड़ता नही होनी चाहिए। गुरु को शिष्य की स्वभाविक सहज वृति के अनुसार ज्ञान का उपदेश करना चाहिए, सहज स्वभाव द्वारा शिष्य की ज्ञान मे प्रीति और लौ लग जायेगी। यदि सहज - सहज (प्राकृतिक रुप से) प्रयास किया जायेगा तो पात्र स्वयं बड़ा हो जायेगा (यानी शिष्य पात्रता अर्जित कर लेगा) और गुरु कृपा से वह ज्ञान की धारणा करके उसको खुद मे समाहित कर लेगा।
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जोगेसर की इहै परछ्या, सबद बिचारया षेलै।१।
जितना लाइक बासणा होवैं, तेतौ तामैं मेल्हं।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगीश्वर की यही परख है की वह पहले निज के अन्तर मे शब्द का विचार करता है (पहले खुद परमपद मे अवस्थित होता है), शब्द विचार करने के उपरान्त व्यवहार करता है और जिसकी जितनी पात्रता है, उतना ही उसको उपदेश करता है (यानी शिष्य की पात्रता के अनुरुप ही उसको ज्ञान देता है)।.
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जप तप जोगी संजम सार, बाले कंद्रप कीया छार।१।
येहा जोगी जग मैं जोय, दूजा पेट भरै सब कोय।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो जप, तप करता है और संयम को सार वस्तु समझता है। जिसने बाल्यावस्था मे ही काम को जलाकर राख कर दिया है (यानी जो योग अग्नि मे काम विकारो को दग्ध करके उन पर विजय प्राप्त कर लेता है )। गोरखनाथ जी का कथन है की जग मे ऐसे जन को ही योगी समझना चाहिए, बाकी तो सब पेट भरने के लिए फिरते है।
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जरणा जोगी जुगि जुगि जीवै, झरणा मरि मरि जाय।१।
षोजै तन मिलैं अबिनासी, अगह अमर पद पाय।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो योगी अपने तेज (वीर्य) को ऊध्र्व करके, उसे शरीर मे जीर्ण (स्थिर) कर लेता है, वह चिरंजीवी (जन्म मरण से परे की) अवस्था को पा जाता है। जबकी तेज (वीर्य) की रक्षा न करके, उसको गवाँ देने वाला बार - बार मरता है और जन्म लेता है। गोरखनाथ जी का तो कथन है की जो इस शरीर मे ही परमात्मा को खोजता है, वह उसे इसी मे प्राप्त भी कर लेता है और उसे प्राप्त कर अमरपद (परमपद) मे अवस्थित हो जाता है।
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पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा, कथिकथिकथि कहा कीन्ह।१।
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु घट गया, पारब्रह्म नहीं चीन्ह।२।
महायोगी गोरख कहते है की खूब पोथी (वेद,शास्त्र,ग्रंथ,किताबे आदि) पढ़कर ढ़ेर सारा कागजी ज्ञान प्राप्त कर लेने मे तथा अनुभव से रहित रटि - रटाई बड़ी - बड़ी शास्त्र - ज्ञान की बातो का कथन करने से क्या लाभ (प्राप्ति) है ?? ( यानी इन बातो मे कोई भी सार नही है)। यदि इस प्रकार से कोई लौकिक जगत मे बहुत प्रतिष्ठा व कहने मात्र की आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर भी लेता है, तो भी बिना परमात्म अनुभूति के यह सारी उन्नति तो एक दिन विनाश को प्राप्त होकर अवनति मे परिणित हो जायेगी। इसलिए आत्म ज्ञान का आधार लेकर परमात्म तत्व की पहचान (अनुभूति) करनी चाहिए।
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गिरही होय करि कथै ग्यांन, अमली होय करि धरै ध्यान।१।
बैरागी होय करै आसा, नाथ कहै तीन्यों पासा पासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो गृहस्थ होकर ब्रहमज्ञान का उपदेश करता है (यानी खुद विकारो मे संलिप्त होकर दूसरो को वैराग्य का उपदेश करता है), जो व्यसनी होकर ध्यान धरता है (यानी ध्यान का आडम्बर मात्र करता है), जो बैरागी होकर किसी प्रकार की आस रखता है (यानी बाहरी आवरण से तो वैरागी है लेकिन अन्दर से इच्छा व तृष्णा से संयुक्त है)। गोरखनाथ जी का कथन है की ये तीनो एक जैसे है, इनके पास यथार्थ मे कुछ भी नही है। ये माया के पाश मे बुरी तरह जकड़े हुए है।
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रांड मुवा जती, धाये भोजन सती धन त्यागी।१।
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी।२।
महायोगी गोरख कहते है की स्त्री का देहान्त हो जाने पर जो यती (योगी) हो जाता है, बिना परिश्रम के भोजन पाने की आशा मे जो सती (साधु) होता है और धन के नष्ट हो जाने पर जो त्यागी होता है (यानी गृहस्थ त्याग साधु बन जाता है), गोरखनाथ जी का कथन है की ये तीनो अभागे है यानी इनको कोई प्राप्ति सम्भव नही है।
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गिरही को ग्यान अमली को ध्यान, बूचा को कान वेश्या को मान।१।
बैरागी अर माया स्यूं हाथ, या पांचां को एको साथ।२।
महायोगी गोरख कहते है की गृहस्थ का ज्ञान, व्यसनी का ध्यान, बूचे के कान, वेश्या का मान और माया को चाहने वाले का वैराग्य, इन पाँचो का कोई आस्तित्व नही होता है। क्योंकी गृहस्थ का ज्ञान पूर्ण नही हो पाता, व्यसनी उस परम पद का ध्यान नही कर पाता व सांसारिक व्यसनो के चिन्तन मे लिप्त रहता है, बूचे को कान नही होता है, वेश्या कभी मान अर्जित नही कर पाती है और माया से लगाव रखने वाला कभी विरक्त नही हो पाता है।
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च्यंत अच्यंत ही उपजैं, च्यंता सब जग षीण।१।
जोगी च्यंता बीसरै, तो होई अच्यतहि लीन।२।
महायोगी गोरख कहते है की चिंता अप्रत्याशित रुप से उत्पन्न हो जाती है और चिंता के कारण सारा संसार निर्बल व विपन्न हो गया है। लेकिन योगी चिंता का त्याग कर देता है और अचिंत्य परब्रह्म में लीन हो जाता है (यानी योगी सांसारिक चीजो का चिंतन करके चिंता पैदा करने की बजाय, उस परम सता का विचार करता है जो विचारा नही गया है तथा जिसका विचार करके उसमे स्थित हो जाने पर सब चिंताओ का क्षय हो जाता है)।
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राष्या रहे गमाया जायं, सतिसति भाषंत श्री गोरषराय।१।
येकै कहि दुसरै मानी, गोरष कहै वो बड़ो ग्यानी।२।
महायोगी गोरख कहते हेै की रक्षा करने से चीज बनी रहती है, न रक्षा करने से वह गवाँ दी जाती है (नष्ट हो जाती है), यह गोरखनाथ का सत्य वचन है। यहाँ गोरखनाथ जी संकेत कर रहे है की अपने तेज (वीर्य) को क्षणिक भोग विलास में गवाँ नही देना चाहिए, बल्कि उसकी रक्षा करके, उसको उध्र्वगामी बनाना चाहिए। गोरखनाथ जी का तो कथन है की सच्चा योग व सच्चा ज्ञानीपन तो तब घटित हुआ मानिए जब एक उपदेश करे व दूसरा उसको स्वीकार कर ले यानी विवाद व द्वन्द रहित अवस्था ही सच्चे ज्ञानी का लक्षण है। इसलिए योगीजनो को यह परम ज्ञान तत्काल शिरोधार्य करना चाहिए।
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साइं सहेली सुत भरतार, सरब सिसटि कौ एकौ द्वार।१।
पैसता पुरसि निकसता पूता, ता कारणि गोरष अवधूता।२।
महायोगी गोरख कहते है की स्वामी, सखा, पुत्र, पति आदि सभी की उत्पति गर्भद्वार (योनीमार्ग) से होती है। कभी वह पति बनता है तो कभी उसे पुत्र के रुप मे जन्म लेना पड़ता है और यह श्रृंखला चलती रहती है। इसलिए गोरखनाथ जी का कथन है की उन्होने वैराग्य का वरण कर लिया और परम अवधूत पद की अवस्था मे स्थित हो गए।
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ऊजल मीन सदा रहै जल मै, सुकर सदा मलीना।१।
आतम ग्यांन दया बिणि कछु नाहीं, कहा भयौ तन षीणा।२।
महायोगी गोरख कहते है की मछली का प्राकृतिक स्वभाव जल मे रहने का है जिससे वह निर्मल बनी रहती है और सूअर सदा विष्ठा व कीचड़ आदि मे रहकर सुख पाता है, जिससे सदा मैला रहता है। इस प्रकार योगी को भी प्राकृतिक रुप मे आत्मज्ञान से संयुक्त होकर तथा अन्तर को परम दयालुता के भाव से भरपूर करके रखना चाहिए। अन्तर मे इन बातो के जागरण के बिना कठोर बाहरी तप से चाहे आप शरीर को क्षीण ही क्यों ना कर दे, लेकिन उससे कोई लाभ नही है।
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बिणि बैसंदर जोति बलत है, गुरु प्रसादे दीठी।१।
स्वामी सीला अलुणी कहिये, जिनि चिन्हा तिन दीठी।२।
महायोगी गोरख कहते है की घट के अन्दर बिना अग्नि के ज्योति (ब्रह्मज्योति) प्रज्वलित रहती है, गुरु के कृपा प्रसाद से हमे भी उसका दर्शन हुआ। गोरखनाथ जी का कथन है की शिलवृत की भांति जो केवल स्वामी (गुरु व परमात्मा) की अनुकम्पा पर ही आश्रित (समर्पित) है और परम वैराग्य से संयुक्त है। वही अपने वास्तविक स्वरुप को पहचान कर, इस ज्योति का दर्शन कर पाता है।
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ब्यंद ब्यंद सब कोई कहै, महाब्यंद कोइ बिरला लहै।१।
इह ब्यंद भरोसे लावै बंध, असथिरि होत न देषो कंघ।२।
महायोगी गोरख कहते है की बिंदु (वीर्य रक्षण) की बात तो सभी करते है, लेकिन महाबिंदु (ब्रह्म तत्व) को कोई बिरला ही प्राप्त करता है। इस परम अनुभूति को प्राप्त करने हेतु जो बंध लगाने की क्रिया करता है यानी बंध द्वारा उध्र्वरेता होकर महाबिन्दु को प्राप्त करता है, उसका शरीर कभी अस्थिर नही होता है।
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इस अोजुदा मैं मारि लै गोता, कछु मगज भीतरि ख्याल रै।१।
पंच कटार है भीतरि, निमस करि बेहाल।२।
महायोगी गोरख कहते है की मस्तिष्क मे कुछ विचार करो और इसी शरीर मे गोता मारो, क्योंकी सब कुछ इस शरीर मे ही स्थित है। पंचेन्द्रियाँ भी भीतर ही व्याप्त है, इनको बुद्धि (विवेक) की कटार से शक्तिहीन करके समाप्त कर दो।
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जे आसा तो आपदा, जे संसा तो सोग।१।
गुर मुषि बिना न भाजसी, येदून्यों बड़ रोग।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो दूसरो से आशा (उम्मीद) करते है उन्हे आपदा झेलनी पड़ती है और शंशय करने से शोक का सामना करना पड़ता है। ये दोनो ही बड़े घातक रोग है, गुरु के मुख से प्राप्त ज्ञान को धारण किये बिना ये भागेंगे नही (यानी समाप्त नही होंगे)।
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अवधू यो मन जात है, याही तै सब जांणि।१।
मन मकड़ी का ताग, ज्यूं उलटि अपूठौ आंणि।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! यह मन सांसारिकता मे भटकता जा रहा है यानी चंचलता को प्राप्त किए हुए है, इसको निग्रहित करो। इस सार बात को समझ लो की इसी मन से सर्व की उत्पति है और इसी से सब जाना जाता है (परम सत्य का ज्ञान भी इसी द्वारा होता है) यानी यह मन शिव स्वरुप है तथा सर्वत्र इसी का पसारा है। गोरखनाथ जी का कथन है की यह मन मकड़ी के जाल के समान है जैसे सारे भटकाव के बावजूद अन्त मे मकड़ी वापिस अपने जाले मे लौट आती है यानी जिस प्रकार मकड़ी वापिस अपने जाल मे लौटकर सहजता का अनुभव करती है, वैसे ही यह मन भी अपनी शिव स्वरुप स्थिति को पाकर ही सहज हो पायेगा। इसलिए इसको सांसारिक विषयो मे न लगाकर, इसकी प्राकृतिक शिव अवस्था की तरफ लेकर जाओ, जहाँ से भटकाव शुरु हुआ था, वही वापिस जाकर यह विश्राम पायेगा व जीव को भी शिव की स्थिति मे स्थित करा देगा।
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अकुच कुचीया बिगसिया पोहा,सिधि परिजलि उठी लागिया धुवा।१।
कहै गोरषनाथ धुवा प्राण, ऐसे पिंड का परचा जाणै प्राण।२।
महायोगी गोरख कहते है की अकुंचित अर्थात विषयो मे बिखरा हुआ (चंचल, चलायमान) मन प्रत्याहार के द्वारा कुंचित (स्थिर, सिमटा हुआ) हो जाता है। इससे ब्रह्मरुप माला में पिरोया गया (ब्रह्म से तादात्मय हुआ) जीवात्मा रुपी पुष्प खिल उठता है। इस प्रकार सिद्धि प्रज्वलित होती है (सिद्धत्व घटित होने लगता है) और धुवां (प्राण) उठने लगता है ( यानी जैसे धुआँ ऊपर उठकर अग्नि की सिद्धि (उपस्थिति) को दर्शाता है, वैसे ही प्राणो का ऊपर उठकर ब्रह्मरंध में स्थित होना योगसिद्धि प्राप्ति कोे प्रमाणित करता है)। गोरखनाथ जी का कथन है की इस प्रकार शरीर के सिद्ध (योगसिद्ध) हो जाने की वास्तविक पहचान प्राण ही है यानी प्राणो की स्थिति से योगसिद्धता का परिचय मिलता है।
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तजौ कुलती मेटौ भंग, अह निसि राषौ ओजुद बंधि।१।
सरब संजोग आवै हाथि, गुरु राषै निरबाण समाधि।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे योगी! सभी प्रकार के निकृष्ट (असात्विक, असंयमित) क्रिया - कलापो का त्याग करो और परम समाधि के मार्ग के सम्भावित अवरोधो का निषेध कर दो। इस प्रकार रात - दिन शरीर को संयमित रखो। गोरखनाथ जी का कथन है की इससे सम्यक योग सिद्ध हो जायेगा और गुरु कृपा से निर्वाण समाधि की रक्षा होगी।
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सुंनि ज माई सुंनि ज बाप, सुंनि निरंजन आपै आप।१।
सुंनि कै परचै भया सथीर, निहचल जोगी गहर गंभीर।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी के लिए शून्य (परम समाधि की अवस्था) ही माता है, वही पिता है और शून्य समाधि मे स्थित योगी स्वयं निरंजन ब्रह्म है यानी इस स्थिति मे केवल निरंजन परम सता ही व्याप्ति है दूसरा कोई शेष नही रहता है। गोरखनाथ जी का कथन है की शून्य समाधि का परिचय (अनुभव) होने पर परम स्थायीत्व घटित होता है और योगी चंचलता से परे गहन - गम्भीर अवस्था मे स्थित हो जाता है।
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जोगी सो जो राषै जोग, जिम्यायंद्री न करै भोग।१।
अंजन छोड़ी निरंजन रहै, ताकू गोरष जोगी कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी वह है जो निरन्तर योगयुक्त अवस्था मे रहता है और जिह्वा आदि इन्द्रियो से भोग नही करता है (इनसे भोग भोगने की कामना तक भी नही रखता है)। जो माया (अंजन) के सभी प्रपंचो का त्याग करके (निर्लेप रहकर), निरन्तर ब्रह्म (निरंजन) का चेतन स्वरुप बनकर रहते है यानी परम अवस्था मे अवस्थित रहते है, उन्ही को योगेश्वर गोरखनाथ कहते है। (गोरखनाथ किसी देह का नाम नही है, वे तो माया के इस प्रपंच के मध्य मे रहते हुए भी स्वयं अलख पुरुष परमात्मा ही है)।
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जिनि मन ग्रासे देवदाण ।१।
सो मन मारिले गहि गुरु ग्यांन बाण ।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह मन बड़ा दुर्जेय है। इसने देव - दानव आदि सबको ग्रस लिया है यानी इन सभी पर भी मन का आधिपत्य है। गोरखनाथ जी का कथन है की साधक को चाहिए की वह गुरु के ज्ञान का बाण इस मन को मारे व इसको मार डाले यानी गुरु के उपदेश को आत्मसात करके इस चंचल मन की चंचलता को निष्प्रभावी कर दे।
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जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी, मारिलै पंच भू म्रगला।१।
चरै थारी बुधि बाड़ी, जोग का मूल है दया दाण।२।
कथंत गोरष मुकति लै मानवा, मारिलै रे मन द्रोही।३।
जाकै बष बरण, मांस नहीं लोही।૪।
महायोगी गोरख कहते है की हे देहधारियो! किसी जीव की हत्या क्यों करते हो ?? यदि मारना ही है तो अपने पंचभौतिक शरीर मे रहने वाले इस चंचल मृग रुपी "मन" को मारो जो तुम्हारी बुद्धि रुपी बाड़ को चर रहा है यानी तुम्हे विवेकशून्य बना रहा है। योग के मार्ग का तो मूल सिद्धान्त ही दया व दान का भाव है। गोरखनाथ जी का कथन है की हे मनुष्य! शरीर, मांस, रक्त व वर्ण से रहित इस विद्रोही मन को मारो, जिसके मरते ही मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।
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जीव सीव संगे बासा, बधि न षाइबा रुध्र मासा।१।
हंस घात न करिबा गोतं, कथंत गोरष निहारि पौतं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जीव व शिव का एक ही साथ निवास है यानी जीव के शरीर मे ही शिव का वास है, दोनो अभिन्न है। इसलिए किसी जीव की हत्या करके रक्त मांस का सेवन मत करो। गोरखनाथ जी का कथन है की सभी को अपने बच्चों के समान समझो व किसी जीव का प्राण घात मत करो यानी जैसे तुम अपने बच्चों को नही मारते हो वैसे ही किसी अन्य जीव की हत्या भी मत करो, यह महापाप है।
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पंथ चले चलि पवनां तूटै, तन छीजै तत जाई।१।
काया तैं कछू अगम बतावै, ताकी मूंडूं भाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की साधक को एकान्त मे स्थिर भावयुक्त होकर परमात्म तत्व का अधिष्ठान करना चाहिए, ज्ञान प्राप्ति के लिये व्यर्थ भटकाव से प्राण शक्ति नष्ट होती है, काया क्षीण हो जाती है, जिससे परमात्म तत्व की प्राप्ति नही हो पाती है। गोरखनाथ जी का कथन है की इस काया से अगम्य तत्व भी कोई नही है (क्योंकी ब्रह्म का निवास तो हमारे शरीर मे ही है, इसी माध्यम से पूर्ण प्राप्ति सम्भव है)। अगर कोई शरीर के बाहर परम तत्व की स्थिति प्रमाणित करता है तो हम उसका ज्ञान सिरोधार्य करने को तत्पर है (यानी काया की अवेहलना करके, अन्यत्र कही तत्व का ज्ञान प्राप्त करना आदि सब मिथ्या बाते है, जिसने भी परम को पाया उसने इसी घट मे पाया है)।
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विधा पढ़ि र कहावै ग्यानी, बिना अविधा कहै अग्यांनी।१।
परम तत का होय न मरमी, गोरष कहै ते महा अधरमी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जगत मे लौकिक विधा पढ़कर ही कोई ज्ञानी कहलाता है, लेकिन परम ज्ञान के मार्ग पर इस सांसारिक ज्ञान की अविधा हुए बिना साधक अज्ञानी ही है (क्योंकी साधना पथ पर यह ज्ञानीपन का अहंभाव ही पतन का कारक बन जाता है)। गोरखनाथ जी का कथन है की जिसने इस देह से परम तत्व का भेद नही पाया, वह सबसे बड़ा अधर्मी (महाअधर्मी)है।
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अबूझि बूझिलै हो पंडिता, अकथ कथिलै कहांणी।१।
सीस नवांवत सतगुरु मिलीया, जागत रैंण बिंहाणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे पंडितो! जो अबूझ (अज्ञात है) यानी जाना नही गया है, उसको जानो यानी निज के अनुभव द्वारा उसका ज्ञान को प्राप्त करो। वैसे तो उस परम तत्व का कोई वर्णन नही दे सकता (अकथ), लेकिन फिर भी व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर उसका वर्णन करना चाहिए। गोरखनाथ जी का कथन है की साधक के ह्रदय मे वास्तविक श्रद्धा और लगन (स्थूल रुप से उसको शीश नवाकर प्रदर्शित करते है) उत्पन्न होते ही सदगुरु का साक्षात सानिध्य प्राप्त हो जाता है और गुरु द्वारा दिये ज्ञान को जब शिष्य आत्मसात कर लेता है तो जागते जागते (ज्ञानावस्था में) इस अज्ञानमय सांसारिक जीवन की रात्री से प्रभात हो जाती है यानी परम ज्ञान चेतन हो उठता है।
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बरष एक दिखि लै हो पंडिता, तत एक चिन्हिवा, सबदैं सुरति समाई।१।
गोरखनाथ बोलै भ्रम न, भूलिबा रे भाई।२।
महायोगी गोरख तथाकथित सांसारिक बुद्धिजीवियो को सार बात बताते हुए कहते है की हे पंडितो! यह सारा जगत एक वृक्ष के समान है, जो परमात्मा में अधिष्टित है। अत: इस जगत के स्थूल ज्ञान से परे, परमात्म अनुभूति से प्राप्त ज्ञान द्वारा परम तत्व की पहचान करनी चाहिए तथा चित वृति (सुरति) को शब्द ब्रह्म (अनाहत नाद) में लीन कर देना चाहिए। गोरखनाथ जी का कथन है की हे भाई! जगत के प्रपंच के कारण भ्रम मे पड़कर इस सार सत्य को भूलना नही चाहिए।
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गोरष कहै हमारा षरतर पंथ, जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।१।
जोग जुगति मैं रहे समाय, ता जोगी कूं काल न षाय।२।
महायोगी गोरख कहते है की हमारा योग का मार्ग अति कठिन है, इसमे साधक को चाहिये की वह जीभ पर पूर्ण बन्धन (नियन्त्रण) रखकर योगयुक्त अवस्था मे लीन रहे। ऐसे योगी को काल नही खाता है यानी उसको मृत्यु का भय नही रहता है।
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गोरष कहै हमारा षरतर पंथ, जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।१।
जोग जुगति मैं रहे समाय, ता जोगी कूं काल न षाय।२।
महायोगी गोरख कहते है की हमारा योग का मार्ग अति कठिन है, इसमे साधक को चाहिये की वह जीभ पर पूर्ण बन्धन (नियन्त्रण) रखकर योगयुक्त अवस्था मे लीन रहे। ऐसे योगी को काल नही खाता है यानी उसको मृत्यु का भय नही रहता है।
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धरे अधर विचारीयां, धरी याही मैं सोय।१।
धरे अधर परचा हूंवा, तब दुतीया नाही कोय।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब इस पंच भौतिक शरीर मे उस परम तत्व का विचार किया तो उसको इस पिण्ड मे ही पा लिया। इस प्रकार जब धरा (देह) मे ही अधर (ब्रह्म तत्व) का परिचय (साक्षात्कार) हो जाता है तब अद्वैत की सिद्धि हो जाती है यानी द्वैत भाव समाप्त हो जाता है।
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उलटी सकति चढ़ै ब्रह्मंड, नष सष पवनां षेलै सरबंग।१।
उलटि चन्द्र राह कूं ग्रहै, सिव संकेत जती गोरष कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब कुंडलिनी शक्ति उलटकर (मूलाधार से सहस्त्रार) ब्रह्मांड (ब्रह्मरन्ध) में पहुँच जाती है तो नख से शिख तक सभी अंगो मे प्राणवायु प्रवाहित होने लगती है। तब चन्द्रमा द्वारा राहु का ग्रसन होता है यानी सहस्त्रार स्थित चन्द्रमा से होने वाले अमृत स्त्राव का ग्रसन मुलाधार का सूर्य नही कर पाता, बल्कि योगी स्वयं इसका पान करता है। महायोगी गोरख का यह परम कल्याणकारी सिद्ध संकेत है।
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सूरां का पंथ हारयां का बिसराम, सुरता लेहु बिचारी।१।
अपरचै पिंड भिष्या षात है, अंति कालि होयगी भारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगसाधना का मार्ग वीरो का मार्ग है, कायर लोग तो इस मार्ग पर हार मानकर विश्राम ले लेते है यानी इस पथ का त्याग कर देते है। गोरखनाथ जी का कथन है की हे श्रोताओ! ध्यान देकर इस बात का विचार कर लो की जो साधक इस शरीर से ब्रह्म के साक्षात्कार हेतु प्रयास किये बिना, भिक्षा माँग कर पेट भरता है, उसका अन्त समय कष्टमय हो जायेगा यानी मृत्यु का समय आने पर उस पर अर्कमण्यता का बोझ बहुत ज्यादा हो जायेगा (उसे भारी पश्चाताप होगा की उसने जन्म व्यर्थ ही खो दिया)।
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अवधू अहार कूं तोडिबा पवन कूं मोड़िबा, ज्यौ कबहुं न होयवा रोगी।१।
छठै छमासि काया पलटंत, नाग बंग बनासपति जोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! आहार तोड़ने (अल्पाहार) और पवन को मोड़ने (प्राणायाम) से योगी का शरीर सदा नीरोग रहता है। उसे प्रत्येक छ: महीने मे प्राकृतिक रसायनो, भस्म, वनस्पति व रसो के द्वारा कायाकल्प करके योग की सिद्धि करनी चाहिए।
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रुसता रुठा गोला रोगी, भोला भछिक भूषा भोगी।१।
गोरष कहै सरबटा जोगी, यतनां मैं नही निपजै जोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो क्रोधी, झगड़ालू, बदमिजाज, पेटू (अधिक खाने वाला), लोभी, भोग की कामना रखने वाला व वायु रोग से ग्रस्त है, वह योगी नही है। वह दिखावे मात्र का जटाधारी है, क्योंकी ऐसे आचरण से योगी नही बनते है। वास्तविक योगी पद तो यत्नपूर्वक आत्मस्वरुप का विचार करने से प्राप्त होता है।
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निद्रा सुपनैं बिंद कूं हरै, पंथ चलंतां आतमां मरै।१।
बैठां षटपट ऊभां उपाधि, गोरष कहै पूता सहज समाधि।२।
महायोगी गोरख कहते है की निंद्रा बिंदु का हरण कर लेती है यानी नींद में स्वप्न दोष के कारण शुक्र (वीर्य) का नाश होता है। भ्रमण करते रहने से शरीर अत्याधिक थक जाता है जिससे आत्म चिन्तन मे बाधा उत्पन्न होती है। केवल बैठे रहने से बुद्धि मे व्यर्थ की बाते सुझने लगती है और खड़े रहने से उत्पात घटित होता है। इसलिए गोरखनाथ का कथन है की हे पुत्र! सहज समाधी ही सार है। सहज समाधि मे सदा लीन रहना चाहिए।
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त्रिया न सांति बैद र रोगी, रसायणी अर जाचि षाय।१।
बूढ़ा न जोगी सूरा न पीठि पाछै घाव यतना, न मानै श्रीगोरषराय।२।
महायोगी गोरख कहते है की स्त्री के संग मे रहकर कोई शांति प्राप्त नही कर सकता (योगी के लिए स्त्री (सांसारिकता) का संग करते हुए योगसिद्ध होना सहज नही है)। वैध अगर वस्तुत: वैध है तो उसे रोग नही व्याप सकता है। रसायन कला मे निपुण रसायनी को मांग कर खाने की आवश्यकता नही होती है (रसायनी जो लोहे आदि धातुओ को सोने मे बदल दे)। सच्चे योगी को कभी बुढ़ापा नही आ सकता (वह तो सदा निरोग रहता है)। शूरवीर की पीठ पर घाव नही हो सकता यानी वह कभी पीठ दिखाकर कायरता का प्रदर्शन नही कर सकता
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मिंदर छाडै कुटी बंधावै, त्यागै माया और मंगावै।१।
सुन्दरी छाड़ै नकटी बासै, ताते गोरष अलगै न्हासै।२।
महायोगी गोरख कहते है की स्थूल रुप से तो लोग जोग ले लेते है पर वास्तव मे जोग लेना या जोगी होना नही जानते है। वे माया के एक रुप का त्याग करते है तो माया के दूसरे रुप मे फँस जाते है। अपना मकान छोड़ते है तो कुटिया छवाकर उसके साथ मेरापन जोड़ लेते है। घरबार की माया को छोड़ते है तो फिर भिक्षा माँगने मे ही ध्यान लगाए रहते है। घर पर सुन्दर स्त्री को छोड़ कर आते है तो शिष्याओं की संख्या बढ़ाने मे लग जाते है। इसलिए गोरखनाथ जी का कथन है की वे अकेले ही रहकर भ्रमण करते है और अलग रहकर एकान्त मे वास करते है।
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आफू षाय भांगि भसकावै, ता मैं अकलि कहां तै आवै।१।
चढ़ता पित ऊतरतां बाई, तातैं गोरष भांगिन षाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो अफीम खाता है और भांग का भक्षण करता है, उसको बुद्धि कहाँ से आवै यानी उसकी सोचने की व विवेक की शक्ति नष्ट हो जाती है। गोरखनाथ जी का कथन है की भाँग खाने से पित चढ़ता है और वायु उतरती है, इसलिए उन्होने कभी भाँग का भक्षण नही किया।
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एक कांमध्येनि बारि सिघि कै, गगन सिषर लै बांधी।१।
लागि जीव ऊपरि बारि, सिधि कील्यौ निरंजन सूसांधी।२।
महायोगी गोरख कहते है की सिद्धो की कामधेनु तो मूलशक्ति कुण्डलिनी है, जिसे उन्होने गगन शिखर (सहस्त्रसार) में ले बाँधा है। सांसारिक इच्छापूर्ति करने वाली कामधेनु को पाने के फेर मे तो जीव खुद ही माया की बाड़ मे घिर गया है, जबकी सिद्धो ने निरंजन समाधी से इसको (माया को) कील दिया है (यानी निरंजन परमात्मा मे लौ लगा कर सांसारिकता का निषेध कर दिया है)।
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महमां धरि महमां कूँ मेटै, सति का सबद विचारी।१।
नांन्हां होइ जिनि सतगुरु षोज्या, तिन सिर की पोट उतारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की महान वह है जो महिमा को धारण करते हुए भी महिमा को मिटा देता है यानी र्निलेप भाव से अभिमानरहित व सरल रहता है और सत्य शब्द यानी आत्मिक स्वरुप का विचार करता है। गोरखनाथ जी का कथन है की जिसने पूर्ण समर्पण व अहंकार रहित भाव से युक्त होकर सदगुरु की खोज की और उनकी शरणागति हो गया, वह सिर पर पड़ी इन सांसारिक बन्धनो की पोटली को उतार फेंकता है और मुक्तस्वरुप स्थिति मे स्थित हो जाता है।
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षंड़ित ग्यांनी षरतर बोलै, सति का सबद उछेदै।१।
काया कै बलि करड़ा बोलै, भीतरि तत न भेदै।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो खंडित (अधूरा) ज्ञानी होता है वह तीखी (प्रखर) बातें बोलता है और सत्य शब्द का उच्छेदन (खंडन) करता है। उसके आभ्यंतर में तत्व का प्रवेश नही होता यानी उसे वास्तविक आत्मिक ज्ञान तो होता नही है, वह तो शरीर को ही सब कुछ समझता है और इस थोथी भौतिकता के बल पर निरर्थक शब्दो का वाचन करता रहता है।
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थंभ बिहूँणी गगन रचीलै, तेल बिहूँणीं बाती।१।
गुरु गोरष के वचन पतिआया, तब धौंस नहीं तहाँ राती।२।
महायोगी गोरख कहते है की गुरु के ज्ञान के प्रकाश में स्थित होकर यह जान लिया कि निरालम्ब आकाश (ब्रह्मरन्ध) में बिना तेल और बाती के ही सहज अवस्था में अलख निरंजन परमात्मा नित्य प्रकाशित रहता है। गोरखनाथ जी का कथन है की इस अवस्था मे स्थित योगी के लिए न रात है और न ही दिन है, क्योंकी वह सदा परम ज्ञान के प्रकाश में विचरण करता रहता है, जिसमे परमात्मा की निरन्तर अभिव्यक्ति है।
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आपा भांजिबा सतगुर षोजिबां, जोगपंथ न करिबा हेला।१।
फिरि फिरि मनिषा जनम न पायबा, करिलै सिघ पुरिससूँ मेला।२।
महायोगी गोरख कहते है की अहंकार का नाश करना चाहिये, सतगुरु की खोज करनी चाहिये। योग पंथ की उपेक्षा नही करनी चाहिए। बार - बार यह मनुष्य का जन्म नही मिलता, इसलिए सिद्ध पुरुषो के शरणागत होकर जन्म मरण से मुक्त हो जाना चाहिये।
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माता हमारी मनसा बोलिये, पिता बोलिये निरंजननिराकारं।१।
गुरु हमारे अतीत बोलिये, जिनी किया पिंड का उधारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की माया प्रधान प्रकृति से स्वेच्छा द्वारा हमारी उत्पति है और निराकार निरंजन हमारे पिता है। आत्म विवेकरुपी गुरु के ज्ञान प्रकाश में हम शरीर और आत्मा का भेद समझ सके, जिससे शरीर अमृतत्व मे स्थित हो गया।
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असाध कंद्रप बिरला साधंत कोई।१।
सुर नर गण गंधप्र ब्याप्या बालि सुग्रीव भाई।२।
ब्रह्म देवता कंद्रप ब्याप्या यंद्र संहस्त्र भग पाई।३।
अठयासी सहंस्त्र रषीसर कंद्रप ब्याप्या असाधी विष्न की माया।૪।
यंन कंद्रप ईस्वर महादेव नाटारंभ नचाया।५।
विघ्न दस अवतार थाप्या, असाधि कंद्रप जती गोरषनाथ साध्या।६।
जनि नीझर झरंता राष्या।७।
महायोगी गोरख कहते है की कोई बिरला ही कामदेव (असाध) को वश में कर सकता है, उस पर विजय प्राप्त कर सकता है। देवता, मनुष्य, गन्धर्व सब काम के वश में हो गये। बालि ने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को काम के वश होकर अपने अधीन कर लिया था। काम के वश होकर इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से छल किया और गौतम ऋषि के शाप से उनके शरीर के सहस्त्र भाग हो गये थे। ब्रह्मा देव ने भी काम के वशीभूत होकर अपनी आत्मजा सरस्वती पर कुदृष्टि डालने का यत्न किया। असाध काम की माया ऐसी है की दण्डकारण्य में ऋषि भी कामविमोहित हो गये थे। काम को भस्म करने वाले महादेव ने रति की प्रार्थना पर कन्दर्प को जीवित कर अनंगरुप दिया और स्वयं पार्वति से विवाह कर भोगानन्द का नाटक रचाया। विष्णु दस अवतार लेकर भी कन्दर्प के प्रभाव से नहीं बच सके। लेकिन यति गोरखनाथ ने सहस्त्रार से द्रवित चन्द्रामृत का पान कर वीर्य को ऊध्र्वगामी कर काम विकार से शरीर को मुक्त रखा और परम योगसिद्धि को पाया।
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गिगनि मंडल मैं गाय बियाई, कागद दही जमाया।१।
छांछि छांणि पंडिता पीवीं, सीधा माषण खाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की गगन मण्डल (सहस्त्रार) में अनुभूति के शिखर पर पहुँच कर सिद्धो ने परमानुभूति प्राप्त की (गाय बियाई), उसी का सार (दूध) लेकर उन्होने उसे उपनिषदादिक ग्रंथो (कागज) में स्थिर रुप दे दिया (दही जमाया)। इस दही को मथने पर प्राप्त छाछ को तो पंडितो ने ग्रहण किया ( वे शब्दो मे ही फँसे रह गये), किन्तु सिद्धो ने छाछ को छोड़कर मक्खन को ग्रहण किया (शब्दो के बजाय सार ज्ञान को आत्मसात कर लिया)।
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जहाँ गोरष तहां ग्यान, गरीबी दुंद बाद नहीं कोई।१।
निसप्रेही निरदावै षेलै, गोरष कहीयै सोई।२।
महायोगी गोरख कहते है जहाँ गोरख है वहाँ तो केवल परम ज्ञान है, वहाँ मायाकृत द्वैत भाव या द्वंद नही होता और न ही वाद विवाद होता है यानी गोरख तो परम चैतन्य र्निकार सता है उनका ज्ञान वस्तुत: परम का ही ज्ञान है, उनका ज्ञान मत,पंथ के दायरो से बहुत परे है जिसमे कोई द्वैत या द्वंद नही व्याप्ता है। ऐसा परम योगी जिसमे कोई कामना न हो और जो बिना फल की इच्छा किये हुए निष्काम कर्म करे, वह गोरख स्वरुप ही है। ऐसा श्रेष्ठ योगी निष्काम और सहज योगसाधना में प्रवृत होकर शिवस्वरुप गोरखपद या परमपद मे प्रतिष्ठित हो जाता है।
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सूरजे पायबा चंद्र सोयबा, उभै न पीबा पांणी।१।
जींवता कै तलि मूबा बिछाइबा, यूं बोल्या गोरष बांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब सूर्य का स्वर (सूर्यनाड़ी, दायाँ स्वर) चलता हो तब भोजन करना चाहिये और जब चंद्रस्वर ( चन्द्रनाड़ी, बायाँ स्वर) हो तब सोना चाहिये। जब दोनो स्वर चल रहे हो तब पानी भी नही पीना चाहिए। जीवित (आत्मा) के नीचे मृतक (जड़ शरीर) को बिछाना चाहिए अर्थात यह जड़ शरीर ही आत्म चिंतन का आधार है, अत: इसे निरोग रखते हुए इसका उपयोग आत्म कल्याण के लिए करना चाहिए। यह गोरखनाथ का कथन है।
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जीवता बिछायबा मूवां वोढिबा, कबहु न होयबा रोगी।१।
बरसवै दिन काया पलटिबा, यूँ कोई बिरला जोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब योगी जीवित यानी प्राणो को बिछाता है और मरे हुए (जड़ शरीर) को ओढ़ता है अर्थात जो साध्य मार्ग में योगासन से शरीर को दृढ़ करता है और प्राणायाम से जीवन शक्ति को बढ़ाकर, दोनो को संयत और निरुद्ध रखकर उनसे साधनो का काम लेता है)। वह कभी रोगी नही होगा। लेकिन इस प्रकार कोई बिरला योगी ही सालभर मे कायाकल्प कर पाता है।
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जीवता जोगी अमीरस पीबता, अहनिस अषंडित धारं।१।
दिष्टि मधे अदिष्टि बिचारिया, ऐसा अगम अपारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जीवनमुक्त योगी रात दिन सहस्त्रार से द्रवित अखण्ड अमृत धारा का निरन्तर पान करता रहता है। वह दृश्यमान बाह्य सृष्टि में अदृष्ट परमात्मा का दर्शन करता है। इस प्रकार अगम और अपार परमात्मा की प्राप्ति करके, वह भी अलख स्वरुप मे अवस्थित हो जाता है।
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जीवता जोगी अमीरस पीबता, अहनिस अषंडित धारं।१।
दिष्टि मधे अदिष्टि बिचारिया, ऐसा अगम अपारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जीवनमुक्त योगी रात दिन सहस्त्रार से द्रवित अखण्ड अमृत धारा का निरन्तर पान करता रहता है। वह दृश्यमान बाह्य सृष्टि में अदृष्ट परमात्मा का दर्शन करता है। इस प्रकार अगम और अपार परमात्मा की प्राप्ति करके, वह भी अलख स्वरुप मे अवस्थित हो जाता है।
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सांग का पूरा ग्यान का ऊरा, पेट का तूटा डिंभ का सूरा।१।
बंदत गोरखनाथ न पाया जोग, करि पाषंड रिझाया लोग।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो योगी बाहरी स्वांग करने मे पूरा है और ज्ञान मे अधूरा है। जिसका पेट बड़ा है यानी वह क्षुधातुर रहता है व बहुत खाता है और जो दम्भ करने मे शूर है। वह पाखण्डी है, उसका योग सिद्ध नही हो सकता। वह केवल पाखण्ड करके लोगो को प्रसन्न करना जानता है।
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ग्यांन सरीषा गुरु न मिलिया, चित सरीषा चेला।१।
मन सरीषा मेलू न मिलिया, तीथै गोरष फिरै अकेला।२।
महायोगी गोरख कहते है की निज अनुभव से प्राप्त ज्ञान के सदृश दूसरा पूर्ण गुरु नहीं मिला, इस ज्ञान को ग्रहण करने वाला चित के समान कोई चेला नही मिला और मन के समान परमात्मा से मेल मिलाप कराने वाला नही मिला। इसलिए गोरखनाथ ज्ञान, चित और मन से क्रमश: गुरु, चेला और साथी का काम लेते हुए, असंग विचरण करते है और अपने स्वरुप मे स्थित रहते है।
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ज्यूं ज्यूं भुयंगम आवै जाइ, सुरही घरि नहीं गरड़ रहाइ।१।
तब लग सिध दुर्लभ जोग, तोयं अहार बिन व्यापै रोग।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब तक इडा - पिंगला से सर्प (श्वासा) आती जाती रहती है, तब तक योग सिद्ध नही होता। क्योंकी सुषुम्ना मार्ग रुपी गरुड़ से ही इस स्वास रुपी सर्प को नियंत्रित किया जा सकता है। जब तक सुषुम्ना द्वारा श्वास का निरोध नही होता, तब तक सिद्ध योग दुर्लभ है, क्योंकी जल (वीर्य) का आहार किए बिना शरीर में रोग व्यापता है यानी साधक प्राणायाम की चरम सिद्धि द्वारा उध्र्वरेता होकर ही योग की सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
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इकटी बिकुटी त्रिकुटी संधि, पछिम द्वारे पवनां बंधि।१।
षूटै तेल न बूझै दीया, बोलै नाथ निरंतरि हूवा।२।
महायोगी गोरख कहते है की इकटी ( पहली, इड़ा) और बिकुटी (दूसरी, पिंगला) का जब त्रिकुटी (तीसरी, सुषुम्ना) में मेल होता है और सुषुम्ना मार्ग में जब पवन का निरोध हो जाता है, तब साधक अमर हो जाता है। उसका आयु रुपी तेल समाप्त नही होता व जीवन रुपी शिखा बुझती नहीं है। इस प्रकार गोरखनाथ कहते है कि साधक निरन्तर अर्थात नित्य हो जाता है
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छत्र पवन निरंतर रहै, छीजै काया पंजरा रहै।१।
मन पवन चंचल निजि गहिया, बोलै नाथ निरंतरि रहिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की छत्र पवन जब भेद रहित निरन्तर अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब काया क्षीण होती जाती है यानी शरीर मे व्याप्त दस वायु प्राण,अपान,समान व्यान,उदान आदि का मूल स्वरुप छत्र पवन है, इसके निरन्तर व्यवस्थित संचालन से काया बिल्कुल निर्मल होकर पिंजरा मात्र रह जाती है। इस प्रकार स्थिर वायु के प्रभाव से मन व चंचल इन्द्रिया नियंत्रित होकर अनुकूल हो जाती है। नाथ जी का कथन है की इस प्रकार की रहणी मे निरन्तर रहने से ही रहणी सिद्ध होती है और शरीर काल के पाश से बचा रहता है।
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सूर माहि चंद चंद माहिं सूर, चपंपि तीनि तेहुड़ा बाजल तूर।१।
भणन्त गोरषनाथ एक पद पूरा, भाजंत भौंदू साधंति सूरा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब सूर्य (पिंगला नाड़ी) और चन्द्र ( इड़ा नाड़ी) द्वारा पद्दस्थ सूर्य का सहस्त्रारस्थ चन्द्रमा से मेल हो जाता है तो सत, रज, तम ये तीनो दबा लिये जाते है यानी साधक का चित सत, रज, तम की वृतियो मे चंचल नही होता है। तब अनाहत रुपी तूर बजता है जो साधक को सिद्ध पद प्रदान करता है। इस प्रकार गोरखनाथ जी उस पूर्ण पद का वर्णन करते है जिसे कोई शूर साधक ही प्राप्त करता है, मूढ़ लोग तो इसे प्राप्त किए बिना ही परम के मार्ग को त्याग कर भाग जाते है।
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नाद बिंद बजाइले दोऊ, पूरिले अनहद बाजा।१।
एकंतिका बासा सोधि ले भरथरी, कहै गोरष मछिंद्र का दासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की नाद और बिंदु दोनो को बजा लो यानी इनको साध लो, अनहद रुपी बाजे से परम संगीत की ध्वनी को सुनो। हे भरथरी! एकांत का वास सिद्ध कर ले, यह मछन्दर के दास (शिष्य) गोरख का उपदेश है।
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बैसंत पूरा रमंति सूरा, एकरसि राषंति काया।१।
अंतरि एकरसि देषिबा, बिचरंति गोरषराया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिन योगियो ने शिव को पा लिया, वे पूरे सिद्ध है। उनको पाने के लिए कुछ शेष नही रहता, वे स्थिर भाव से परम अवस्था मे टिक जाते है। जो साहस पूर्वक साधना पथ के विघ्नो का सामना करते है और शरीर की एकरस अवस्था को प्राप्त करने के लिए विचरण करते है, वे वीर है। लेकिन गोरखनाथ जी का कथन है कि वे तो अंतर की एकरस अवस्था को प्राप्त करके यानी परमसत्य को जानकर ही विचरण कर रहे है।
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दरवेस सोइ जो दरकी जांणै, पंचे पवन अनूठां आणै।१।
सदा सुचेत रहै दिन राति, सो दरबेस अलह की जाति।२।
महायोगी गोरख कहते है की दरवेश वह है जो परमात्म पद को जानता है, जिसे ब्रह्मरंध का ज्ञान है। वह पवन (श्वास क्रिया) के द्वारा पाँचो इन्द्रियो को विषयो से वापिस हटा लेता है। विषय सुख से विरक्त होकर वह दिन रात सावधान रहता है यानी उसकी निरन्तर योग की अवस्था रहती है। ऐसा दरवेश स्वयं ब्रह्मस्वरुप हो जाता है।
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नाद नाद सब कोइ कहै, नादहिं ले को बिरला रहै।१।
नाद बिंद है फीकीसिला, जिहिं साध्या ते सिधै मिला।२।
महायोगी गोरख कहते है की नाद नाद का कथन मात्र तो सबके लिए सुगम है, इसलिए बहुतेरे कहते रहते है। लेकिन नाद की साधना करते हुए नाद मे लीन तो कोई बिरला ही हो पाता है। सामान्य रुप से तो नाद - बिन्दु शुष्क पत्थर के समान है यानी स्थूल दृष्टि से तो यह काफी शुष्क विषय भासता है, लेकिन जिसने इसे साध लिया वह योगसिद्ध होकर अमृतत्व को प्राप्त करता है।
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मन मुषि जाता गुरमुषि लेहु, लोही मास अगनि मुषि देहु।१।
मात पिता की मेटौ घात, ऐसा होइ बुलावै नाथ।२।
महायोगी गोरख कहते है की मन की ओर जाती हुई (बहिर्मुखी) वृति को गुरु की ओर अभिमुख (यानी अंतर्मुखी) करो। रक्त और मांसमय काया को ब्रह्माग्नि में भस्म कर दो यानी योगयुक्त अवस्था प्राप्त करके इस शरीर के प्रति अनासक्त हो जाओ। माता - पिता की घात को मिटा डालो (यानी माता के रज व पिता के बिंदु से निर्मित इस शरीर को पूर्ण रुप से वश मे कर लो और र्निविकारी शारीरिक अवस्था द्वारा इसे शुद्ध करो)। जो ऐसा कर सके नाथ (परब्रह्य) उसे स्वयं अपने पास बुलाते है।
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एकाएकी सिध नांउ, दोइ रमति ते साधवा।१।
चारि पंच कुटुम्ब नांउ, दस बीस ते लसकरा।२।
महायोगी गोरख कहते है की एकाकी रहने वाले का नाम सिद्ध है। जब दो एक साथ रहते है तो वे साधु है। चार पाँच हो गये तो उन्हे कुटुम्ब समझना चाहिए और दस बीस हो गये तो सेना।
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एकलौ बीर दूसरौ धीर, तीसरौ षटपट चोथौ उपाध।१।
दस पंच तहाँ बाद विबाद।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो साधक एकाकी (अकेला) रहता है, वह वीर है। दो साधको के साथ होने का मतलब है वह धैर्यवान है। तीसरे के साथ आने पर खटपट शुरु हो जाती है। चौथे का संयोग हो जाने से उत्पात होने लगता है और जहाँ पाँच - दस इकटठे हो जाते है, वहाँ तो पूरा कलह ही उपस्थित हो जाता है।
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ऊभां बैठां सूतां लीजै, कबहूँ चित भंग न कीजै।१।
अनहद सबद गगन मै गाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरु लाजै।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी को गगन (सहस्त्रार) मे हो रहे अनाहत नाद के गर्जन पर ध्यान लगाना चाहिए। उठते, बैठते, सोते हर समय उस प्रणव नाद को सुनना चाहिए और चित को सदा वश मे रखना चाहिए। यदि ऐसी अवस्था से साधक निेन्तर नाद शब्द मे अवस्थित रहता है और फिर भी शरीर मृत्यु का ग्रास बन जाता है तो यह गुरु के लिए लज्जा की बात है।
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आवति पंचतत कूं मोहे जाती छैल जगावै।१।
गोरष पूछै बाबा मछिंद्र या न्यद्रा कहा थै आवै।२।
गगन मंडल मैं सुनि द्वारा, बिजली चमकै घोर अंधार।३।
ता महि न्यंद्रा आवै जाइ, पंच तत मैं रहै समाइ।૪।
महायोगी गोरखनाथ जी अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से पूछते है कि यह निद्रा क्या है, जिसके आने पर पांचो तत्व संज्ञा शून्य हो जाते है और जाते हुए यह चेतना को जगा देती है। यह निद्रा कहाँ से आती है??
मत्स्येन्द्रनाथ उनको बताते है की गगन मंडल (सहस्त्रार) में शून्य द्वार (ब्रह्मरंध) है, जहाँ घोर अन्धकार है। वहा बारम्बार बिजली के समान परमचेतना चमकती है। उसी मे से नींद आती जाती है और पंच तत्व (शरीर) मे समा जाती है।
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बाहरि न भीतरि नेड़ा न दूर, षोजत रहे ब्रह्मा अरु सूर।१।
सेत फटक मनि हीरै बीधा, इहि परमारथ श्रीगोरष सीधा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिस अात्म - परमात्म तत्व की खोज होती रही (जिसका भेद न पाया जा सका), वह न तो बाहर है और न ही भीतर है, न निकट है और न ही दूर है। गोरखनाथ कहते है की उन्होने आत्मा रुपी स्फटिक मणि से परमात्मा रुपी हीरे का भेदन किया यानी आत्मा के रहस्य को जानकर ब्रह्म साक्षात्कार कर लिया। इसी परम तत्व से उन्हे योग सिद्धि प्राप्त हुई।
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दाबी न मारिबा षाली न राषिबा, जांनिबा अगनि का भेवं।१।
बूढ़ी हींथै गुरबानी होइगी, सतिसति भाषंत श्रीगोरष देवं।२।
महायोगी गोरख कहते है की मन का दमन नही करना चाहिए, लेकिन उसे बिल्कुल खाली भी नही छोड़ देना चाहिए। उससे अग्नि ( ब्रह्मग्नि या योगाग्नि ) का भेद भी जानना चाहिए यानी उसे अभ्यास मे तत्पर रख कर बिन्दु को ऊध्र्वगामी करके संयमित प्राण द्वारा योगाग्नि को जागृत करना चाहिए। इससे आदि माया जो सामान्यता बंधन में डालने वाली होती है, वही मुक्त करने वाली गुरुआनी हो जायेगी। ( माया का द्वैत स्वरुप है अविधा रुप में वह जीव को बंधन मे डालती है और ज्ञान रुप में वही मोक्षदायनी है)। यह गोरखनाथ का सत्य वचन है।
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कै मन रहै आसा पास, कै मन रहै परम उदास।१।
कै मन रहै गुरु के ओलै, कै मन रहै कांमनि के षोलै।२।
महायोगी गोरख कहते है की मन बड़ा चंचल है, इसका निरालम्ब रहना दु:साध्य है। कभी यह इस जगत की आशा के फंदे में बँधा रहता है, कभी परम उदास यानी विरक्त अवस्था मे रहता है। कभी यह मन कामिनी की रति में आसक्त हो जाता है तो कभी गुरु की शरण मे रहता है। महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की इस शब्दी का सार भाव यह है की जब कोई जगत से कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा रखता है तो वह कंचन - कामिनी के मोह पाश मे बंधकर पतन को प्राप्त होता है। लेकिन जब साधक गुरु की शरण मे रहता है तो उसको परम विरक्त अवस्था की प्राप्ति होती है, जिससे परमात्मा का साक्षात्कार सम्भव हो पाता है।
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नींझर झरणैं अमीरस पीवणां, षटदल वेध्या जाइ।१।
चंद बिहूंणां चांदिणां तहां देष्या श्रीगोरषराइ।२।
महायोगी गोरख कहते है की मैने छ: चक्रो का भेदन करके सहस्त्रार रुपी झरने से निरन्तर बहने वाले अमृत रस का पान किया। उस अवस्था मे जाकर गोरखनाथ जी ने चन्द्रमा के बिना प्रकाश को देखा अर्थात स्वत: प्रकाशित अकारण परब्रह्म का दर्शन किया।
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घटि घटि सूण्यां ग्यांन न होइ, बनि बनि चंदन रुष न कोइ।१।
रतन रिधि कवन कै होइ, ये तत बूझै बिरला कोई।२।
महायोगी गोरख कहते है की अलग अलग जगहो से सुने गये बहुत सारे ज्ञान से कोई ज्ञानी नही हो जाता (धारणा ही सार है)। जैसे प्रत्येक वन मे चंदन का वृक्ष नही होता है वैसे ही तथाकथित ज्ञानियो से परे सच्चा ज्ञानी कोई विरला ही होता है। फिर गोरखनाथ जी कहते है की रत्नमयी ऋद्धि यानी परम तत्व की प्राप्ति कैसे व किसको होती है? इस तत्व का भेद कोई बिरला ही जान पाता है।
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ऊरम धरम ज्वाला जोति, सुरजि कला न छीपै छोति।१।
कंचन कवल किरणि परसाइ, जल मल दुरगंध सर्ब सुषाइ।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब ज्योति (योगअग्नि या कुण्डलिनी शक्ति) पूर्ण प्रज्वलित हो उठती है तो उसका आध्यात्मिक तेज वैसे ही सबके सामने प्रकट हो जाता है जैसे सूरज की कलाएँ प्रकट हो जाती है, छत उसको छुपा नही पाती है। फिर उस ज्योति का तेज कंचन कवल यानी सहस्त्रार को स्पर्श करने लगता है। तब वह ज्योति मायामय बिंदु प्रधान जल प्रकृति, दुर्गन्ध (विकर्मो रुपी मल दोष) आदि सब को सोख लेती है।
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आकास तत सदा सिव जांण, तसि अभिअंतरि पद निरबांण।१।
प्यंडे परचांने गुरमुषि जोइ, बाहुडि आबा गवन न होइ।२।
महायोगी गोरख कहते है की आकाश तत्व ( पंच भूतो वाला आकाश तत्व नही) यानी शून्य मंडल को सदाशिव यानी पूर्ण ब्रह्म जानो। उसी मे निर्वाण पद व्यापता है। जो कोई गुरु की शरणागति होकर, गुरु वचनो की पालना करता है, उसको इसी शरीर में उसका परचा यानी परिचय मिल जाता है। जिससे फिर बार बार आवागमन नही होता।
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पढ़ि देखी पंडिता ब्रह्म गियांनं, मूवा मुकति बैकुंठा थांनं।१।
गाड्या जाल्या चौरासी मै जाइ, सतिसति भाषंत श्री गोरषराई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे पंडित! ब्रह्मज्ञान भी पढ़ के देखो यानी बाहरी ज्ञान की बहुत पोथी पढ़ चुके, अब निज अनुभव से ब्रह्म को जानो, क्योकी इसके बिना सब झूठा है। तथाकथित ज्ञानी कहते है की मरने के बाद मुक्ति हो जाती है और ऐसा मानते है की उसको बैकुंठ में स्थान मिल जाता है। लेकिन वस्तुत: तो वह गड्ढे मे पड़ने जैसा है जिससे चौरासी का चक्कर फिर शुरु हो जाता है।(क्योंकी अगर मुक्ति होगी तो यही इसी देह मे रहते जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त होने पर ही होेगी)। यह गोरखनाथ का सत्य वचन है।
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चालिबा पंथा कै सींबा कंथा, धरिबा ध्यानं कै कथिबा ग्यांनं।१।
एकाएकी सिध कै संग, बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भंग।२।
महायोगी गोरख कहते है की या तो मार्ग मे चलते रहना चाहिए या कंथा सीते रहना चाहिए। ध्यान धरे रहना चाहिए या ज्ञानोपदेश करते रहना चाहिए। इस प्रकार एकाकी रहने से अथवा सिद्ध की संगति में रहने से मनोभंग नही होता।
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अवधू मांस भषंत दया धरम का नास, मद पीवत तहा प्रांण निरास।१।
भांगि भषंत ग्यान ध्यान षोवत, जम दरबारी ते प्राणी रोवत।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूतो! माँस खाने से दया धर्म का नाश होता है, मदिरा पीने से प्राण में नैराश्य छाता है, भांग का प्रयोग करने से ज्ञान - ध्यान खो जाता है और ऐसे प्राणी फिर यम के दरबार मे रोते है।
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चलंत पंथा तूटंत कंथा उडंत षेहा बिचलंत देहा।१।
छूटंत ताली हरि सूं नेहा।२।
पंथि चले चलि पवनां तूटै नाद बिंद अरु बाई।३।
घट हीं भींतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भाई।૪।
महायोगी गोरख कहते है की मार्ग मे चलते रहने से कंथा टूटती है यानी कपड़ा फटता है, काया छीजती है और शरीर विचलित होता है। इससे भगवत भक्ति मे भंग पड़ता है और समाधि टूट जाती है। रास्ता चलते रहने से पवन टूटता है जिसके कारण नाद, बिंदु और वायु में व्यतिक्रम हो जाता है। गोरखनाथ जी कहते है की सभी 68 तीर्थ तो तेरे शरीर के भीतर ही है। हे भाई! बाहर कहाँ भ्रमण करता भटकता है।
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अधिक तत ते गुरु बेलिये, हींण तत ते चेला।१।
मन मांनै तौ संगि रमौ, नही तौ रमौ अकेला।२।
महायोगी गोरख कहते है की पूर्ण तत्व की समझ रखने वाला ही गुरु कहलाता है, जबकी हीन (अल्प) तत्व का ज्ञान जिसे है वह चेला कहलाता है। यानी अल्प तत्व बोध वाले को अधिक तत्व बोध वाले से हमेशा ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। ज्ञान प्राप्त करने के बाद शिष्य के लिए यह बाध्य नही है की वह स्थूल रुप से गुरु के साथ रहे। वह चाहे तो गुरु के संग रहे और चाहे तो अकेला रमण करे।
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थांन मांन गुरु ग्यान, बेधां बोध सिधां परग्राम।१।
चेतनि बाला भ्रम न बहै, नाथ की कृपा अषंडित रहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो गुरु के ज्ञान को ग्रहण कर, अटल स्थिति मे स्थित होकर मान प्राप्त करता है। जिन्होने कुण्डली को बेध दिया है उनसे वह बोध प्राप्त करता है, सिद्धो से निर्लिप्तता ग्रहण करता है जैसे की वह किसी दूसरे स्थान का है यहाँ से कोई सम्बन्ध ही नही है। वह चेतन स्वरुप गुरु का बालक भ्रम में नही बहता, क्योंकी उस पर गुरु की अखंडित कृपा रहती है।
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उगवंत सूर पत्र पूर, काल कंटक जाइ दूर।१।
नाथ का भंडार भरपूर, रिजक रोजी सदा हजूर।२।
महायोगी गोरख कहते है की सूर्य के उदय (ब्रह्म साक्षात्कार) होने पर काल रुपी कंटक दूर हो जाता है। साधक को अपने से सम्बन्धित कोई चिन्ता नही रहती है। नाथ का भंडार सदा ही भरा है, वह सबके लिए प्रतिदिन का भोजन प्रस्तुत कर देते है।
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सोवत आडां ऊभां ठाढ़ां, अगनी ब्यंद न बाई।१।
निश्चल आसन पवनां ध्यानं, अगनीं ब्यंद न जाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की तिरछे सोते, सीधे खड़े रहते (अर्थात सामान्य अवस्थाओं में) अग्नि, बिन्दु और वायु की रक्षा नहीं की जा सकती, किन्तु जब आसन, पवन और ध्यान ये तीन चीजें निश्चल हो जाती हैं, तब अग्नि और बिन्दु नष्ट नही होते है।
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स्वामी काची बाई काचा जिंद, काची काया काचा बिंद।१।
क्यंकरि पाकै क्यूंकरि सीझै, काची अगनीं नीर न षीजै।२।
तोै देबी पाकी बाई पाका जिंद, पाकी काया पाका बिंद।३।
ब्रह्म अगनि अंषडित बलै, पाका अगनी नीर परजलै।૪।
महायोगी गोरख से सवाल किया गया की हे स्वामी! वायु कच्चा है, जीवन कच्चा है, शरीर कच्चा है और बिंदु (शुक्र) भी कच्चा है। ये किस प्रकार पक्के हो सकते है, किस प्रकार सिद्ध हो सकते है?? (क्योकी योगाग्नि के सिद्ध हुए बिना) कच्ची अग्नि से नीर पक नहीं सकता।
महायोगी गोरख फिर कहते है की हे देवी! वायु, जीवन, शरीर और बिन्दु तब पक्के होते है जब ब्रह्मग्नि अखंडित रुप से जलने लगती है। इस प्रकार ब्रह्माग्नि या योगाग्नि के सिद्ध होने से जलमयी प्रकृति जल उठती है।
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आओ देवी बैसो, द्वादिस अंगुल पैसो।१।
पैसत पैसत होइ सुष, तब जनम मरन का जाइ दुष।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे देवी (कुंडलिनी शक्ति) आओ बैठो, द्वादशांगुल प्राणवायु अर्थात उसको वहन करने वाली प्रमुख सुषुम्ना में प्रविष्ट हो जाओ। प्रविष्ट होते होते सुख प्राप्त होगा और जन्म मरण का भय भाग जायेगा।
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अवधू मन चंगा तौ कठौती ही गंगा, बांध्या मेल्हा तौ जगत्र चेला।१।
बंदत गोरष सति सरुप, तत बिचारै ते रेष न रुप।१।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! अगर मन शुद्ध है तो जहा आप है वही गंगा है यानी जो फल हम गंगा जल से प्राप्त करने का विचार रखते है, वे मन की शुद्धता से स्वयं प्राप्त हो जाते है। यदि आप माया के बंधन में पड़े मन को मुक्त कर लेते हो तो सारा जगत ही चेले के समान हो जायेगा। गोरखनाथ जी सत्य स्वरुप का वर्णन करते है की जो उस तत्व का विचार करेंगे, वे रुप व रेखा यानी स्थूलता से रहित हो जायेंगे।
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यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा, गोरष कहै ते पर्तषि चूहड़ा।१।
काछ का जती मुष का सती, सो सत पुरुष उतमो कथी।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो जननेन्द्रिय के सम्बन्ध में असंयत ढीले ढाले है, जिह्वा से फुहड़ बातें करते है, वे ही प्रत्यक्ष भंगी है। (गोरखनाथ जी संकेत दे रहे है की जाति से कोई बड़ा या छोटा नही होता। उसकी रहणी व करणी ही उसे छोटा या बड़ा बनाती है।) जबकी लंगोट का पक्का यानी संयम रखने वाला, मुख का सच्चा यानी सत्य वचन कहने वाला सत्पुरुष ही उतम कहा जाता है।
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गुरु की बाचा षोजै नांही, अंहकारी अंहकार करै।१।
षोजी जीवै षोजी गुरु कौ, अहंकारी का प्यंड परै।२।
महायोगी गोरख कहते है की अंहकारी अपने अंहकार के वश होकर गुरु द्वारा प्रदत ज्ञान की खोज नही करता है या गुरु के वचनो की पालना नही करता। जबकी खोज करने वाला योग्य गुरु को प्राप्त करके स्व मे अपने गुरु को जीता है यानी उनके द्वारा दिये गए ज्ञान पर अंनुसंधान कर उसे धारण करता है। इस प्रकार वह अमरता को प्राप्त करता है जबकी अंहकारी का शरीरपात हो जाता है।
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अवधू बूझना ते भूलना नही, अनबूझ मग हारै।१।
सूंने जंगल भटकत फिरहीं, मारि लिहीं बटमारै।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! जिसने सार को समझ लिया वह फिर उसको भूलता नही है। किन्तु जो समझ नही पाते वे मार्ग से भटक जाते है, सूने जंगल मे भटकते फिरते है यानी दुनियावी प्रपंच मे फंस जाते है और वहाँ उन्हे ठग (विकार) मार डालते है।
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साच का सबद सोना का रेख, निगुरां कौ चाणक सगुरा कौ उपदेश।१।
गुरु का मुंड्या गुंण मै रहै, निगुरा भ्रमै अौगुण गहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की सत्य वचन का उपदेश सोने की रेखा के समान है जो सब कसौटियो पर खरा उतरता है। किन्तु इस सत्य शब्द का उपदेश वही प्राप्त कर पाता है जिसने योग्य गुरु को धारण किया है। गुरुहीन तो चालबाजी ही करते है, क्योंकी बिना समर्थ गुरु के ज्ञान होता नही, फिर वे धोखे से स्वयं को सिद्ध बताने का प्रयास करते है। जिसे गुरु ने मुंड कर चेला बना लिया है यानी जो गुरु शरण मे आ गया है वह गुण ग्रहण करता है। जिसने गुरु की शरण नही ली वह भ्रम मे पड़कर अवगुणो को प्राप्त करता है।
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पवन हीं जोग पवन हीं भोग, पवन ही हरै छतीसौ रोग।१।
या पवन कोई जांणै भेव, सो आपै करता आपैं देव।२।
महायोगी गोरख कहते है की पवन का आधार लेकर ही योगी योग साधता है, पवन ही भोग का कारक बनता है, यही पवन छतीसों (सभी) रोगों का हरण करता है। इस पवन का भेद कोई बिरले ही जानते है, लेकिन जो जानते है वह आप ही ब्रह्मा है और आप ही ब्रह्म।
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षांये भीं मरिये अणषांये भी मरिये, गोरष कहै पूता संजंमि हीं तरिये।१।
मधि निरंतर कीजै बास, निहचल मनुवा थिर होइ सास।२।
महायोगी गोरख कहते है की खाना भी मौत है और बिल्कुल न खाना भी मौत है। गोरखनाथ कह रहे है की हे पुत्र! इन दोनो से संयम करने मे ही मुक्ति हो सकती है। इसलिए निरन्तर इनके बीच (मध्यम) की रहनी मे रहना चाहिए, जिससे मन निश्चल हो और श्वास स्थिर हो।
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भरि भरि षाइ ढ़रि ढ़रि जाइ, जोग नहीं पूता बड़ी बलाइ।१।
संजम होइ बाइ संग्रहौ, इस विधि अकल पुरिस कौ गहौ।२।
महायोगी गोरख कहते है की पेट भर भर कर खाने से बिंदु क्षरित होता है। उस दशा में योग संभव नही होता बल्कि योग बला हो जाता है। संयम धारण कर वायु का संग्रह करना चाहिए, उसे नष्ट होने से बचाना चाहिए। इस प्रकार कला रहित अर्थात परिवर्तन विहीन परमात्मा (पुरुष) को ग्रहण (प्राप्त) करना चाहिए।
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अवधू ईश्वर हमारै चेला भणींजै, मछींद्र बोलिये नाती।१।
निगुरी पिरथी परलै जाती, हम उल्टी थापना थापी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शिव हमारे चेले है, मत्स्येन्द्रनाथ नाती चेला यानी चेले का चेला। हमें स्वयं गुरु धारण करने की आवश्यकता नही थी। क्योंकी हम साक्षात परमात्मा है। किंतु इस डर से की कही हमारा अनुकरण कर अज्ञानी लोग बिना गुरु के ही योगी होने का दंभ न भरने लगें, हमने मत्स्येन्द्रनाथ को गुरु बनाया। जो वस्तुतः उल्टी स्थापना अथवा क्रम है। यदि हम ऐसा न करते तो गुरुहीन पृथ्वी प्रलय में चली जाती अर्थात नष्ट हो जाती।
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जिभ्या स्वाद तत तन षोजै, हेला करै गुरु बाचा।१।
अगनि बिहूँणां बंध न लागै, ढलकि जाइ रस काचा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो शरीर में जिह्वा स्वाद के रुप में तत्व की खोज करता है और इस प्रकार गुरु वचन की अवहेलना करता है। उसके शरीर का रस योगाग्नि के अभाव के कारण बँधता नही है, और कच्चा रह जाने के कारण ढलक (स्खलित हो) जाता है।
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बजरी करंतां अमरी राषै, अमरि करंतां बाई।१।
भोग करंतां जै ब्यंद राषै, ते गोरष का गुरुभाई।२।
भग मुषि ब्यद अगनि मुषिपारा, जो राषै सो गुरु हमारा।३।
महायोगी गोरख कहते है की बज्रोली करते हुए जो अमरोली की रक्षा करे, अमरोली करते हुए वायु की रक्षा करे, और भोग करते हुए बिन्दु (रेतस्) की रक्षा करे। वह गोरख का भाई अर्थात गोरख के समकक्ष सिद्धिवाला है। योनी मुख में जो बिंदु की रक्षा करे तथा अग्नि के ऊपर पारे की रक्षा करे, वह हमारा गुरु है। (जिस प्रकार अग्नि के ताप में पारद की रक्षा करना कठिन है, ऐसा ही योनी मुख मे शुक्र की भी है)। योगी की यह कठिन परीक्षा है।
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अवधू षारै षिरै षाटै झरै मीठै उपजै रोग।१।
गोरष कहै सुणौ रे अवधू, अंनै पांणीं जोगं।२।
महायोगी गोरख कहते है की नमकीन से शुक्र नष्ट होता है, खट्टे से झरता है। मीठे से रोग पैदा होता है। इसलिए गोरखनाथ कहते है की हे अवधूत! सुनो, योग केवल अन्न पानी के ही व्यवहार से सिद्ध होता है यानी खट्टे व मीठे आदि स्वादो के पीछे योगी को नही जाना चाहिए।
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निसपती जोगी जानिबा कैसा, अगनी पांणीं लोहा मांनै जैसा।१।
राजा परजा संमि करि देष, तब जांनिबा जोगी निसपतिका भेष।२।
महायोगी गोरख कहते है की निष्पति प्राप्त योगी की क्या पहचान है? अग्नि और पानी में जैसे लोहा शुद्ध होता है ( लोहा शुद्ध करने के लिए कई बार आग में गरम करके ठंडे पानी में बुझाया जाता है)। उसी प्रकार जब नाना कठोर साधनाओं के द्वारा योगी शुद्ध हो जाए तथा राजा प्रजा में जब योगी की समदृष्टि हो जाए, तब समझना चाहिए कि उसे निष्पति का वेश प्राप्त हुआ है।
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परचय जोगी उनमन षेला, अहनिसि इंछया करै देवता स्यूं मेला।१।
षिन षिन जोगी नांनां रुप, तब जांनिबा जोगी परचय सरुप।२।
महायोगी गोरख कहते है की परिचय जोगी वह है जो उन्मन समाधि में क्रिड़ा करता है, लीन रहता है। रात दिन इच्छानुसार देवता (परब्रह्म) का समागम करता रहता है और क्षण क्षण में (अणिमादि सिद्धियों के द्वारा इच्छानुसार) नाना रुप धारण कर सकता है। तब जानना चाहिए कि योगी को स्वरुप का परिचय हो गया है।
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घट हीं रहिबा मन नजाई दूर, अह निस पीवै जोगी बारूणीं सूर।१।
स्वाद बिस्वाद बाई काल छींन, तब जांनिबा जोगी घट का लछीन।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब योगी अपने ही शरीर में रहता हो, मन दूर न जाता हो, तब वह शूर (योगी) रात दिन (अमर) वारुणी का पान करता है। जब सुख (स्वाद), दुख (विस्वाद) तथा काल, केवल कुम्भक के सिद्ध होने से वायु द्वारा क्षीण हो गये हो, तब जानना चाहिए कि जोगी में 'घट' दशा के लक्षण आ गये हैं।
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आंरम्भ जोगी कथीला एकसार, षिण षिण जोगी करै सरीर विचार।१।
तलबल ब्यंद धरिबा एक तोल, तब जांणिबा जोगी आरंभ का बोल।२।
महायोगी गोरख कहते है की आरम्भ योगी वह कहलाता है जो एकसार अर्थात निश्चल एक रस रहे और क्षण क्षण शरीर पर विचार करता रहे और शरीर में पूरे (सिरे तक) भरे हुए शुक्र की समत्व (एक तोल) रुप से रक्षा करे। तब समझना चाहिए कि योगी पर घट अवस्था के लिए कहे गये वचन लक्षण घट जाते है
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उनमन जोगी दसवैं द्वार, नाद ब्यंद ले धूंधूंकार।१।
दसवे द्वारे देइ कपाट, गोरख षोजी औरै बाट।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी दशमद्वार (ब्रह्मरंध) में समाधिस्थ होता है और नाद व बिन्दु के मेल से धूधूकार अर्थात महाशब्द अनाहतनाद को सुनता है। लेकिन गोरखनाथ ने दशमद्वार को भी बन्द कर और ही बाट से परब्रह्म की खोज की। (गोरखनाथ जी यहा बाह्म बातो में न पड़ सूक्ष्म विचार की व चिंतन की आवश्यकता की ओर संकेत कर रहे है)
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पंडित ग्यांन मरौ क्या झूझि, औरै लेहु परमपद बूझि।१।
आसण पवन उपद्रह करैं, निसिदिन आरम्भ पचि पचि मरैं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे खंडित ज्ञानियो! तुम बाहरी बातो से युद्ध करते हुए क्यों पच मरते हो, इनसे तब तक कुछ लाभ नहीं होगा जब तक तुम वास्तविक आभ्यंतर ज्ञान अर्थात परमपद की ओर न जाओगे। वह परमपद इनसे भिन्न है, आधारभूत सूक्ष्म ज्ञान के बिना तुम आसन, प्राणायाम तथा अन्य उपद्रव करते हो। रात दिन पच मरने पर भी इनके द्वारा आरम्भ अवस्था से आगे बढ़ा नहीं जा सकता।
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नव नाडी बहोतरि कोठा, ए अष्टांग सब झूठा।१।
कूंची ताली सुषमन करै, उलटि जिभ्या ले तालू धरै।२।
महायोगी गोरख कहते है की शरीर में इतनी नाड़िया, इतने कोठे है आदि आदि अष्टांग योग का सब बाह्म ज्ञान झूठा है। वास्तविकता तो केवल आभ्यंतर अनुभूति है। सुषुम्ना के द्वारा ताले पर कुंजी करे अर्थात ब्रह्मरंध का भेदन करें और जिह्वा को उलट कर तालु मूल में रखे, जिससे सहस्त्रार स्थित चंद्र से स्त्रवित होने वाले अमृत का आस्वादन होगा।
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अगम अगोचर रहै निहकांम, भंवर गुफा नांही बिसराम।१।
जुगति न जांणै जागैं राति, मन कांहू कै न आवै हाथि।२।
महायोगी गोरख कहते है की अगम - अगोचर परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए निष्काम रहना चाहिए। किन्तु लोग भ्रमर गुफा (ब्रह्मरंध) में तो निवास करते नहीं, योग की युक्ति का वास्तविक ज्ञान है नही, वे केवल रात में जागते रहते है। इसलिए मन किसी के हाथ नही आता यानी वश में नही होता।
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पेट कि अगनि बिबरजित, दिष्टि की अगनि षाया।१।
यांन गुरु का आगैं ही होता, पणि बिरलै अवधू पाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की मैंने पेट की अग्नि (जठराग्नि) से खाना वर्जित कर, आँख (तिसरे नेत्र या ज्ञान चक्षु) की अग्नि से खाया यानी ज्ञान दृष्टि से माया का भक्षण किया। यह गुरु का ज्ञान तो पहले भी उपलब्ध रहा था किन्तु किसी बिरले ही अवधूत ने उसे प्राप्त किया।
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षरतर पवनां रहै निरंतरि, महारस सीझै काया अभिअंतरि।१।
गोरख कहै अम्हे चंचल ग्रहिया, सिव सक्ति ले निज घरि रहिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब तीक्ष्ण पवन निरन्तर रहता है, उसकी चंचलता छूट जाती है तब शरीर के भीतर महारस सिद्ध होता है। गोरखनाथ कहते है की हमने चंचल मन को पकड़ लिया है और शिव - शक्ति का मेल करके अपने घर में रहने लगे अर्थात निज स्वरुप में पहुँच गये।
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सबद बिन्दौ अवधू सबद बिन्दौ, सबदे सीझंत काया।१।
निनांणवै कोडि राजा मस्तक मुडाइले, परजा का अंत न पाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो। शब्द से ही शरीर सिद्ध होता है। इसी शब्द को प्राप्त करने के लिए निनाणवे करोड़ राजा चेले हो गयें और प्रजा में से कितने हुए इसका तो अंत ही नही मिलता।
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तूटी डोरी रस कस बहै, उनमनि लागा अस्थिर रहै।१।
उनमनि लागा होइ अनंद, तूटी डोरी बिनसै कंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की डोरी (समाधी या लीनावस्था) के टूट जाने से सार वस्तु बह जाती है, नष्ट हो जाती है। उन्मनी समाधि के लगने से स्थिरता आती है और आनन्द होता है। लेकिन समाधि के टूटने से शरीर भी नष्ट हो जाता है।
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इक लष सींगणि नव लष बांन, बेध्या मींन गगन अस्थांन।१।
बेध्या मींन गगन कै साथ, सति सति भाषंत श्रीगोरखनाथ।२।
महायोगी गोरख कहते है की योग की साधना एक लाख शिंजिनियों (प्रत्यंचाओं) या धनुषों से नौ लाख बाण छूटने के समान है। उससे ब्रह्मरंधस्थ मीन ( तत्व का लक्ष्य) निश्चय बिंध गया। गोरखनाथ सत्य वचन कहते हैं की तत्व ज्ञान के साथ ब्रह्मरंध भी बेध दिया गया है यानी केवल ज्ञान प्राप्त नही हुआ है बल्कि उसमें स्थिरता भी आ गई है
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कोई न्यंदै कोई ब्यंदै, कोई करै हमारी आसा।१।
गोरष कहै सूणौ रे अवधू, यहु पंथ षरा उदासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की कोई हमारी निन्दा करता है, कोई बंदना करता है, कोई हमसे वरदान इत्यादि प्राप्त करने की आशा करता है। किन्तु गोरखनाथ कहते है की अवधूत, यह मार्ग जिस पर हम चल रहे है पूर्ण विरक्ति का है। हम निन्दा - प्रशंसा सबसे उदासीन रहते है, ये हमे प्रभावित नही कर सकते। हम इनसे सर्वथा निर्लेप है
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आसण दिढ़ अहार दिढ़, जे न्यंद्रा दिढ होई।१।
गोरष कहै सुणौ रे पूता, मरै न बूढ़ा होई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे शिष्यो! आसन, भोजन और निद्रा के नियमों में दृढ़ होने से योगी अजर - अमर हो जाता है। योगी का आसन अविचल, आहार अल्प और निद्रा सर्वथा क्षीण होनी चाहिए।
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सबद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ, थांन मांन सब धंधा।१।
आतमां मधे प्रमातमां दीसै, ज्यौ जल मधे चंदा।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो। स्थान (पद अथवा तीर्थ) को मान देना आदि क्रियाएँ सब धंधा है। शब्द की प्राप्ति से तुम जानोगे की आत्मा में परमात्मा वैसे ही दिखाई देता है जैसे जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है
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जल कै संजमि अटल अकास, अन कै संजमि जोति प्रकाश।१।
पवनां संजमि लागै बंद, ब्यंद कै संजमि थिरहवै कंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की जल के संयम से आकाश अटल होता है, ब्रह्मरंध में दृढ़ स्थिति होती है। अन्न के संयम से ज्योति प्रकाशमान होती है, पवन के संयम से बंद लगता है अर्थात नवद्वारे बंद हो जाते है और बिंदु (शुक्र) के संयम से शरीर स्थिर हो जाता है।
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हिरदा का भाव हाथ मै जाणिये, यहु कलि आई षोटी।१।
बदंत गोरष सुणौ रे अवधू, करवै होई सु निकसै टोटी।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह कलि बुरा युग है। इसमें लोगो के भाव अच्छे नहीं है, यह उनके कर्मो से पता चलता है। क्योंकी ह्रदय में जैसे भाव होते है, वैसे ही कर्म फिर हाथ से होते है। गोरखनाथ कहते है की हे अवधूत जो कुछ गडुवे में होगा, वही तो टोंटी से बाहर निकलेगा।
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मूरिष सभा न बैसिबा अवधू, पंडित सौ न करिब बादं।१।
राजा संग्रामे झूझ न करबा, हेलै न षोइबा नादं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! मूर्खो की सभा में नही बैठना चाहिए, पंडित से शास्त्रार्थ नहीं करना चाहिए ( उसका ज्ञानगर्व दूसरे प्रकार की मूर्खता है, वास्तविक ज्ञान उसे नही होता। अतएव ऐसे शास्त्रार्थ में पड़ना व्यर्थ समय को नष्ट करना है।) राजा से लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए। (राजा उस क्षेत्र में शूर नहीं है जिस क्षेत्र में साधक को शूर होना चाहिए। राजा के पास बाहुबल है किन्तु साधक के पास आत्मबल होना चाहिए। इसलिए दोनो में स्पर्धा का भाव हो नही सकता।) गोरखनाथ जी कहते है की लापरवाही से नाद को खोना नहीं चाहिए
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कहणि सुहेली रहणि दुहेली, बिन षायां गुड़ मींठा।१।
खाई हींग कसूर बषांणै, गोरष कहै सब झूठा।२।
महायोगी गोरख कहते है की कहनी से रहनी दुर्लभ है, बिना गुड़ खाये मुँह से 'मीठा' शब्द का उच्चारण मात्र कर देने से मीठे स्वाद का अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता, ऐसा अनुभवहीन व्यक्ति धोखे में पड़ा रह जाता है। उसको वास्तविकता की पहचान नही होती। खाता तो वह हींग है किन्तु कहता है कपूर। गोरखनाथ कहते है की यह सब झूठा अनुभव है।
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कहणि सुहेली रहणि दुहेली, कहणि रहणि बिन थोथी।१।
पढ्या गुंण्या सूबा बिलाई षाया, पंडित के हाथि रह गई पोथी।२।
महायोगी गोरख कहते है की कहना आसान होता है किन्तु उस कहने के अनुसार रहना कठिन, बिना रहनी के कहना किसी काम का नहीं ( खोखला या थोथा) है। तोता पढ़ - सुनकर कुछ शब्दों को दोहराना भर सीख सकता है, उसके अनुसार काम नही कर सकता, उनका अर्थ नही समझता। ऐसे ही अनुभवहीन पढ़े - गुने पंडित के हाथ में भी केवल पोथी रह जाती है, सारवस्तु उसके हाथ नही आती और परिणामतः वह काल का ग्रास हो जाता है।
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बास बासत तहां प्रगट्या षेलं, द्वादस अंगुल गगन घरि मेलं।१।
बदंत गोरख पूतां होइबा चिराई, न पडंत काया न जंम घरि जांई।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो ब्रह्म की सुबास से सुबासित रहता है अर्थात ब्रह्म की व्यापकता जिसे अनुभव हो जाती है, वहाँ उसके लिए ज्योति दर्शन का खेल प्रकट हो जाता है। द्वादश अंगुल अर्थात प्राणवायु (योगियों का कथन है कि प्राणवायु का निवास नासिका के बाहर भी बारह अंगुल तक है, इसी द्वादश अंगुल से प्राणवायु का अर्थ लिया गया है) को शून्य में प्रविष्ट करने से चिरायु प्राप्त होती है, शरीरपात नही होता और यम के प्रभाव में साधक नही जाता अर्थात मरण नही होता।
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सिव के संकेत बूझिलै सूरा, गगन अस्थांनि बाइलै तूरा।१।
मींमा के मारग रोपीलै भांणं, उलट्या फूल कली मैं आंणं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे शूर (साधक) ! सिद्ध के संकेत (सांकेतिक उपदेश) को समझो। शून्य स्थान में तुरी (अनाहत - नाद) बजाओ। चन्द्र के विरोधी भानू को मीन के मार्ग पर लगाओ अर्थात योग युक्ति से चन्द्रमा के सम्मुख करो, जिससे अमृत का रसास्वादन हो सके। गोरखनाथ कहते है की जिस प्रकार पानी के नीचे मछली का मार्ग ज्ञात नही होता, उसी प्रकार योग का मार्ग भी गुप्त रहता है। इसलिए इसे " मीन का मार्ग " भी कहा जाता है। इस मार्ग से फूल उलट कर फिर कली में बदल जायेगा, वृद्ध को बाल स्वरुप प्राप्त हो जायेगा
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चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा, पंच की मेटिबा आसा।१।
बदंत गोरष सति ते सूरिवां, उनमनि मन मैं बास।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे चेतन (जीव)! सचेत रहना चाहिए। आत्मा को रेतना नहीं चाहिए (दुख नही देना चाहिए)। पंचेंद्रियों से मिलने वाले झूठे सुख की आशा मिटा देनी चाहिए। गोरखनाथ कहते है कि वे सच्चे शूरवीर हैं जो उन्मनावस्था में लीन मन में निवास करते है।
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अंहकार तुटिबा निराकार फूटिबा, सोषीला गंग जमन का पानीं।१।
चंद सूरज दोऊ सनमुषि राषिला, कहो हो अवतू तहां की सहिनांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की अंहकार तोड़ना चाहिए, निराकार आत्मा को प्रस्फुटित करना चाहिए। (जैसे भू - पृष्ठ को तोड़कर अंकुर बाहर निकलता है उसी प्रकार अंहकार को तोड़कर आत्मा प्रस्फुटित होती हेै।) जहाँ गंगा (ईड़ा) - जमुना (पिंगला) का पानी सोख लिया गया (अर्थात दोनों का प्रभाव मिटाकर सुषुम्ना में मिला लिया गया) तथा चन्द्रमा (सहस्त्रारस्थ) और सूर्य (मूलाघारस्थ) दोनों का विरोधी स्वभाव मिटा कर सन्मुख कर दिया गया ताकि अमृत का स्त्राव नष्ट नहीं होने पाए। गोरखनाथ जी कहते है की हे अवधू! वहा की पहचान खोजो।
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ब्रह्मंड फूटिबा नगर सब लूटिबा, कोई न जांणवा भेवं।१।
बदंत गोरषनाथ प्यंड दर जब घेरिबा, तब पकड़िया पंच देवं।२।
महायोगी गोरख कहते है की ब्रह्मरंध मे कुंडलिनी प्रवेश से ब्रह्मांड फोड़ना चाहिए और शून्य रुप नगर को लूटना चाहिए, जिसका भेद कोई नही जानेगा। गोरखनाथ जी कहते है कि जब शरीर रुपी घर घेर लिया जाता है तभी पंच देव यानी पंचेन्द्रिय तथा उनका स्वामी मन पकड़ा जा सकता है।
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उदैन अस्त राति न दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन।१।
सोई निरंजन डाल न मूल, सब व्यापीक सुषम न अस्थूल।२।
महायोगी गोरख कहते है की उस परम अवस्था मे न उदय है, न अस्त, न रात न दिन, सारी चराचरमयी सृष्टि में कोई भिन्नता का भाव नही यानी सर्वेश और उनकी चर - अचर सृष्टि में कोई भेद भाव नही है। वही शुद्ध निरंजन ब्रह्म रह जाता है, मूल और शाखा यानी अधिष्ठान और नामरुपोपाधि का भेद नही रह जाता। वही सर्वव्यापी रह जाता है जो न सूक्ष्म है न ही स्थूल।
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निरति न सुरति जोगं न भोग, जुरा मरण नहीं तहाँ रोगं।१।
गोरष बोलै एकंकार, नही तहँ बाचा ओअंकार।२।
महायोगी गोरख कहते है की परमानुभव पद में न निरति है, न सुरति है; न योग है, न भोग, न वहाँ जरा (बुढ़ापा), न मृत्यु है और न रोग; न वहाँ वाणी है न ॐकार। गोरख कहते है कि वहाँ तो केवल एकाकार (कैवल्य) अवस्था है, किसी प्रकार का द्वैत ही नही है।
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बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट, नहीं रै पूता गुरु सौ भेट।१।
षड़ षड़ काया निरमल नेत, भई रे पूता गुरु सौ भेट।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिनके बड़े बड़े कूल्हे और मोटी तोंद होती है,उन्हे योग की युक्ति नही आती। समझना चाहिए कि उन्हे गुरु से भेंट नहीं हुई है, या उन्हे अच्छा योगी गुरु मिला ही नही है। अगर गुरु मिल भी गए तो शायद उनकी वास्तविक महिमा को उन्होने पहचाना ही नही, उनकी शिक्षा का लाभ उठाकर वे अधिकारी नही हो पाए है। यदि साधक का शरीर चरबी के बोझ से मुक्त है और उसके नासा रंध्र निर्मल, आँखे कांतिमय है तो समझना चाहिए की गुरु से भेट हो गयी है।
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भिष्या हमारी कामधेनि बोलिये, संसार हमारी वाड़ी।१।
गुरु परसादै भिष्या षाइबा, अंतिफालि न होइगी भारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की भिक्षा हमारी कामधेनु है, उसी से हमारी पूर्ण तृप्ति हो जाती है। यह सारा संसार भर हमारी खेती है, हम किसी एक जगह से नही बँधे रहते। किन्तु भिक्षा भी स्वयं अपने निमित नही माँगी जाती, अन्यथा योग भी माँगने खाने के पाखंडो में से एक हो जाय। भिक्षा मे जो कुछ प्राप्त होता है वह भी गुरु का है और उन्ही को अर्पण होता है। गुरु के प्रसाद स्वरुप भिक्षा भोजन करने से अतंकाल में कर्मो का बोझ नहीं सतावेगा।
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सुणि गुणवंता सुणि बुधिवंता, अनंत सिधा की बांणी।१।
सीस नवावत सत गुरु मिलिया, जागत रैंणि बिहाणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे - गुणवानो! सुनो, हे - बुद्धिमानो! सुनो, अनंत सिद्धो की वाणी सुनो। अनंत सिद्धो ने कहा है की सदगुरु के मिलने (उनके सान्धिय एवं मार्गदर्शन से) और उन्हे सिर झुकाने (मै का त्याग कर पूर्ण सर्मपण) से यह जगत रात्री (जीवन का कालचक्र), जागते जागते (ज्ञानमय अवस्था में) बीत जाती है। जीव अज्ञान की नींद नही सोता।
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नाद हमारै बावै कवन, नाद बजाया तूटै पवन।१।
अनहद सबद बाजता रहै, सिध संकेत श्री गोरष कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की कौन हमारे श्रृंगी नाद बजावै्? श्रृंगी नाद बजाने से तो श्वास टूटने लगता है। (वैसे इसकी आवश्यकता भी क्या है जब हमारे आभ्यंतर में अनाहत नाद निरंतर बजता रहता है)। श्रृंगीनाद बजे न बजे, अनाहत नाद निरंतर बजता रहे। श्री गोरखनाथ ऐसा सिद्ध संकेत करते है।
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उलटिया पवन षट चक्र बेधिया, तातै लोहै सोषिया पाणीं।१।
चंद सूर दोऊ निज घरि राष्या, ऐसा अलष बिनांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की प्राण वायु को उलट कर छहों चक्रों को बेध लिया। उससे तप्त लौह (ब्रह्मरंध) ने पानी (रेतस्) को सोख लिया। चन्द्रमा (इड़ा नाड़ी) और सूर्य (पिंगला) दोनों को अपने घर (सुषुम्णा) में रक्खा, मिमज्जित कर दिया। ऐसा (जो जोगी करे) वह स्वयं अलक्ष्य और विज्ञानी (ब्रह्म) हो जाता है।
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लाल बोलंती अम्हे पारि उतरिया, मूढ रहै उर वारं।१।
थिति बिहूंणां झूठा जोगी, ना तस वार न पारं।२।
नाथ जी कहते है की हम भव सागर से पार उतर गये। किन्तु मूढ़ संसारी लोग उसे पार नहीं कर सके, इसी किनारे रह गए। परन्तु जो बिना अवस्था के झूठे जोगी है (अस्थिर व चंचल है), वे मझदार ही मे डूब जाते है। उन्हे न वह किनारा मिलता है न यह किनारा पार होता है। उनका यह लोक भी नष्ट हो जाता है और उन्हे मोक्ष भी प्राप्त नही होता।
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संन्यासी सोई फरै सर्ब नास, गगन मंडल महि मांडै आस।१।
अनहद सूं मन उनमन रहै, तो संन्यासी अगम की कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की संन्यासी वह है जो सर्वस्व का न्यास (त्याग) कर देता है। केवल शून्य मंडल मे मिलने वाली ब्रह्मानुभूति की आशा लिए रहता है। अनाहत को सुनकर मन को निरन्तर उन्मनावस्था में लीन किए रहता है। वह सन्यासी स्वानुभव से अगम परब्रह्म का कथन करता है।
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जोगी सो जे मन जोगवै, बिन बिलाइत राज भोगवै।१।
कनक कांमनी त्यागे दोइ, सो जोगेस्वर निरभै होइ।२।
महायोगी गोरख कहते है की जोगी वह, जो मन की रक्षा करे और परम शून्य अर्थात ब्रह्मरंध में देश के बिना ब्रह्मनुभूतिमय बड़े राज्य का उपभोग करे। जो योगेश्वर कनक और कामिनी का त्याग कर देता है, वह निर्भय हो जाता है।
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न्यंद्रा कहै मैं अलिया बलिया, ब्रह्मां विष्न महादेव छलिया।१।
न्यंद्रा कहै हूँ षरी विगूती, जागै गोरष हूँ पड़ि सूती।२।
महायोगी गोरख बताते है, "निद्रा कहती है की मैं आल - जाल वाली (प्रपंचकारिणी) हूँ और बलवती हूँ। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तक को मैने छला है। किन्तु गोरखनाथ ने मेरा बहुत बुरा हाल कर दिया है। वह जागता है और मै पड़ी सो रही हूँ।
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ऊभा मारुं बैठा मारुं, मारुं जागत सूता।१।
तीनि लोक भग जाल पसारया, कहां जाइगौ पूता।२।
ऊभा षंडौ बैठा षंडौ, षंडौ जागत सूता।३।
तिहूं लोक तै रहूँ निरंतरि, तौ गोरख अवधूता।૪।
महायोगी गोरख बताते है की "काल की ललकार है कि मुझसे तुम बच नही सकते"। खड़े, बैठे, जागते, सोते, चाहे जिस दशा में रहो उसी दशा में मै तुम्हे मार सकता हूँ। तुम्हे पकड़ने के लिए मैंने तीनो लोको में योनी रुप जाल पसार रक्खा है। उससे बच कर तुम कहाँ जाओगे??
काल को सिद्ध योगी का दृढ़ उतर है - मै खड़ा, बैठा, सोता चाहे जिस अवस्था में होऊँ मेरा नाम अवधूत गोरख तब है, जब मै उसी अवस्था में तुम्हे (काल) खंडित कर तीनो लोको से परे हो जाऊँ। गोरख कहते है की अपने सुमिरन के प्रभाव से मै तीनो लोको से अलग होकर तुम्हारे प्रभाव से बाहर हो जाऊँगा।
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अधरा धरे विचारिया, घर या ही मै सोई।१।
धर अधर परचा हूवा, तब उती नाहीं कोई।२।
महायोगी गोरख कहते है की अधर (शून्य ब्रह्मरंध) में हमने ब्रह्मतत्व का विचार किया। अधर में तो वह है ही, इस धरा में भी वही है। मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक सर्वत्र उसकी स्थिति है। कही वह स्थूल रुप से है, कही सूक्ष्म रुप से है। जब धर अधर का परिचय हो जाता है, तब मूलस्थ कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रारस्थ शिव से परिचय हो जाता है। तब साधक के निज अनुभव ज्ञान से बाहर कुछ नही रह जाता।
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देवल जात्रां सुंनि जात्रा, तीरथ जात्रा पांणी।१।
अतीत जात्रा सुफल जात्रा, बोलै अंमृत बांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की देवालय की यात्रा शून्य यात्रा है, उससे कोई फल नहीं मिलता। तीर्थ की यात्रा से तो फल ही क्या मिलता है?? वह तो पानी की ही यात्रा ठहरी। सुफल यात्रा तो अतीत यात्रा है, साधु सन्तों के दर्शनों के लिए की जाने वाली यात्रा है, जो अमृतवाणी बोलते है। उनके सत्संग और उपदेश श्रवण से जो लाभ मिलता है, वह अन्य किसी यात्रा से सम्भव नही है।
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काजी मुलां कुरांण लगाया, ब्रह्म लगाया वेदं।१।
कापड़ी संन्यासी तीरथ भ्रमाया, न पाया नृवांण पद का भेवं।२।
महायोगी गोरख कहते है की काजी मुल्लाओं ने कुरान पढ़ा, ब्राह्मणों ने वेद, कापड़ी (गंगोतरी से गंगाजल लाने वाले) और सन्यासियों को तीर्थों ने भ्रम में डाल रक्खा है। इनमे से किसी ने निर्वाण पद का भेद नही पाया।
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अवधू काया हमारी नालि बोलिये, दारु बोलिये पवनं।१।
अगनि पलीता अनहद गरजै, ब्यंद गोला उड़ि गगनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! यह शरीर नाली (बंदूक) है, पवन बारुद है, अनहद रुप आग देने से धमाका होता है और बिन्दु रुप गोला ब्रह्मरंध्र मे चला जाता है अर्थात साधक उध्र्वरेता हो जाता है।
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षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या, द्वादस नाड़ी मांनं।१।
सहंस्त्र नाड़ी प्रांण का मेला, जहां असंष कला सिव थांनं।२।
अवधू ईड़ा मारग चंद्र भणीजै, प्युंगुला मारग भांमं।३।
सुषमनां मारग बांणीं बोलिये, त्रिय मूल अस्थांनं।૪।
महायोगी गोरख कहते है की षोडश कला वाली नाड़ी (इला) में चंद्रमा का प्रकाश है, द्वादश कला वाली नाड़ी (पिंगला) में भानु का, सहस्त्र नाड़ी (सुषुम्ना) से सहस्त्रार में प्राण का मूल निवास है, वहाँ असंख्य कलावाले शिव (ब्रह्मतत्व) का स्थान है।
ईड़ा नाड़ी को चन्द्र कहते है, पिंगला को भानु (सूर्य) और सुषुम्ना को सरस्वती (वाणी), ये ही तीनो मूलस्थान ब्रह्मरंध तक पहुँचाते है।
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निहचल घरि बैसिबा पवन, निरोधिबा कदे न होइगा रोगी।१।
बरस दिन मैं तीनी बर काया पलटिबा, नाग बंग बनासपती जोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की निश्चल रुप से अपने घर बैठना चाहिए यानी आत्मस्थ होना चाहिए, ऐसा करने से साधक कभी रोगी नही होगा। परन्तु साथ ही नाग भस्म, बंग भस्म तथा वनस्पति के प्रयोग से वर्ष भर में तीन बार काया कल्प करना चाहिए यानी काया पलटनी चाहिए।
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अलेष लेषंत अदेष देषंत, अरस परस ते दरस जांणीं।१।
सुंनि गरजंत बाजंत नाद, अलेष लेषंत ते निज प्रवांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो लिखा नही जा सकता, उसका लेखा करने वाले, जिसे देखा नही जा सकता, उसे देखने वाले यानी स्वयं साक्षात्कार करने वाले, ब्रह्मरंध को अनाहत नाद से गर्जित करने वाले, वे निज प्रमाण से यानी स्वयं अपने अनुभव से ब्रह्म को जानते है।
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असाध साधंत गगन गाजंत, उनमनी लागंत ताली।१।
उलटंत पवनं पलटंत बांणीं, अपीव पीवत जे ब्रह्मग्यानीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो असाध्य (मन) को साधते हैं (वश करते है), गगन को (अनाहत नाद से) गर्जित करते है, उन्मनी समाधि लगाते है, पवन को उलटते और सुषुम्ना के मार्ग को पलट देते है। वही अमृत पान करते है, वे ही ब्रह्मज्ञानी है।
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उलटया पवनां गगन समोइ, तब बाल रुप परतषि होई।१।
उदै ग्रहि अस्त हेम ग्रहि पवन मेला, बंधिलै हस्तिय निज साल मेला।२।
बारा कला सोषै सोला कला पोषं, चारि कला साधै अनंत कला जीवै।३।
ऊरम धूरम जोती ज्वाला सीधि, साधंत चारि कला पीवै।૪।
महायोगी गोरख कहते है की पवन को उलटकर ब्रह्मरंध में समावे, तब बाल रुप प्रत्यक्ष होता है। उदय के घर में अस्त लाने से अर्थात मूलाधार स्थित सूर्य को अस्त करने से और चन्द्र हिम के घर ब्रह्मरंध्र में पवन का सम्मिलन करने से बँधा हुआ (बँधकर) हाथी (मन) अपनी शाला में (यानी उस अवस्था मे जो योग सिद्धि के लिए होनी चाहिए) में आ जाता है।
योगी बारह कला (मूलाधार सूर्य) को सोखे (जिससे मूलाधार में सूर्य अमृत का निर्झर सूख न पाए), इससे सोलह कला (सहस्त्रारस्थ अमृतस्त्रावक चन्द्रमा) का पोषण होगा। इस प्रकार चार कलाएँ (सूर्य के ऊपर चन्द्र अमृत) सिद्ध होगी। इस रीति से योगी को अनन्त कलापूर्ण अर्थात ब्रह्मनुभवमय जीवन प्राप्त होगा। विशाल प्रकाशमय ज्योति के दर्शन होंगे, योगी सिद्धि को साधकर चार कला (अमृत) का पान कर लेगा।
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सबद एक पूछिबा कहौ गुरु दयालं, बिरिधि थै क्यूं करि होइबा बालं।१।
फूल्या फूल कली क्यूं होई, पूछे कहै तौ गोरष सोई।२।
सुणौ हो देवल तजौ जंजालं, अमिय पीवत तब होइबा बालं।३।
ब्रह्म अगनि सींचत मूलं, फूल्या फूल कली फिरी फूलं।૪।
महायोगी गोरख से शिष्य एक सवाल पूछते है की हे दयालु गुरु इसका उतर दीजिए। वृद्ध से बालक कैसे हो सकते है। जो फूल खिल चुका है वह फिर से कली कैसे हो सकता है। पूछे जाने पर इसका जो उतर दे, वही गोरखनाथ है।
महायोगी गोरख कहते है की हे नाथो! जगत् के जंजाल को छोड़ो। योग की युक्ति से अमृत का पान ( परमानंद का अनुभव ) करो तो बालक हो सकते हो। ब्रह्माग्नि से मूल को सींचने से जो फूल खिल चुका है, वह फूल भी कली हो सकता है।
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तब जांनिबा अनाहद का बंध, ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध।१।
रकत की रेत अंग थै न छूटै, जोगी कहतां हीरा न फूटै।२।
महायोगी गोरख कहते है की अनाहत प्राप्त कर लिया गया है (बाधँ लिया गया है), यह तभी समझना चाहिए जब त्रैलोक्य में योगी के लिए कोई बाधा शेष न हो और उसका शरीर पात न हो। रक्त का सार रेतस् (शुक्र) शरीर से स्खलित न हो और जोगी कहता है की हीरा नष्ट न हो अर्थात इसी देह के माध्यम से साक्षात ब्रहानुभव हो जाए।
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असार न्यंद्रा बैरी काल, कैसे कर रखिबा गुरु का भंडार।१।
असार तोड़ो, निंद्रा मोड़ौ, सिव सकती ले करि जोड़ौ।२।
महायोगी गोरख कहते है की आहार बैरी है क्योंकि अति आहार से कई खराबियाँ है, जिनमें से नींद का जोर करना एक है। निद्रा काल के समान है। ये गुरु के भंडार ब्रह्मतत्व की चोरी करते है, उसकी अनुभूति नही होने देते। लेकिन गुरु के भंडार की रक्षा कैसे की जाय? भोजन को कम कर दो, निद्रा को मोड़ो अर्थात आने न दो। शिव (ब्रह्मतत्व) और शक्ति (योगिनी कुंडलिनी तत्व) को एक में मिला लो।
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गोरष बोलै सुणिरे अवधू, पंचौ पसर निबारी।१।
अपणी अत्मां आप बिचारी, तब सोवौ पान पसारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत सुनो, पंचतत्वों अथवा पचंज्ञानेन्द्रियों के बाहर की तरफ प्रसार का निवारण करके, यदि अपने आत्मा का स्वयं चिंतन करे, तो मनुष्य की सब चिंताए दूर हो जाती है। वह पाँव पसार कर, निश्चिन्त होकर सो सकता है।
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आसण बैसिबा पवननिरोधिबा, थांन - मांन सब धंधा।१।
बदंत गोरखनाथ आतमां विचारंत, ज्यू जल दीसै चंदा।२।
महायोगी गोरख कहते है की आसन बाँधकर बैठना, प्राणायाम के द्वारा वायु का निरोध करना, कोई पद और तत्संबंधी मान सब धंधे है। इसके अतिरिक्त ये मानना की स्थान विशेष पर बैठकर अभ्यास करने से ही योग सिद्धि हो सकती है, ये सब भी धंधे है। (इनका निरपेक्ष महत्व नही है। ये केवल बाहरी साधन मात्र है।) जो बातें आभ्यंतर ज्ञान को उत्पन्न करती है वे ही योग मार्ग में सब कुछ है। गोरखनाथ कहते है की आत्म तत्व का विचार करने से सारा दृश्यमान जगत वैसे ही परब्रह्म का प्रतिबिम्ब जान पड़ने लगता है जिस प्रकार जल में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है।
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अरघंत कवल उरघंत मध्ये, प्रांण पुरिस का बासा।१।
द्वादस हंसा उलटि चलैगा, तब हीं जोति प्रकासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब नीचे के कमल से ऊपर के कमल में प्राण का वास होने लगे, तब प्राणवायु बहिर्गामी होने की अपेक्षा उलट कर आभ्यंतरगामी हो जायेगी और ज्योति का प्रकाश होगा।
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पाया लो भल पाया लो, सबद थांन सहेती थीति।१।
रुप संहेता दीसण लागा, तब सर्ब भई परतीति।२।
महायोगी गोरख कहते है की मैंने पा लिया। अच्छा (शुभ) पाया, शब्द के द्वारा स्थान (ब्रह्म पद) सहित स्थिति को। तब ब्रह्म के साक्षात दर्शन होने लगे और पूर्ण विश्वास हो गया, मुक्ति में कोई संदेह नही रह गया।
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डंडी सो जे आप डंडै, आवत जाती मनसा षंडै।१।
पंचौ इंद्री का मरदै मांन, सो डंडी कहिये तत समांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की दंडी वह है जो आपा (अहंकार) को दंडित करता है, आती - जाती (चंचल या परिवर्तनशील) कामना (मनसा) को खंडित करता है। पाँचों इन्द्रियों का मान मर्दन करता है। ऐसा ही दंडी ब्रह्मतत्व में लीन होता है। वह शिव स्वरुप हो जाता है।
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अरध - उरध बिचि धरी उठाई, मधि सुनिं मैं बैठा जाई।१।
मतवाला की संगति आई, कथंत गोरषना परमगति पाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की श्वासा (शक्ति) को अरघ (नीचे अंदर जाने वाली वायु) और ऊध्र्व (उच्छवास) के बीच में उठा कर रक्खा अर्थात केवल कुंभक किया और मध्य शून्य (ब्रह्मरंध) में जा बैठा। वहाँ मतवाले शिव (ब्रह्म तत्व) की संगति मिलि। इस प्रकार गोरखनाथ कहते है कि हमें परम गति (परमपद) प्राप्त हो गयी।
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पंच तत सिधां मुडाया, तब भेटिलै निरंजन निराकारं।१।
मन मस्त हस्तो मिलाइ अवधू, तब लूटिलै अषै भंडारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब सिद्धो ने पाँच तत्वो को लेकर (ग्रहण कर, वश में कर) मुंडा लिया (चेला, अनुगामी बना लिया), तब निरंजन निराकार से भेंट की। हे अवधूत मन रुपी मस्त हाथी जब अपना हो जाता है (मन पर संयम सिद्ध हो जाता है), तब अक्षय भंडार लूटने को मिल जाता है।
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अवधू मनसा हमारी गींद बोलिये, सुरति बोलिये चौगानं।१।
अनहद ले षेलिबा लागा, तब गगन भया मैदानं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! मनसा हमारी गेंद है और सुरति ( मन की उल्टी गति अर्थात आत्मस्मृति) चौगान। अनहद का घोड़ा बनाकर मै खेलने लगा। इस प्रकार ब्रह्मरंध्र (गगन या शून्य) मेरे खेलने का मैदान हो गया।
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दृष्टि अग्रे दृष्टि लुकाइबा, सुरति लुकाइबा कांनं।१।
नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तब रहि गया पद निरबांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! इन्द्रियो को उनके विषयों से हटाओ। दृष्टि (चक्षुरिंद्रिय) के आगे से दृष्टि (देखने की शक्ति) को छिपाओ, कान के आगे से श्रुति (सुनना), नाक के आगे से वायु को छिपाओ (श्वसन)। ऐसा करने से फिर केवल निर्वाण पद शेष रह जाता है। इसमें प्रत्याहार की आवश्यकता बतायी गयी है।
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गोरष कहै सुणौ रे अवधू, सुसूपाल थैं डरिये।१।
ले मुदिगर की सिर मैं मेलै, तौ बिनही षूटी मरिये।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शिशुपाल (काल) से डरना चाहिए, अगर वह मुगदर को सिर पर मारे तो आयु के बिना समाप्त हुए ही (अकाल ही) आदमी मर जाए, यानी अकाल भी काल आकार इस भौतिक शरीर की आयु को खा जाता है इसलिए सावधान रहो, हर पल श्रुति परम मे लगी रहे। पता नही कब ये मायावी प्रपंच काल का ग्रास बन जाए??
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नाथ कहै तुम आपा राषौ, हठ करि बाद न करणां।१।
यहु जुग है कांटे की बाड़ी, देषि देषि पग धरणा।२।
महायोगी गोरख कहते है की उनका योगियो के लिए यही उपदेश है की तुम अपने आपा (आत्मा) की रक्षा करो, हठ पूर्वक वाद (खडंन - मडंन) में न पड़ो। यह संसार कांटे की खेत की तरह है जिसमें पग - २ पर कांटे चुभने का डर रहता है। इसलिए देख देख कर कदम रखना चाहिए यानी बहुत युक्ति से जीवन जीना चाहिए।
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गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मै ऐसै रहणां।१।
आंषै देषिबा कांनै सुणिबा, मुष थै कछू न कहणां।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगियो के लिए यह गोेरखनाथ का उपदेश है की इस दुनिया में साक्षी भाव से रहना चाहिए। इसमें लिप्त नही होना चाहिए, इस दुनिया के तमाशे को तमाशबीन की तरह देखते रहो। आखो से देखते हुए व कानो से सुनते हुए भी मुख से कुछ नही कहना चाहिए। जगत के बीच रहकर भी खुद इस प्रपंच मे न पड़े।
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बैठा अवधू लोह की षूंटी, चलता अवधू पवन की मूंठी।१।
सोवता अवधू जीवता मूवा, बोलता अवधू प्यंजरै सूवा।२।
महायोगी गोरख कहते है की अवधूत योगी जब (आसन मारे) बैठा रहता है तो वह लोहे की खूंटी के समान निश्चल होता है। जब चलता है तो पवन की मुट्ठी बाँध कर (यानी वायुवेद से), जोगी जब सोता है तो वह जीते जी मृतक के समान है। लेकिन जो बहुत बोलता फिरता है उसे समझना चाहिए कि अभी बंधन मुक्त नही हुआ है।
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प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।१।
प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास।२।
महायोगी गोरख कहते है की यदि शरीर में परमात्मा होता तो कोई मरता ही नही। यदि ब्रह्मांड में होता तो हर कोई उसे देखता। जैसे ब्रह्मांड की और चीजे दिखाई देती हैं वैसे ही वह भी दिखाई देता। मत्स्येन्द्र का सेवक (शिष्य) गोरख कहता है की वह पिंड और ब्रह्मांड दोनो से परे है।
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हिन्दू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।१।
जोगी ध्यावै परमपद, जहाँ देहुरा न मसीत।२।
महायोगी गोरख कहते है की हिन्दू देवालय में ध्यान करते है, मुसलमान मस्जिद में, किन्तु योगी परमपद का ध्यान करते है जहाँ न देवालय है न ही मस्जिद है।
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उतरखंड जाइबा सुंनिफल खाइबा, ब्रह्म अगनि पहरिबा चीरं।१।
नीझर झरणै अंमृत पीया, यूं मन हूवा थीरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की बड़े - बड़े तपस्वी योग सिद्धि की आशा से गेरुआ धारण कर उतराखंड (बदरिकाश्रम आदि स्थानों) में जाकर झरने का जल और जंगलो के कंदमूल फल पर निर्वाह करते है। किन्तु गोरखनाथ जिस उतराखण्ड (ब्रहारंध्र) में जाने का उपदेश करते है उसमें ब्रह्मग्नि का वस्त्र पहनने को, अमृत - निर्झर से झरने वाला अमृत पीने को और शून्यफल (ब्रह्मरंध में मिलने वाला फल, ब्रह्यनुभूति) खाने को मिलता है। गोरख ने अपने चंचल मन को इसी प्रकार से स्थिर किया।
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बिरला जाणंति भेदांनिभेद, बिरला जांणति दोइ पष छेद।१।
बिरला जाणंति अकथ कहांणीं, बिरला जाणंति सुधिबुधि की वांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की अभेद के भेद को, अद्वैत के रहस्य को कोई विरला ही जानता है। द्वैत के पक्ष का निरसन किसी विरले को आता है। ब्रह्म की अकथनीय कथा को भी कोई विरले ही जानते है। सिद्धो - बुद्धो की वाणी को कोई विरला ही समझ पाता है।
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नग्री सोभंत जल मूल बिरषा, सभा सोभंत पंडिता पुरषा।१।
राजा सोभंत दल प्रवांणी, यू सिधा सोंभत सुधि बुधि की वांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की नगर उधान तथा तड़ागो से सुशोभित होता है। सभा की शोभा पंडित (विद्वान) लोग है। राजा की शोभा उसकी विश्वसनीय सेना है। इसी प्रकार सिद्ध की शोभा आध्यात्मिक सता की याद दिलानेवाली अथवा निर्मल शुद्ध बुद्धि युक्त वाणी है।
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उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पीयबा नींझर पांणीं।१।
लंका छाडि पलंका जाइबा, तब गुरमुष लेबा बांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की उन्मनावस्था में लीन रहना चाहिए। किसी से अपना भेद (रहस्य) न कहना चाहिए। (अमृत के) झरने पर पानी (अमृत) पीना चाहिए। गुरु के मुख से ज्ञानोपदेश सुनने के लिए लंका क्या परलंका (लंका के परे, दूर से भी दूर जाना पड़े तो) जाना चाहिए। अथवा माया (लंका, राक्षसों की मायाविनी नगरी) को छोड़ कर उससे परे, (परलंका) ही जाना चाहिए। तभी गुरु का दिया ज्ञानोपदेश ह्रदयंगम हो सकता है।
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मन मैं रहिणां भेद न कहिणां, बोलिबा अंमृत बांणीं।१।
आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की किसी वन, प्रान्त, देश आदि स्थूल स्थानो पर रहने की अपेक्षा निज मन मे रहना चाहिए अर्थात बहिर्मुख वृतियों को अंतर्मुख कर देना चाहिए। अपने मन का रहस्य किसी से नही कहना चाहिए, क्योंकी इस रहस्यमय परमात्म अनुभूति को कोई समझने वाला नही है। ये तो निज अनुभव का विषय है। हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए। अगर दूसरा आदमी तुम पर आग बबूला हो जाये तो तुम्हे पानी हो जाना चाहिए। सरलचित होकर क्षमा कर देना चाहिए।
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प्यंडै होइ तौ पद की आसा, बंनि निपजै चौतारं।१।
दूध होई तौ घृत की आसा, करणीं करतब सारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की पर ब्रह्म घट घट व्यापी है। इसे लोग स्थूल अर्थ में यों समझते है कि शरीर में वह कहीं पर है। यदि ऐसा है तो परमात्मा की शरीर के अन्दर किसी भाग मे ही मिलने की आशा होनी चाहिए। कुछ लोग परमात्मा की प्राप्ति के लिए वन - जंगल फिरा करते है। यदि ब्रह्मनुभूति सचमुच वन ही में उत्पन्न होती है तो उसे चौपायों में भी देखने की आशा करनी चाहिए। कुछ लोग केवल दूध पर रह कर परमात्मा को प्राप्त करना चाहते है। यदि दूध में परमात्मा है तो उसे घी के रुप में देखने की आशा करनी चाहिए। परन्तु असल में इन बाहरी बातों से परमात्मा नहीं मिलता। इसका सार उपाय करणी - करतब, योग युक्ति अर्थात समुचित रहनी है। आपका जीवन योगयुक्त होकर, परम की दिशा मे क्रियान्वित हो आपकी श्रेष्ठतम करणी के द्वारा।
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अभरा तथा तें सूभर भरिया, नीझर झरता रहिया।१।
षांडे थै षुरसाण दुहेला, यूं सतगुरु मारग कहिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो अभरा था ( ब्रह्मानुभूति से रहित होने के कारण खाली था) (योग की साधना से) वह भी भर गया। (अर्थात ज्ञान पूर्ण हो गया, उसे ब्रह्मानुभूति हो गयी) उसके लिए लिए निरंतर अमृत का निर्झर झरने लगा। (परन्तु जिस मार्ग से यह संभव होता है) गुरु का बताया हुआ यह मार्ग खड्ग से भी तीक्ष्ण और कठिन है।
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सुसबदे हीरा बेधिलै अवधू, जिभ्या करि टकसाल।१।
औगुंन मध्ये गुंन करिलै, तौ चेला सकल संसार।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिह्वा की टकसाल बनाकर वहाँ अभेध परमतत्व रुप हीरे को सु-शब्द (सोहं हंस:, अजपा मंत्र) के द्वारा बेधो। इस प्रकार अवगुणमय असत् मायावी जगत में भी अपने लिए गुण ( त्रैगुण्य नहीं सद्गुण) का लाभ कर लो अर्थात सत् का अनुभव करो। ऐसा होने पर सारा संसार तुम्हारा चेला हो जायेगा
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पढ़ि देखि पंडिता रहि देषि सारं, अपणीं करणीं उतरिबा पारं।१।
बदंत गोरषनाथ कहि धू साषी, घटि घटि दीपक (बलै) षणि पसू न (पेषे) आंषी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे पंडित, जिसको तुमने पढ़कर देखा है, उस सार ज्ञान को रह कर भी देखो। ( केवल पढ़ना ही काफी नही है, साधना द्वारा निज का अनुभव भी चाहिए।) पार उतरना कोरे ज्ञान से नही अपनी करनी (कृत्यों) से ही संभव होता है। गोरखनाथ कहते है कि मै किसको साक्षी दूँ कि घट - घट में ब्रह्म की ज्योति जगमगा रही है। ये तो वैसी ही बात हो गयी जैसे पशु (मृग) अपने मे ही स्थित आँख (कस्तूरी) को देख नही पाता और भटकता रहता है।
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केता आवै केता जाई, केता मांगै केता खाई।१।
केता रुष विरष तलि रहै, गोरष अनभै कासौ कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की साधक बाहरी क्रियाओ को योग समझे हुए है। कितने (जंगम) बराबर आते ही जाते रहते है। कितनो ने माँगना - खाना ही योग समझ रखा है। कितनो के लिए बस्ती से अलग पेड़ो के नीचे रहना ही योग है। सब इस प्रकार बाहरी बातो मे पड़े हुए है, गोरख अभय ज्ञान कहे तो किस से?? (यानी कोई पात्र हो तभी तो उसको सच्चा ज्ञान दे, यहाँ तो अपने मनमत अनुसार सब लगे हुए है।)
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उठंत पवनां रवी तपंगा, बैठंत पवनां चंदं।१।
दहूँ निरंतरि जोगी बिलंबै, बिंद बसै तहाँ ज्यंदं।२।
महायोगी गोरख कहते है की सूर्य नाड़ी मे चलता हुआ पवन बहुत तीव्र गति से चलता है। जब चन्द्र नाड़ी में उसकी गति होती है तब वह बैठ (थम) सा जाता है। जब श्वास बाहर निकलता है तब सूर्य नाड़ी चलती है, और जब भीतर प्रवेश करता है तब चन्द्र नाड़ी। योगी दोनों से अलग सुषुम्णा नाड़ी की शरण में आश्रय लेता है। क्योंकी जहाँ बिन्दु का निवास है वही अमर जीवन तत्व (जिन्दा) का भी है।
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अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमंकै, तेजंग नाड़ी पवनं।१।
सीतंग नाड़ी ब्यंद का बासा, कोई जोगी जानत गवनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! आदि सूक्ष्म सुषुम्णा नाड़ी में नाद की झमक होती है, गरम पिंगला (सूर्य) नाड़ी मे पवन का संचार होता है, शीतल (इड़ा अथवा चन्द्र) नाड़ी में वीर्य का निवास है, इनकी गति को कोई विरला ही योगी जानता है
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उलटंत नादं पलटंत ब्यंद, बाई कै घरि चीन्हसि ज्यंद।१।
सुंनि मडंल तहाँ नीझर झरिया, चंद सुरजि लै उनमनि धरिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की चन्द्र और सूर्य के योग से जब उन्मनावस्था आती है तब ब्रह्मरंध (शून्य मंडल) में अमृत का निर्झर झरने लगता है। नाद उलट जाता है। नाद सूक्ष्म शब्द तत्व का क्रियमाण स्वरुप है जो क्रमश: स्थूल रुप में परिणत होता हुआ सृष्टि का कारण होता है। उसका सृष्टि निर्मायक स्थूल स्वरुप अपने मूल स्त्रोत की ओर मुड़ जाता है। और नीचे उतरता हुआ बिन्दु ऊध्र्वगामी हो जाता है और वायु में ही, जिसके ऊपर काल का प्रभाव बहुत दिखाई देता है, अमर तत्व (जिन्दा) पहचाना जाता है।
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अमावस कै घरि झिलिमिलि चंदा, पूनिंम कै घरि सूरं।१।
नाद कै घरि ब्यंद गरजै, बाजंत अनहद तूरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की 'सहस्त्रार' में अमृतस्त्रावक चन्द्रमा स्थित है पर उसके प्रभाव से सामान्यतया जीव वंचित रहता है, क्योंकि अमृत के स्त्राव को मूलाधार स्थित सूर्य सोख लेता है। चन्द्रमा के प्रभाव से यही वंचित रहना 'अमावस' से अभिप्रेत है। जहाँ पहले अमावस थी, चन्द्रमा का प्रभाव नही था, वहाँ अब चन्द्रमा झिलमिल चमकने लगा है, पूर्ण प्रभाववाला हो गया है। यही सूर्य - चंद्र संयोग योग साधनो का प्रधान उद्देश्य है। इससे नाद में बिन्दु (शुक्र) समा गया है और अनाहत नाद की तुरी बजने लगी है।
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अवधू सहंस्त्र नाड़ी पवन चलैगा, कोटि झमंकै नादं।१।
बहतरि चंदा बाई सोष्या, किरणि प्रगटी जब आदं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शरीर मे फैले हुए सहस्त्र नाड़ी जाल मे जब पवन का संचार होगा, तब करोड़ो नादों के समान अनाहत नाद झमक उठेगा। जब ब्रह्म का मूल प्रकाश (आदि किरण) प्रकट होगा तब वायु बहतरों चन्द्रमाओं को सोख लेगी।
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सास उसास बाइ कौं भाषिबा, रोकि लेहु नव द्वारं।१।
छठै छमासि काया पलटिबा, तब उनमँनीं जोग अपारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की केवल कुम्भक द्वारा श्वासोच्छ्वास का भक्षण करो। नवो द्वारों को रोको। छठे छमासे कायाकल्प के द्वारा काया को नवीन करो। तब उन्मन योग सिद्ध होगा।
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यहु मन सकती यहु मन सीव, यहु मन पांच तत का जीव।१।
यहु मन ले जै उन मन रहै, तौ तीनि लोक की बातां कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की यही मन शिव है, यही मन शक्ति है, यही मन पंच तत्वो से निर्मित जीव है (मन का अधिष्ठान भी शिवतत्व परब्रह्म ही है। माया (शक्ति) के संयोग से ही ब्रह्म मन के रुप मे अभिव्यक्त होता है और मन ही से पंच भूतात्मक शरीर की सृष्टि होती है। इसलिए मन का बहुत बड़ा महत्व है।) मन को लेकर उन्मनावस्था मे लीन करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है, तीनो लोकों की बाते कह सकता है।
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अवधू दंम कौ गहिबा उनमनि रहिबा, ज्यूं बाजबा अनहद तूरं।१।
गगन मंडल मै तेज चमंकै, चंद नही तहां सूरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! दम (प्राण) को पकड़ना चाहिए, प्राणायाम के द्वारा उसे वश मे करना चाहिए। इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी। अनाहत नाद रुपी तुरी बज उठेगी और ब्रह्मरंध मे बिना सूर्य या चंद्रमा के (ब्रह्म) का प्रकाश चमक उठेगा।
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अवधू नव घाटी रोकि लै बाट, बाई बणिजै चौसठि हाट।१।
काया पलटै अविचल बिध, छाया बिबरजित निपजै सिध।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे! अवधूत! शरीर के नवो द्वारो को बन्द करके वायु के आने जाने का मार्ग रोक लो। इससे चौसठो संधियो मे वायु का व्यापार होने लगेगा। इससे निश्चय ही कायाकल्प होगा, साधक सिद्ध हो जायेगा जिसकी छाया नही पड़ती।
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चालत चंदवा षिसि षिसि पड़ै, बैठा ब्रह्म अगनि परजलै।१।
आडै आसणि गोटिका बंध, जावत प्रथिमी तावत कंध।२।
महायोगी गोरख कहते है की चंचलता (चालत) से चंद्र स्त्राव (अमृत) खिसक खिसक कर क्षरित हो जाता है। स्थिरता (बैठा) से ब्रह्माग्नि प्रज्वलित होती है। तिरछी ( अर्थात चल और स्थिर के बीच की) अवस्था (आदि) मे अभ्यास से वह सिद्धि (गोटिका बंध) प्राप्त होती है जिससे योगी इच्छानुसार अदृश्य हो जाता है (कहते है कि सिद्ध योगी अभिमंत्रित गोली (गुटिका) मुँह में रखकर अदृश्य हो जाता है) और अमरत्व प्राप्त कर लेता है जिससे जब तक पृथ्वी रहती है तब तक उसका शरीर भी रहता है।
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मनवां जोगी गाया मढी, पंच तत ले कंथा गढ़ी।१।
षिमा षड़ासण ग्यान अधारी, सुमति पावड़ी डंड बिचारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की शरीररुपी मढ़ी मे मन रुपी जोगी रहता है जिसने अपने लिए पाँच तत्व की कंथा बनाई है। वह क्षमा का खड़ासन, ज्ञान की अधारी, सद्बुद्धि की खड़ाऊँ और विचार का डंडा उपयोग मे लाता है। (काठ के डंडे से लगी हुई अधारी होती है जिसे योगी व साधु सहारे के लिए रखते है। इसी प्रकार का खड़ासन भी होता है जिसके सहारे खड़ा होकर भी आराम रहता है।) लेकिन यहा गोरख कह रहे है की शरीर का नही मन का योग वास्तविक योग है। बाह्म युक्तियो को छोड़ कर आभ्यंतर की युक्तियो को ग्रहण करना चाहिए।
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पाषंडी सो काया पषालै, उलटि पवन अगनि प्रजालै।१।
व्यंद न देई सुपनै जाण, सो पाषंडी कहिए तत समांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी पाखंडी नही होता है। लेकिन योगी का पाखंड यह है की वह योग की क्रियाओ से काया का प्रक्षालन करता है, उसे निर्मल बनाता है। पवन को उलट कर (प्राणायम के द्वारा) योगाग्नि को प्रज्वलित करता है, कुण्डलिनी को जगाता है, बिन्दु को सपने मे भी स्खलित नही होने देता। ऐसे पाखंडी को तत्व मे समाया हुआ समझना चाहिए।
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अमरा निरमल पाप न पुंनि, सत रज बिबरजित सुंनि।१।
सोहं हंसा सुमिरै सबद, तिहिं परमारथ अनंत सिध।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की जो (अंतर्लीन) मुनि, सत् - रजस् - तमस् , इस त्रैगुण्य से विवर्जित है, पाप - पुण्य से रहित है, निर्मल है, अमर है, "सोहं हंस:" इस आभ्यंतर शब्द का स्मरण करता है अर्थात अजपाजाप जपता रहता है, उसे अनन्त परमार्थ सिद्ध हो जाता है।
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गिरही सो जो गिरहै काया, अभि अंतरि की त्यागै माया।१।
सहज सील का धरै सरीर, सो गिरही गंगा का नीर।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की योगी गृही (घरबारी) नही है। यदि वह गृही है (संकेत रुप मे) तो ऐसा है जो अपने शरीर को पकड़े हुए, वश मे किये हुए रहता है। अंत:करण से माया को त्याग देता है। वह इतना शीलवान है कि जैसे पूरा शरीर ही स्वाभाविक शील का बना हुआ है। वह गृही गंगाजल है, शुद्ध है, औरो को भी शुद्ध करने वाला है। ऐसे योगी का देवाधिदेव शिव भी आदर करते है।
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जिभ्या स्वाद तत तन षोजै, हेला करै गुरु बाचा।१।
अगनि बिहूँणां बंध न लागै, ढलकि जाइ रस काचा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो शरीर में जिह्वा स्वाद के रुप में तत्व की खोज करता है और इस प्रकार गुरु वचन की अवहेलना करता है। उसके शरीर का रस योगाग्नि के अभाव के कारण बँधता नही है, और कच्चा रह जाने के कारण ढलक (स्खलित हो) जाता है।
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बजरी करंतां अमरी राषै, अमरि करंतां बाई।१।
भोग करंतां जै ब्यंद राषै, ते गोरष का गुरुभाई।२।
भग मुषि ब्यद अगनि मुषिपारा, जो राषै सो गुरु हमारा।३।
महायोगी गोरख कहते है की बज्रोली करते हुए जो अमरोली की रक्षा करे, अमरोली करते हुए वायु की रक्षा करे, और भोग करते हुए बिन्दु (रेतस्) की रक्षा करे। वह गोरख का भाई अर्थात गोरख के समकक्ष सिद्धिवाला है। योनी मुख में जो बिंदु की रक्षा करे तथा अग्नि के ऊपर पारे की रक्षा करे, वह हमारा गुरु है। (जिस प्रकार अग्नि के ताप में पारद की रक्षा करना कठिन है, ऐसा ही योनी मुख मे शुक्र की भी है)। योगी की यह कठिन परीक्षा है।
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अवधू षारै षिरै षाटै झरै मीठै उपजै रोग।१।
गोरष कहै सुणौ रे अवधू, अंनै पांणीं जोगं।२।
महायोगी गोरख कहते है की नमकीन से शुक्र नष्ट होता है, खट्टे से झरता है। मीठे से रोग पैदा होता है। इसलिए गोरखनाथ कहते है की हे अवधूत! सुनो, योग केवल अन्न पानी के ही व्यवहार से सिद्ध होता है यानी खट्टे व मीठे आदि स्वादो के पीछे योगी को नही जाना चाहिए।
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निसपती जोगी जानिबा कैसा, अगनी पांणीं लोहा मांनै जैसा।१।
राजा परजा संमि करि देष, तब जांनिबा जोगी निसपतिका भेष।२।
महायोगी गोरख कहते है की निष्पति प्राप्त योगी की क्या पहचान है? अग्नि और पानी में जैसे लोहा शुद्ध होता है ( लोहा शुद्ध करने के लिए कई बार आग में गरम करके ठंडे पानी में बुझाया जाता है)। उसी प्रकार जब नाना कठोर साधनाओं के द्वारा योगी शुद्ध हो जाए तथा राजा प्रजा में जब योगी की समदृष्टि हो जाए, तब समझना चाहिए कि उसे निष्पति का वेश प्राप्त हुआ है।
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परचय जोगी उनमन षेला, अहनिसि इंछया करै देवता स्यूं मेला।१।
षिन षिन जोगी नांनां रुप, तब जांनिबा जोगी परचय सरुप।२।
महायोगी गोरख कहते है की परिचय जोगी वह है जो उन्मन समाधि में क्रिड़ा करता है, लीन रहता है। रात दिन इच्छानुसार देवता (परब्रह्म) का समागम करता रहता है और क्षण क्षण में (अणिमादि सिद्धियों के द्वारा इच्छानुसार) नाना रुप धारण कर सकता है। तब जानना चाहिए कि योगी को स्वरुप का परिचय हो गया है।
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घट हीं रहिबा मन नजाई दूर, अह निस पीवै जोगी बारूणीं सूर।१।
स्वाद बिस्वाद बाई काल छींन, तब जांनिबा जोगी घट का लछीन।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब योगी अपने ही शरीर में रहता हो, मन दूर न जाता हो, तब वह शूर (योगी) रात दिन (अमर) वारुणी का पान करता है। जब सुख (स्वाद), दुख (विस्वाद) तथा काल, केवल कुम्भक के सिद्ध होने से वायु द्वारा क्षीण हो गये हो, तब जानना चाहिए कि जोगी में 'घट' दशा के लक्षण आ गये हैं।
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आंरम्भ जोगी कथीला एकसार, षिण षिण जोगी करै सरीर विचार।१।
तलबल ब्यंद धरिबा एक तोल, तब जांणिबा जोगी आरंभ का बोल।२।
महायोगी गोरख कहते है की आरम्भ योगी वह कहलाता है जो एकसार अर्थात निश्चल एक रस रहे और क्षण क्षण शरीर पर विचार करता रहे और शरीर में पूरे (सिरे तक) भरे हुए शुक्र की समत्व (एक तोल) रुप से रक्षा करे। तब समझना चाहिए कि योगी पर घट अवस्था के लिए कहे गये वचन लक्षण घट जाते है
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उनमन जोगी दसवैं द्वार, नाद ब्यंद ले धूंधूंकार।१।
दसवे द्वारे देइ कपाट, गोरख षोजी औरै बाट।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी दशमद्वार (ब्रह्मरंध) में समाधिस्थ होता है और नाद व बिन्दु के मेल से धूधूकार अर्थात महाशब्द अनाहतनाद को सुनता है। लेकिन गोरखनाथ ने दशमद्वार को भी बन्द कर और ही बाट से परब्रह्म की खोज की। (गोरखनाथ जी यहा बाह्म बातो में न पड़ सूक्ष्म विचार की व चिंतन की आवश्यकता की ओर संकेत कर रहे है)
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पंडित ग्यांन मरौ क्या झूझि, औरै लेहु परमपद बूझि।१।
आसण पवन उपद्रह करैं, निसिदिन आरम्भ पचि पचि मरैं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे खंडित ज्ञानियो! तुम बाहरी बातो से युद्ध करते हुए क्यों पच मरते हो, इनसे तब तक कुछ लाभ नहीं होगा जब तक तुम वास्तविक आभ्यंतर ज्ञान अर्थात परमपद की ओर न जाओगे। वह परमपद इनसे भिन्न है, आधारभूत सूक्ष्म ज्ञान के बिना तुम आसन, प्राणायाम तथा अन्य उपद्रव करते हो। रात दिन पच मरने पर भी इनके द्वारा आरम्भ अवस्था से आगे बढ़ा नहीं जा सकता।
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नव नाडी बहोतरि कोठा, ए अष्टांग सब झूठा।१।
कूंची ताली सुषमन करै, उलटि जिभ्या ले तालू धरै।२।
महायोगी गोरख कहते है की शरीर में इतनी नाड़िया, इतने कोठे है आदि आदि अष्टांग योग का सब बाह्म ज्ञान झूठा है। वास्तविकता तो केवल आभ्यंतर अनुभूति है। सुषुम्ना के द्वारा ताले पर कुंजी करे अर्थात ब्रह्मरंध का भेदन करें और जिह्वा को उलट कर तालु मूल में रखे, जिससे सहस्त्रार स्थित चंद्र से स्त्रवित होने वाले अमृत का आस्वादन होगा।
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अगम अगोचर रहै निहकांम, भंवर गुफा नांही बिसराम।१।
जुगति न जांणै जागैं राति, मन कांहू कै न आवै हाथि।२।
महायोगी गोरख कहते है की अगम - अगोचर परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए निष्काम रहना चाहिए। किन्तु लोग भ्रमर गुफा (ब्रह्मरंध) में तो निवास करते नहीं, योग की युक्ति का वास्तविक ज्ञान है नही, वे केवल रात में जागते रहते है। इसलिए मन किसी के हाथ नही आता यानी वश में नही होता।
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पेट कि अगनि बिबरजित, दिष्टि की अगनि षाया।१।
यांन गुरु का आगैं ही होता, पणि बिरलै अवधू पाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की मैंने पेट की अग्नि (जठराग्नि) से खाना वर्जित कर, आँख (तिसरे नेत्र या ज्ञान चक्षु) की अग्नि से खाया यानी ज्ञान दृष्टि से माया का भक्षण किया। यह गुरु का ज्ञान तो पहले भी उपलब्ध रहा था किन्तु किसी बिरले ही अवधूत ने उसे प्राप्त किया।
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षरतर पवनां रहै निरंतरि, महारस सीझै काया अभिअंतरि।१।
गोरख कहै अम्हे चंचल ग्रहिया, सिव सक्ति ले निज घरि रहिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब तीक्ष्ण पवन निरन्तर रहता है, उसकी चंचलता छूट जाती है तब शरीर के भीतर महारस सिद्ध होता है। गोरखनाथ कहते है की हमने चंचल मन को पकड़ लिया है और शिव - शक्ति का मेल करके अपने घर में रहने लगे अर्थात निज स्वरुप में पहुँच गये।
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सबद बिन्दौ अवधू सबद बिन्दौ, सबदे सीझंत काया।१।
निनांणवै कोडि राजा मस्तक मुडाइले, परजा का अंत न पाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो। शब्द से ही शरीर सिद्ध होता है। इसी शब्द को प्राप्त करने के लिए निनाणवे करोड़ राजा चेले हो गयें और प्रजा में से कितने हुए इसका तो अंत ही नही मिलता।
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तूटी डोरी रस कस बहै, उनमनि लागा अस्थिर रहै।१।
उनमनि लागा होइ अनंद, तूटी डोरी बिनसै कंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की डोरी (समाधी या लीनावस्था) के टूट जाने से सार वस्तु बह जाती है, नष्ट हो जाती है। उन्मनी समाधि के लगने से स्थिरता आती है और आनन्द होता है। लेकिन समाधि के टूटने से शरीर भी नष्ट हो जाता है।
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इक लष सींगणि नव लष बांन, बेध्या मींन गगन अस्थांन।१।
बेध्या मींन गगन कै साथ, सति सति भाषंत श्रीगोरखनाथ।२।
महायोगी गोरख कहते है की योग की साधना एक लाख शिंजिनियों (प्रत्यंचाओं) या धनुषों से नौ लाख बाण छूटने के समान है। उससे ब्रह्मरंधस्थ मीन ( तत्व का लक्ष्य) निश्चय बिंध गया। गोरखनाथ सत्य वचन कहते हैं की तत्व ज्ञान के साथ ब्रह्मरंध भी बेध दिया गया है यानी केवल ज्ञान प्राप्त नही हुआ है बल्कि उसमें स्थिरता भी आ गई है
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कोई न्यंदै कोई ब्यंदै, कोई करै हमारी आसा।१।
गोरष कहै सूणौ रे अवधू, यहु पंथ षरा उदासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की कोई हमारी निन्दा करता है, कोई बंदना करता है, कोई हमसे वरदान इत्यादि प्राप्त करने की आशा करता है। किन्तु गोरखनाथ कहते है की अवधूत, यह मार्ग जिस पर हम चल रहे है पूर्ण विरक्ति का है। हम निन्दा - प्रशंसा सबसे उदासीन रहते है, ये हमे प्रभावित नही कर सकते। हम इनसे सर्वथा निर्लेप है
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आसण दिढ़ अहार दिढ़, जे न्यंद्रा दिढ होई।१।
गोरष कहै सुणौ रे पूता, मरै न बूढ़ा होई।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे शिष्यो! आसन, भोजन और निद्रा के नियमों में दृढ़ होने से योगी अजर - अमर हो जाता है। योगी का आसन अविचल, आहार अल्प और निद्रा सर्वथा क्षीण होनी चाहिए।
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सबद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ, थांन मांन सब धंधा।१।
आतमां मधे प्रमातमां दीसै, ज्यौ जल मधे चंदा।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो। स्थान (पद अथवा तीर्थ) को मान देना आदि क्रियाएँ सब धंधा है। शब्द की प्राप्ति से तुम जानोगे की आत्मा में परमात्मा वैसे ही दिखाई देता है जैसे जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है
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जल कै संजमि अटल अकास, अन कै संजमि जोति प्रकाश।१।
पवनां संजमि लागै बंद, ब्यंद कै संजमि थिरहवै कंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की जल के संयम से आकाश अटल होता है, ब्रह्मरंध में दृढ़ स्थिति होती है। अन्न के संयम से ज्योति प्रकाशमान होती है, पवन के संयम से बंद लगता है अर्थात नवद्वारे बंद हो जाते है और बिंदु (शुक्र) के संयम से शरीर स्थिर हो जाता है।
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हिरदा का भाव हाथ मै जाणिये, यहु कलि आई षोटी।१।
बदंत गोरष सुणौ रे अवधू, करवै होई सु निकसै टोटी।२।
महायोगी गोरख कहते है की यह कलि बुरा युग है। इसमें लोगो के भाव अच्छे नहीं है, यह उनके कर्मो से पता चलता है। क्योंकी ह्रदय में जैसे भाव होते है, वैसे ही कर्म फिर हाथ से होते है। गोरखनाथ कहते है की हे अवधूत जो कुछ गडुवे में होगा, वही तो टोंटी से बाहर निकलेगा।
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मूरिष सभा न बैसिबा अवधू, पंडित सौ न करिब बादं।१।
राजा संग्रामे झूझ न करबा, हेलै न षोइबा नादं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! मूर्खो की सभा में नही बैठना चाहिए, पंडित से शास्त्रार्थ नहीं करना चाहिए ( उसका ज्ञानगर्व दूसरे प्रकार की मूर्खता है, वास्तविक ज्ञान उसे नही होता। अतएव ऐसे शास्त्रार्थ में पड़ना व्यर्थ समय को नष्ट करना है।) राजा से लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए। (राजा उस क्षेत्र में शूर नहीं है जिस क्षेत्र में साधक को शूर होना चाहिए। राजा के पास बाहुबल है किन्तु साधक के पास आत्मबल होना चाहिए। इसलिए दोनो में स्पर्धा का भाव हो नही सकता।) गोरखनाथ जी कहते है की लापरवाही से नाद को खोना नहीं चाहिए
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कहणि सुहेली रहणि दुहेली, बिन षायां गुड़ मींठा।१।
खाई हींग कसूर बषांणै, गोरष कहै सब झूठा।२।
महायोगी गोरख कहते है की कहनी से रहनी दुर्लभ है, बिना गुड़ खाये मुँह से 'मीठा' शब्द का उच्चारण मात्र कर देने से मीठे स्वाद का अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता, ऐसा अनुभवहीन व्यक्ति धोखे में पड़ा रह जाता है। उसको वास्तविकता की पहचान नही होती। खाता तो वह हींग है किन्तु कहता है कपूर। गोरखनाथ कहते है की यह सब झूठा अनुभव है।
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कहणि सुहेली रहणि दुहेली, कहणि रहणि बिन थोथी।१।
पढ्या गुंण्या सूबा बिलाई षाया, पंडित के हाथि रह गई पोथी।२।
महायोगी गोरख कहते है की कहना आसान होता है किन्तु उस कहने के अनुसार रहना कठिन, बिना रहनी के कहना किसी काम का नहीं ( खोखला या थोथा) है। तोता पढ़ - सुनकर कुछ शब्दों को दोहराना भर सीख सकता है, उसके अनुसार काम नही कर सकता, उनका अर्थ नही समझता। ऐसे ही अनुभवहीन पढ़े - गुने पंडित के हाथ में भी केवल पोथी रह जाती है, सारवस्तु उसके हाथ नही आती और परिणामतः वह काल का ग्रास हो जाता है।
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बास बासत तहां प्रगट्या षेलं, द्वादस अंगुल गगन घरि मेलं।१।
बदंत गोरख पूतां होइबा चिराई, न पडंत काया न जंम घरि जांई।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो ब्रह्म की सुबास से सुबासित रहता है अर्थात ब्रह्म की व्यापकता जिसे अनुभव हो जाती है, वहाँ उसके लिए ज्योति दर्शन का खेल प्रकट हो जाता है। द्वादश अंगुल अर्थात प्राणवायु (योगियों का कथन है कि प्राणवायु का निवास नासिका के बाहर भी बारह अंगुल तक है, इसी द्वादश अंगुल से प्राणवायु का अर्थ लिया गया है) को शून्य में प्रविष्ट करने से चिरायु प्राप्त होती है, शरीरपात नही होता और यम के प्रभाव में साधक नही जाता अर्थात मरण नही होता।
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सिव के संकेत बूझिलै सूरा, गगन अस्थांनि बाइलै तूरा।१।
मींमा के मारग रोपीलै भांणं, उलट्या फूल कली मैं आंणं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे शूर (साधक) ! सिद्ध के संकेत (सांकेतिक उपदेश) को समझो। शून्य स्थान में तुरी (अनाहत - नाद) बजाओ। चन्द्र के विरोधी भानू को मीन के मार्ग पर लगाओ अर्थात योग युक्ति से चन्द्रमा के सम्मुख करो, जिससे अमृत का रसास्वादन हो सके। गोरखनाथ कहते है की जिस प्रकार पानी के नीचे मछली का मार्ग ज्ञात नही होता, उसी प्रकार योग का मार्ग भी गुप्त रहता है। इसलिए इसे " मीन का मार्ग " भी कहा जाता है। इस मार्ग से फूल उलट कर फिर कली में बदल जायेगा, वृद्ध को बाल स्वरुप प्राप्त हो जायेगा
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चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा, पंच की मेटिबा आसा।१।
बदंत गोरष सति ते सूरिवां, उनमनि मन मैं बास।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे चेतन (जीव)! सचेत रहना चाहिए। आत्मा को रेतना नहीं चाहिए (दुख नही देना चाहिए)। पंचेंद्रियों से मिलने वाले झूठे सुख की आशा मिटा देनी चाहिए। गोरखनाथ कहते है कि वे सच्चे शूरवीर हैं जो उन्मनावस्था में लीन मन में निवास करते है।
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अंहकार तुटिबा निराकार फूटिबा, सोषीला गंग जमन का पानीं।१।
चंद सूरज दोऊ सनमुषि राषिला, कहो हो अवतू तहां की सहिनांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की अंहकार तोड़ना चाहिए, निराकार आत्मा को प्रस्फुटित करना चाहिए। (जैसे भू - पृष्ठ को तोड़कर अंकुर बाहर निकलता है उसी प्रकार अंहकार को तोड़कर आत्मा प्रस्फुटित होती हेै।) जहाँ गंगा (ईड़ा) - जमुना (पिंगला) का पानी सोख लिया गया (अर्थात दोनों का प्रभाव मिटाकर सुषुम्ना में मिला लिया गया) तथा चन्द्रमा (सहस्त्रारस्थ) और सूर्य (मूलाघारस्थ) दोनों का विरोधी स्वभाव मिटा कर सन्मुख कर दिया गया ताकि अमृत का स्त्राव नष्ट नहीं होने पाए। गोरखनाथ जी कहते है की हे अवधू! वहा की पहचान खोजो।
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ब्रह्मंड फूटिबा नगर सब लूटिबा, कोई न जांणवा भेवं।१।
बदंत गोरषनाथ प्यंड दर जब घेरिबा, तब पकड़िया पंच देवं।२।
महायोगी गोरख कहते है की ब्रह्मरंध मे कुंडलिनी प्रवेश से ब्रह्मांड फोड़ना चाहिए और शून्य रुप नगर को लूटना चाहिए, जिसका भेद कोई नही जानेगा। गोरखनाथ जी कहते है कि जब शरीर रुपी घर घेर लिया जाता है तभी पंच देव यानी पंचेन्द्रिय तथा उनका स्वामी मन पकड़ा जा सकता है।
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उदैन अस्त राति न दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन।१।
सोई निरंजन डाल न मूल, सब व्यापीक सुषम न अस्थूल।२।
महायोगी गोरख कहते है की उस परम अवस्था मे न उदय है, न अस्त, न रात न दिन, सारी चराचरमयी सृष्टि में कोई भिन्नता का भाव नही यानी सर्वेश और उनकी चर - अचर सृष्टि में कोई भेद भाव नही है। वही शुद्ध निरंजन ब्रह्म रह जाता है, मूल और शाखा यानी अधिष्ठान और नामरुपोपाधि का भेद नही रह जाता। वही सर्वव्यापी रह जाता है जो न सूक्ष्म है न ही स्थूल।
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निरति न सुरति जोगं न भोग, जुरा मरण नहीं तहाँ रोगं।१।
गोरष बोलै एकंकार, नही तहँ बाचा ओअंकार।२।
महायोगी गोरख कहते है की परमानुभव पद में न निरति है, न सुरति है; न योग है, न भोग, न वहाँ जरा (बुढ़ापा), न मृत्यु है और न रोग; न वहाँ वाणी है न ॐकार। गोरख कहते है कि वहाँ तो केवल एकाकार (कैवल्य) अवस्था है, किसी प्रकार का द्वैत ही नही है।
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बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट, नहीं रै पूता गुरु सौ भेट।१।
षड़ षड़ काया निरमल नेत, भई रे पूता गुरु सौ भेट।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिनके बड़े बड़े कूल्हे और मोटी तोंद होती है,उन्हे योग की युक्ति नही आती। समझना चाहिए कि उन्हे गुरु से भेंट नहीं हुई है, या उन्हे अच्छा योगी गुरु मिला ही नही है। अगर गुरु मिल भी गए तो शायद उनकी वास्तविक महिमा को उन्होने पहचाना ही नही, उनकी शिक्षा का लाभ उठाकर वे अधिकारी नही हो पाए है। यदि साधक का शरीर चरबी के बोझ से मुक्त है और उसके नासा रंध्र निर्मल, आँखे कांतिमय है तो समझना चाहिए की गुरु से भेट हो गयी है।
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भिष्या हमारी कामधेनि बोलिये, संसार हमारी वाड़ी।१।
गुरु परसादै भिष्या षाइबा, अंतिफालि न होइगी भारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की भिक्षा हमारी कामधेनु है, उसी से हमारी पूर्ण तृप्ति हो जाती है। यह सारा संसार भर हमारी खेती है, हम किसी एक जगह से नही बँधे रहते। किन्तु भिक्षा भी स्वयं अपने निमित नही माँगी जाती, अन्यथा योग भी माँगने खाने के पाखंडो में से एक हो जाय। भिक्षा मे जो कुछ प्राप्त होता है वह भी गुरु का है और उन्ही को अर्पण होता है। गुरु के प्रसाद स्वरुप भिक्षा भोजन करने से अतंकाल में कर्मो का बोझ नहीं सतावेगा।
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सुणि गुणवंता सुणि बुधिवंता, अनंत सिधा की बांणी।१।
सीस नवावत सत गुरु मिलिया, जागत रैंणि बिहाणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे - गुणवानो! सुनो, हे - बुद्धिमानो! सुनो, अनंत सिद्धो की वाणी सुनो। अनंत सिद्धो ने कहा है की सदगुरु के मिलने (उनके सान्धिय एवं मार्गदर्शन से) और उन्हे सिर झुकाने (मै का त्याग कर पूर्ण सर्मपण) से यह जगत रात्री (जीवन का कालचक्र), जागते जागते (ज्ञानमय अवस्था में) बीत जाती है। जीव अज्ञान की नींद नही सोता।
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नाद हमारै बावै कवन, नाद बजाया तूटै पवन।१।
अनहद सबद बाजता रहै, सिध संकेत श्री गोरष कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की कौन हमारे श्रृंगी नाद बजावै्? श्रृंगी नाद बजाने से तो श्वास टूटने लगता है। (वैसे इसकी आवश्यकता भी क्या है जब हमारे आभ्यंतर में अनाहत नाद निरंतर बजता रहता है)। श्रृंगीनाद बजे न बजे, अनाहत नाद निरंतर बजता रहे। श्री गोरखनाथ ऐसा सिद्ध संकेत करते है।
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उलटिया पवन षट चक्र बेधिया, तातै लोहै सोषिया पाणीं।१।
चंद सूर दोऊ निज घरि राष्या, ऐसा अलष बिनांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की प्राण वायु को उलट कर छहों चक्रों को बेध लिया। उससे तप्त लौह (ब्रह्मरंध) ने पानी (रेतस्) को सोख लिया। चन्द्रमा (इड़ा नाड़ी) और सूर्य (पिंगला) दोनों को अपने घर (सुषुम्णा) में रक्खा, मिमज्जित कर दिया। ऐसा (जो जोगी करे) वह स्वयं अलक्ष्य और विज्ञानी (ब्रह्म) हो जाता है।
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लाल बोलंती अम्हे पारि उतरिया, मूढ रहै उर वारं।१।
थिति बिहूंणां झूठा जोगी, ना तस वार न पारं।२।
नाथ जी कहते है की हम भव सागर से पार उतर गये। किन्तु मूढ़ संसारी लोग उसे पार नहीं कर सके, इसी किनारे रह गए। परन्तु जो बिना अवस्था के झूठे जोगी है (अस्थिर व चंचल है), वे मझदार ही मे डूब जाते है। उन्हे न वह किनारा मिलता है न यह किनारा पार होता है। उनका यह लोक भी नष्ट हो जाता है और उन्हे मोक्ष भी प्राप्त नही होता।
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संन्यासी सोई फरै सर्ब नास, गगन मंडल महि मांडै आस।१।
अनहद सूं मन उनमन रहै, तो संन्यासी अगम की कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की संन्यासी वह है जो सर्वस्व का न्यास (त्याग) कर देता है। केवल शून्य मंडल मे मिलने वाली ब्रह्मानुभूति की आशा लिए रहता है। अनाहत को सुनकर मन को निरन्तर उन्मनावस्था में लीन किए रहता है। वह सन्यासी स्वानुभव से अगम परब्रह्म का कथन करता है।
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जोगी सो जे मन जोगवै, बिन बिलाइत राज भोगवै।१।
कनक कांमनी त्यागे दोइ, सो जोगेस्वर निरभै होइ।२।
महायोगी गोरख कहते है की जोगी वह, जो मन की रक्षा करे और परम शून्य अर्थात ब्रह्मरंध में देश के बिना ब्रह्मनुभूतिमय बड़े राज्य का उपभोग करे। जो योगेश्वर कनक और कामिनी का त्याग कर देता है, वह निर्भय हो जाता है।
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न्यंद्रा कहै मैं अलिया बलिया, ब्रह्मां विष्न महादेव छलिया।१।
न्यंद्रा कहै हूँ षरी विगूती, जागै गोरष हूँ पड़ि सूती।२।
महायोगी गोरख बताते है, "निद्रा कहती है की मैं आल - जाल वाली (प्रपंचकारिणी) हूँ और बलवती हूँ। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तक को मैने छला है। किन्तु गोरखनाथ ने मेरा बहुत बुरा हाल कर दिया है। वह जागता है और मै पड़ी सो रही हूँ।
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ऊभा मारुं बैठा मारुं, मारुं जागत सूता।१।
तीनि लोक भग जाल पसारया, कहां जाइगौ पूता।२।
ऊभा षंडौ बैठा षंडौ, षंडौ जागत सूता।३।
तिहूं लोक तै रहूँ निरंतरि, तौ गोरख अवधूता।૪।
महायोगी गोरख बताते है की "काल की ललकार है कि मुझसे तुम बच नही सकते"। खड़े, बैठे, जागते, सोते, चाहे जिस दशा में रहो उसी दशा में मै तुम्हे मार सकता हूँ। तुम्हे पकड़ने के लिए मैंने तीनो लोको में योनी रुप जाल पसार रक्खा है। उससे बच कर तुम कहाँ जाओगे??
काल को सिद्ध योगी का दृढ़ उतर है - मै खड़ा, बैठा, सोता चाहे जिस अवस्था में होऊँ मेरा नाम अवधूत गोरख तब है, जब मै उसी अवस्था में तुम्हे (काल) खंडित कर तीनो लोको से परे हो जाऊँ। गोरख कहते है की अपने सुमिरन के प्रभाव से मै तीनो लोको से अलग होकर तुम्हारे प्रभाव से बाहर हो जाऊँगा।
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अधरा धरे विचारिया, घर या ही मै सोई।१।
धर अधर परचा हूवा, तब उती नाहीं कोई।२।
महायोगी गोरख कहते है की अधर (शून्य ब्रह्मरंध) में हमने ब्रह्मतत्व का विचार किया। अधर में तो वह है ही, इस धरा में भी वही है। मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक सर्वत्र उसकी स्थिति है। कही वह स्थूल रुप से है, कही सूक्ष्म रुप से है। जब धर अधर का परिचय हो जाता है, तब मूलस्थ कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रारस्थ शिव से परिचय हो जाता है। तब साधक के निज अनुभव ज्ञान से बाहर कुछ नही रह जाता।
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देवल जात्रां सुंनि जात्रा, तीरथ जात्रा पांणी।१।
अतीत जात्रा सुफल जात्रा, बोलै अंमृत बांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की देवालय की यात्रा शून्य यात्रा है, उससे कोई फल नहीं मिलता। तीर्थ की यात्रा से तो फल ही क्या मिलता है?? वह तो पानी की ही यात्रा ठहरी। सुफल यात्रा तो अतीत यात्रा है, साधु सन्तों के दर्शनों के लिए की जाने वाली यात्रा है, जो अमृतवाणी बोलते है। उनके सत्संग और उपदेश श्रवण से जो लाभ मिलता है, वह अन्य किसी यात्रा से सम्भव नही है।
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काजी मुलां कुरांण लगाया, ब्रह्म लगाया वेदं।१।
कापड़ी संन्यासी तीरथ भ्रमाया, न पाया नृवांण पद का भेवं।२।
महायोगी गोरख कहते है की काजी मुल्लाओं ने कुरान पढ़ा, ब्राह्मणों ने वेद, कापड़ी (गंगोतरी से गंगाजल लाने वाले) और सन्यासियों को तीर्थों ने भ्रम में डाल रक्खा है। इनमे से किसी ने निर्वाण पद का भेद नही पाया।
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अवधू काया हमारी नालि बोलिये, दारु बोलिये पवनं।१।
अगनि पलीता अनहद गरजै, ब्यंद गोला उड़ि गगनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! यह शरीर नाली (बंदूक) है, पवन बारुद है, अनहद रुप आग देने से धमाका होता है और बिन्दु रुप गोला ब्रह्मरंध्र मे चला जाता है अर्थात साधक उध्र्वरेता हो जाता है।
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षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या, द्वादस नाड़ी मांनं।१।
सहंस्त्र नाड़ी प्रांण का मेला, जहां असंष कला सिव थांनं।२।
अवधू ईड़ा मारग चंद्र भणीजै, प्युंगुला मारग भांमं।३।
सुषमनां मारग बांणीं बोलिये, त्रिय मूल अस्थांनं।૪।
महायोगी गोरख कहते है की षोडश कला वाली नाड़ी (इला) में चंद्रमा का प्रकाश है, द्वादश कला वाली नाड़ी (पिंगला) में भानु का, सहस्त्र नाड़ी (सुषुम्ना) से सहस्त्रार में प्राण का मूल निवास है, वहाँ असंख्य कलावाले शिव (ब्रह्मतत्व) का स्थान है।
ईड़ा नाड़ी को चन्द्र कहते है, पिंगला को भानु (सूर्य) और सुषुम्ना को सरस्वती (वाणी), ये ही तीनो मूलस्थान ब्रह्मरंध तक पहुँचाते है।
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निहचल घरि बैसिबा पवन, निरोधिबा कदे न होइगा रोगी।१।
बरस दिन मैं तीनी बर काया पलटिबा, नाग बंग बनासपती जोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की निश्चल रुप से अपने घर बैठना चाहिए यानी आत्मस्थ होना चाहिए, ऐसा करने से साधक कभी रोगी नही होगा। परन्तु साथ ही नाग भस्म, बंग भस्म तथा वनस्पति के प्रयोग से वर्ष भर में तीन बार काया कल्प करना चाहिए यानी काया पलटनी चाहिए।
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अलेष लेषंत अदेष देषंत, अरस परस ते दरस जांणीं।१।
सुंनि गरजंत बाजंत नाद, अलेष लेषंत ते निज प्रवांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो लिखा नही जा सकता, उसका लेखा करने वाले, जिसे देखा नही जा सकता, उसे देखने वाले यानी स्वयं साक्षात्कार करने वाले, ब्रह्मरंध को अनाहत नाद से गर्जित करने वाले, वे निज प्रमाण से यानी स्वयं अपने अनुभव से ब्रह्म को जानते है।
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असाध साधंत गगन गाजंत, उनमनी लागंत ताली।१।
उलटंत पवनं पलटंत बांणीं, अपीव पीवत जे ब्रह्मग्यानीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो असाध्य (मन) को साधते हैं (वश करते है), गगन को (अनाहत नाद से) गर्जित करते है, उन्मनी समाधि लगाते है, पवन को उलटते और सुषुम्ना के मार्ग को पलट देते है। वही अमृत पान करते है, वे ही ब्रह्मज्ञानी है।
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उलटया पवनां गगन समोइ, तब बाल रुप परतषि होई।१।
उदै ग्रहि अस्त हेम ग्रहि पवन मेला, बंधिलै हस्तिय निज साल मेला।२।
बारा कला सोषै सोला कला पोषं, चारि कला साधै अनंत कला जीवै।३।
ऊरम धूरम जोती ज्वाला सीधि, साधंत चारि कला पीवै।૪।
महायोगी गोरख कहते है की पवन को उलटकर ब्रह्मरंध में समावे, तब बाल रुप प्रत्यक्ष होता है। उदय के घर में अस्त लाने से अर्थात मूलाधार स्थित सूर्य को अस्त करने से और चन्द्र हिम के घर ब्रह्मरंध्र में पवन का सम्मिलन करने से बँधा हुआ (बँधकर) हाथी (मन) अपनी शाला में (यानी उस अवस्था मे जो योग सिद्धि के लिए होनी चाहिए) में आ जाता है।
योगी बारह कला (मूलाधार सूर्य) को सोखे (जिससे मूलाधार में सूर्य अमृत का निर्झर सूख न पाए), इससे सोलह कला (सहस्त्रारस्थ अमृतस्त्रावक चन्द्रमा) का पोषण होगा। इस प्रकार चार कलाएँ (सूर्य के ऊपर चन्द्र अमृत) सिद्ध होगी। इस रीति से योगी को अनन्त कलापूर्ण अर्थात ब्रह्मनुभवमय जीवन प्राप्त होगा। विशाल प्रकाशमय ज्योति के दर्शन होंगे, योगी सिद्धि को साधकर चार कला (अमृत) का पान कर लेगा।
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सबद एक पूछिबा कहौ गुरु दयालं, बिरिधि थै क्यूं करि होइबा बालं।१।
फूल्या फूल कली क्यूं होई, पूछे कहै तौ गोरष सोई।२।
सुणौ हो देवल तजौ जंजालं, अमिय पीवत तब होइबा बालं।३।
ब्रह्म अगनि सींचत मूलं, फूल्या फूल कली फिरी फूलं।૪।
महायोगी गोरख से शिष्य एक सवाल पूछते है की हे दयालु गुरु इसका उतर दीजिए। वृद्ध से बालक कैसे हो सकते है। जो फूल खिल चुका है वह फिर से कली कैसे हो सकता है। पूछे जाने पर इसका जो उतर दे, वही गोरखनाथ है।
महायोगी गोरख कहते है की हे नाथो! जगत् के जंजाल को छोड़ो। योग की युक्ति से अमृत का पान ( परमानंद का अनुभव ) करो तो बालक हो सकते हो। ब्रह्माग्नि से मूल को सींचने से जो फूल खिल चुका है, वह फूल भी कली हो सकता है।
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तब जांनिबा अनाहद का बंध, ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध।१।
रकत की रेत अंग थै न छूटै, जोगी कहतां हीरा न फूटै।२।
महायोगी गोरख कहते है की अनाहत प्राप्त कर लिया गया है (बाधँ लिया गया है), यह तभी समझना चाहिए जब त्रैलोक्य में योगी के लिए कोई बाधा शेष न हो और उसका शरीर पात न हो। रक्त का सार रेतस् (शुक्र) शरीर से स्खलित न हो और जोगी कहता है की हीरा नष्ट न हो अर्थात इसी देह के माध्यम से साक्षात ब्रहानुभव हो जाए।
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असार न्यंद्रा बैरी काल, कैसे कर रखिबा गुरु का भंडार।१।
असार तोड़ो, निंद्रा मोड़ौ, सिव सकती ले करि जोड़ौ।२।
महायोगी गोरख कहते है की आहार बैरी है क्योंकि अति आहार से कई खराबियाँ है, जिनमें से नींद का जोर करना एक है। निद्रा काल के समान है। ये गुरु के भंडार ब्रह्मतत्व की चोरी करते है, उसकी अनुभूति नही होने देते। लेकिन गुरु के भंडार की रक्षा कैसे की जाय? भोजन को कम कर दो, निद्रा को मोड़ो अर्थात आने न दो। शिव (ब्रह्मतत्व) और शक्ति (योगिनी कुंडलिनी तत्व) को एक में मिला लो।
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गोरष बोलै सुणिरे अवधू, पंचौ पसर निबारी।१।
अपणी अत्मां आप बिचारी, तब सोवौ पान पसारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत सुनो, पंचतत्वों अथवा पचंज्ञानेन्द्रियों के बाहर की तरफ प्रसार का निवारण करके, यदि अपने आत्मा का स्वयं चिंतन करे, तो मनुष्य की सब चिंताए दूर हो जाती है। वह पाँव पसार कर, निश्चिन्त होकर सो सकता है।
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आसण बैसिबा पवननिरोधिबा, थांन - मांन सब धंधा।१।
बदंत गोरखनाथ आतमां विचारंत, ज्यू जल दीसै चंदा।२।
महायोगी गोरख कहते है की आसन बाँधकर बैठना, प्राणायाम के द्वारा वायु का निरोध करना, कोई पद और तत्संबंधी मान सब धंधे है। इसके अतिरिक्त ये मानना की स्थान विशेष पर बैठकर अभ्यास करने से ही योग सिद्धि हो सकती है, ये सब भी धंधे है। (इनका निरपेक्ष महत्व नही है। ये केवल बाहरी साधन मात्र है।) जो बातें आभ्यंतर ज्ञान को उत्पन्न करती है वे ही योग मार्ग में सब कुछ है। गोरखनाथ कहते है की आत्म तत्व का विचार करने से सारा दृश्यमान जगत वैसे ही परब्रह्म का प्रतिबिम्ब जान पड़ने लगता है जिस प्रकार जल में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है।
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अरघंत कवल उरघंत मध्ये, प्रांण पुरिस का बासा।१।
द्वादस हंसा उलटि चलैगा, तब हीं जोति प्रकासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब नीचे के कमल से ऊपर के कमल में प्राण का वास होने लगे, तब प्राणवायु बहिर्गामी होने की अपेक्षा उलट कर आभ्यंतरगामी हो जायेगी और ज्योति का प्रकाश होगा।
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पाया लो भल पाया लो, सबद थांन सहेती थीति।१।
रुप संहेता दीसण लागा, तब सर्ब भई परतीति।२।
महायोगी गोरख कहते है की मैंने पा लिया। अच्छा (शुभ) पाया, शब्द के द्वारा स्थान (ब्रह्म पद) सहित स्थिति को। तब ब्रह्म के साक्षात दर्शन होने लगे और पूर्ण विश्वास हो गया, मुक्ति में कोई संदेह नही रह गया।
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डंडी सो जे आप डंडै, आवत जाती मनसा षंडै।१।
पंचौ इंद्री का मरदै मांन, सो डंडी कहिये तत समांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की दंडी वह है जो आपा (अहंकार) को दंडित करता है, आती - जाती (चंचल या परिवर्तनशील) कामना (मनसा) को खंडित करता है। पाँचों इन्द्रियों का मान मर्दन करता है। ऐसा ही दंडी ब्रह्मतत्व में लीन होता है। वह शिव स्वरुप हो जाता है।
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अरध - उरध बिचि धरी उठाई, मधि सुनिं मैं बैठा जाई।१।
मतवाला की संगति आई, कथंत गोरषना परमगति पाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की श्वासा (शक्ति) को अरघ (नीचे अंदर जाने वाली वायु) और ऊध्र्व (उच्छवास) के बीच में उठा कर रक्खा अर्थात केवल कुंभक किया और मध्य शून्य (ब्रह्मरंध) में जा बैठा। वहाँ मतवाले शिव (ब्रह्म तत्व) की संगति मिलि। इस प्रकार गोरखनाथ कहते है कि हमें परम गति (परमपद) प्राप्त हो गयी।
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पंच तत सिधां मुडाया, तब भेटिलै निरंजन निराकारं।१।
मन मस्त हस्तो मिलाइ अवधू, तब लूटिलै अषै भंडारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की जब सिद्धो ने पाँच तत्वो को लेकर (ग्रहण कर, वश में कर) मुंडा लिया (चेला, अनुगामी बना लिया), तब निरंजन निराकार से भेंट की। हे अवधूत मन रुपी मस्त हाथी जब अपना हो जाता है (मन पर संयम सिद्ध हो जाता है), तब अक्षय भंडार लूटने को मिल जाता है।
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अवधू मनसा हमारी गींद बोलिये, सुरति बोलिये चौगानं।१।
अनहद ले षेलिबा लागा, तब गगन भया मैदानं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! मनसा हमारी गेंद है और सुरति ( मन की उल्टी गति अर्थात आत्मस्मृति) चौगान। अनहद का घोड़ा बनाकर मै खेलने लगा। इस प्रकार ब्रह्मरंध्र (गगन या शून्य) मेरे खेलने का मैदान हो गया।
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दृष्टि अग्रे दृष्टि लुकाइबा, सुरति लुकाइबा कांनं।१।
नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तब रहि गया पद निरबांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! इन्द्रियो को उनके विषयों से हटाओ। दृष्टि (चक्षुरिंद्रिय) के आगे से दृष्टि (देखने की शक्ति) को छिपाओ, कान के आगे से श्रुति (सुनना), नाक के आगे से वायु को छिपाओ (श्वसन)। ऐसा करने से फिर केवल निर्वाण पद शेष रह जाता है। इसमें प्रत्याहार की आवश्यकता बतायी गयी है।
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गोरष कहै सुणौ रे अवधू, सुसूपाल थैं डरिये।१।
ले मुदिगर की सिर मैं मेलै, तौ बिनही षूटी मरिये।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शिशुपाल (काल) से डरना चाहिए, अगर वह मुगदर को सिर पर मारे तो आयु के बिना समाप्त हुए ही (अकाल ही) आदमी मर जाए, यानी अकाल भी काल आकार इस भौतिक शरीर की आयु को खा जाता है इसलिए सावधान रहो, हर पल श्रुति परम मे लगी रहे। पता नही कब ये मायावी प्रपंच काल का ग्रास बन जाए??
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नाथ कहै तुम आपा राषौ, हठ करि बाद न करणां।१।
यहु जुग है कांटे की बाड़ी, देषि देषि पग धरणा।२।
महायोगी गोरख कहते है की उनका योगियो के लिए यही उपदेश है की तुम अपने आपा (आत्मा) की रक्षा करो, हठ पूर्वक वाद (खडंन - मडंन) में न पड़ो। यह संसार कांटे की खेत की तरह है जिसमें पग - २ पर कांटे चुभने का डर रहता है। इसलिए देख देख कर कदम रखना चाहिए यानी बहुत युक्ति से जीवन जीना चाहिए।
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गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मै ऐसै रहणां।१।
आंषै देषिबा कांनै सुणिबा, मुष थै कछू न कहणां।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगियो के लिए यह गोेरखनाथ का उपदेश है की इस दुनिया में साक्षी भाव से रहना चाहिए। इसमें लिप्त नही होना चाहिए, इस दुनिया के तमाशे को तमाशबीन की तरह देखते रहो। आखो से देखते हुए व कानो से सुनते हुए भी मुख से कुछ नही कहना चाहिए। जगत के बीच रहकर भी खुद इस प्रपंच मे न पड़े।
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बैठा अवधू लोह की षूंटी, चलता अवधू पवन की मूंठी।१।
सोवता अवधू जीवता मूवा, बोलता अवधू प्यंजरै सूवा।२।
महायोगी गोरख कहते है की अवधूत योगी जब (आसन मारे) बैठा रहता है तो वह लोहे की खूंटी के समान निश्चल होता है। जब चलता है तो पवन की मुट्ठी बाँध कर (यानी वायुवेद से), जोगी जब सोता है तो वह जीते जी मृतक के समान है। लेकिन जो बहुत बोलता फिरता है उसे समझना चाहिए कि अभी बंधन मुक्त नही हुआ है।
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प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।१।
प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास।२।
महायोगी गोरख कहते है की यदि शरीर में परमात्मा होता तो कोई मरता ही नही। यदि ब्रह्मांड में होता तो हर कोई उसे देखता। जैसे ब्रह्मांड की और चीजे दिखाई देती हैं वैसे ही वह भी दिखाई देता। मत्स्येन्द्र का सेवक (शिष्य) गोरख कहता है की वह पिंड और ब्रह्मांड दोनो से परे है।
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हिन्दू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।१।
जोगी ध्यावै परमपद, जहाँ देहुरा न मसीत।२।
महायोगी गोरख कहते है की हिन्दू देवालय में ध्यान करते है, मुसलमान मस्जिद में, किन्तु योगी परमपद का ध्यान करते है जहाँ न देवालय है न ही मस्जिद है।
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उतरखंड जाइबा सुंनिफल खाइबा, ब्रह्म अगनि पहरिबा चीरं।१।
नीझर झरणै अंमृत पीया, यूं मन हूवा थीरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की बड़े - बड़े तपस्वी योग सिद्धि की आशा से गेरुआ धारण कर उतराखंड (बदरिकाश्रम आदि स्थानों) में जाकर झरने का जल और जंगलो के कंदमूल फल पर निर्वाह करते है। किन्तु गोरखनाथ जिस उतराखण्ड (ब्रहारंध्र) में जाने का उपदेश करते है उसमें ब्रह्मग्नि का वस्त्र पहनने को, अमृत - निर्झर से झरने वाला अमृत पीने को और शून्यफल (ब्रह्मरंध में मिलने वाला फल, ब्रह्यनुभूति) खाने को मिलता है। गोरख ने अपने चंचल मन को इसी प्रकार से स्थिर किया।
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बिरला जाणंति भेदांनिभेद, बिरला जांणति दोइ पष छेद।१।
बिरला जाणंति अकथ कहांणीं, बिरला जाणंति सुधिबुधि की वांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की अभेद के भेद को, अद्वैत के रहस्य को कोई विरला ही जानता है। द्वैत के पक्ष का निरसन किसी विरले को आता है। ब्रह्म की अकथनीय कथा को भी कोई विरले ही जानते है। सिद्धो - बुद्धो की वाणी को कोई विरला ही समझ पाता है।
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नग्री सोभंत जल मूल बिरषा, सभा सोभंत पंडिता पुरषा।१।
राजा सोभंत दल प्रवांणी, यू सिधा सोंभत सुधि बुधि की वांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की नगर उधान तथा तड़ागो से सुशोभित होता है। सभा की शोभा पंडित (विद्वान) लोग है। राजा की शोभा उसकी विश्वसनीय सेना है। इसी प्रकार सिद्ध की शोभा आध्यात्मिक सता की याद दिलानेवाली अथवा निर्मल शुद्ध बुद्धि युक्त वाणी है।
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उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पीयबा नींझर पांणीं।१।
लंका छाडि पलंका जाइबा, तब गुरमुष लेबा बांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की उन्मनावस्था में लीन रहना चाहिए। किसी से अपना भेद (रहस्य) न कहना चाहिए। (अमृत के) झरने पर पानी (अमृत) पीना चाहिए। गुरु के मुख से ज्ञानोपदेश सुनने के लिए लंका क्या परलंका (लंका के परे, दूर से भी दूर जाना पड़े तो) जाना चाहिए। अथवा माया (लंका, राक्षसों की मायाविनी नगरी) को छोड़ कर उससे परे, (परलंका) ही जाना चाहिए। तभी गुरु का दिया ज्ञानोपदेश ह्रदयंगम हो सकता है।
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मन मैं रहिणां भेद न कहिणां, बोलिबा अंमृत बांणीं।१।
आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पांणीं।२।
महायोगी गोरख कहते है की किसी वन, प्रान्त, देश आदि स्थूल स्थानो पर रहने की अपेक्षा निज मन मे रहना चाहिए अर्थात बहिर्मुख वृतियों को अंतर्मुख कर देना चाहिए। अपने मन का रहस्य किसी से नही कहना चाहिए, क्योंकी इस रहस्यमय परमात्म अनुभूति को कोई समझने वाला नही है। ये तो निज अनुभव का विषय है। हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए। अगर दूसरा आदमी तुम पर आग बबूला हो जाये तो तुम्हे पानी हो जाना चाहिए। सरलचित होकर क्षमा कर देना चाहिए।
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प्यंडै होइ तौ पद की आसा, बंनि निपजै चौतारं।१।
दूध होई तौ घृत की आसा, करणीं करतब सारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की पर ब्रह्म घट घट व्यापी है। इसे लोग स्थूल अर्थ में यों समझते है कि शरीर में वह कहीं पर है। यदि ऐसा है तो परमात्मा की शरीर के अन्दर किसी भाग मे ही मिलने की आशा होनी चाहिए। कुछ लोग परमात्मा की प्राप्ति के लिए वन - जंगल फिरा करते है। यदि ब्रह्मनुभूति सचमुच वन ही में उत्पन्न होती है तो उसे चौपायों में भी देखने की आशा करनी चाहिए। कुछ लोग केवल दूध पर रह कर परमात्मा को प्राप्त करना चाहते है। यदि दूध में परमात्मा है तो उसे घी के रुप में देखने की आशा करनी चाहिए। परन्तु असल में इन बाहरी बातों से परमात्मा नहीं मिलता। इसका सार उपाय करणी - करतब, योग युक्ति अर्थात समुचित रहनी है। आपका जीवन योगयुक्त होकर, परम की दिशा मे क्रियान्वित हो आपकी श्रेष्ठतम करणी के द्वारा।
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अभरा तथा तें सूभर भरिया, नीझर झरता रहिया।१।
षांडे थै षुरसाण दुहेला, यूं सतगुरु मारग कहिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो अभरा था ( ब्रह्मानुभूति से रहित होने के कारण खाली था) (योग की साधना से) वह भी भर गया। (अर्थात ज्ञान पूर्ण हो गया, उसे ब्रह्मानुभूति हो गयी) उसके लिए लिए निरंतर अमृत का निर्झर झरने लगा। (परन्तु जिस मार्ग से यह संभव होता है) गुरु का बताया हुआ यह मार्ग खड्ग से भी तीक्ष्ण और कठिन है।
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सुसबदे हीरा बेधिलै अवधू, जिभ्या करि टकसाल।१।
औगुंन मध्ये गुंन करिलै, तौ चेला सकल संसार।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिह्वा की टकसाल बनाकर वहाँ अभेध परमतत्व रुप हीरे को सु-शब्द (सोहं हंस:, अजपा मंत्र) के द्वारा बेधो। इस प्रकार अवगुणमय असत् मायावी जगत में भी अपने लिए गुण ( त्रैगुण्य नहीं सद्गुण) का लाभ कर लो अर्थात सत् का अनुभव करो। ऐसा होने पर सारा संसार तुम्हारा चेला हो जायेगा
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पढ़ि देखि पंडिता रहि देषि सारं, अपणीं करणीं उतरिबा पारं।१।
बदंत गोरषनाथ कहि धू साषी, घटि घटि दीपक (बलै) षणि पसू न (पेषे) आंषी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे पंडित, जिसको तुमने पढ़कर देखा है, उस सार ज्ञान को रह कर भी देखो। ( केवल पढ़ना ही काफी नही है, साधना द्वारा निज का अनुभव भी चाहिए।) पार उतरना कोरे ज्ञान से नही अपनी करनी (कृत्यों) से ही संभव होता है। गोरखनाथ कहते है कि मै किसको साक्षी दूँ कि घट - घट में ब्रह्म की ज्योति जगमगा रही है। ये तो वैसी ही बात हो गयी जैसे पशु (मृग) अपने मे ही स्थित आँख (कस्तूरी) को देख नही पाता और भटकता रहता है।
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केता आवै केता जाई, केता मांगै केता खाई।१।
केता रुष विरष तलि रहै, गोरष अनभै कासौ कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की साधक बाहरी क्रियाओ को योग समझे हुए है। कितने (जंगम) बराबर आते ही जाते रहते है। कितनो ने माँगना - खाना ही योग समझ रखा है। कितनो के लिए बस्ती से अलग पेड़ो के नीचे रहना ही योग है। सब इस प्रकार बाहरी बातो मे पड़े हुए है, गोरख अभय ज्ञान कहे तो किस से?? (यानी कोई पात्र हो तभी तो उसको सच्चा ज्ञान दे, यहाँ तो अपने मनमत अनुसार सब लगे हुए है।)
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उठंत पवनां रवी तपंगा, बैठंत पवनां चंदं।१।
दहूँ निरंतरि जोगी बिलंबै, बिंद बसै तहाँ ज्यंदं।२।
महायोगी गोरख कहते है की सूर्य नाड़ी मे चलता हुआ पवन बहुत तीव्र गति से चलता है। जब चन्द्र नाड़ी में उसकी गति होती है तब वह बैठ (थम) सा जाता है। जब श्वास बाहर निकलता है तब सूर्य नाड़ी चलती है, और जब भीतर प्रवेश करता है तब चन्द्र नाड़ी। योगी दोनों से अलग सुषुम्णा नाड़ी की शरण में आश्रय लेता है। क्योंकी जहाँ बिन्दु का निवास है वही अमर जीवन तत्व (जिन्दा) का भी है।
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अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमंकै, तेजंग नाड़ी पवनं।१।
सीतंग नाड़ी ब्यंद का बासा, कोई जोगी जानत गवनं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! आदि सूक्ष्म सुषुम्णा नाड़ी में नाद की झमक होती है, गरम पिंगला (सूर्य) नाड़ी मे पवन का संचार होता है, शीतल (इड़ा अथवा चन्द्र) नाड़ी में वीर्य का निवास है, इनकी गति को कोई विरला ही योगी जानता है
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उलटंत नादं पलटंत ब्यंद, बाई कै घरि चीन्हसि ज्यंद।१।
सुंनि मडंल तहाँ नीझर झरिया, चंद सुरजि लै उनमनि धरिया।२।
महायोगी गोरख कहते है की चन्द्र और सूर्य के योग से जब उन्मनावस्था आती है तब ब्रह्मरंध (शून्य मंडल) में अमृत का निर्झर झरने लगता है। नाद उलट जाता है। नाद सूक्ष्म शब्द तत्व का क्रियमाण स्वरुप है जो क्रमश: स्थूल रुप में परिणत होता हुआ सृष्टि का कारण होता है। उसका सृष्टि निर्मायक स्थूल स्वरुप अपने मूल स्त्रोत की ओर मुड़ जाता है। और नीचे उतरता हुआ बिन्दु ऊध्र्वगामी हो जाता है और वायु में ही, जिसके ऊपर काल का प्रभाव बहुत दिखाई देता है, अमर तत्व (जिन्दा) पहचाना जाता है।
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अमावस कै घरि झिलिमिलि चंदा, पूनिंम कै घरि सूरं।१।
नाद कै घरि ब्यंद गरजै, बाजंत अनहद तूरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की 'सहस्त्रार' में अमृतस्त्रावक चन्द्रमा स्थित है पर उसके प्रभाव से सामान्यतया जीव वंचित रहता है, क्योंकि अमृत के स्त्राव को मूलाधार स्थित सूर्य सोख लेता है। चन्द्रमा के प्रभाव से यही वंचित रहना 'अमावस' से अभिप्रेत है। जहाँ पहले अमावस थी, चन्द्रमा का प्रभाव नही था, वहाँ अब चन्द्रमा झिलमिल चमकने लगा है, पूर्ण प्रभाववाला हो गया है। यही सूर्य - चंद्र संयोग योग साधनो का प्रधान उद्देश्य है। इससे नाद में बिन्दु (शुक्र) समा गया है और अनाहत नाद की तुरी बजने लगी है।
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अवधू सहंस्त्र नाड़ी पवन चलैगा, कोटि झमंकै नादं।१।
बहतरि चंदा बाई सोष्या, किरणि प्रगटी जब आदं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! शरीर मे फैले हुए सहस्त्र नाड़ी जाल मे जब पवन का संचार होगा, तब करोड़ो नादों के समान अनाहत नाद झमक उठेगा। जब ब्रह्म का मूल प्रकाश (आदि किरण) प्रकट होगा तब वायु बहतरों चन्द्रमाओं को सोख लेगी।
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सास उसास बाइ कौं भाषिबा, रोकि लेहु नव द्वारं।१।
छठै छमासि काया पलटिबा, तब उनमँनीं जोग अपारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की केवल कुम्भक द्वारा श्वासोच्छ्वास का भक्षण करो। नवो द्वारों को रोको। छठे छमासे कायाकल्प के द्वारा काया को नवीन करो। तब उन्मन योग सिद्ध होगा।
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यहु मन सकती यहु मन सीव, यहु मन पांच तत का जीव।१।
यहु मन ले जै उन मन रहै, तौ तीनि लोक की बातां कहै।२।
महायोगी गोरख कहते है की यही मन शिव है, यही मन शक्ति है, यही मन पंच तत्वो से निर्मित जीव है (मन का अधिष्ठान भी शिवतत्व परब्रह्म ही है। माया (शक्ति) के संयोग से ही ब्रह्म मन के रुप मे अभिव्यक्त होता है और मन ही से पंच भूतात्मक शरीर की सृष्टि होती है। इसलिए मन का बहुत बड़ा महत्व है।) मन को लेकर उन्मनावस्था मे लीन करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है, तीनो लोकों की बाते कह सकता है।
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अवधू दंम कौ गहिबा उनमनि रहिबा, ज्यूं बाजबा अनहद तूरं।१।
गगन मंडल मै तेज चमंकै, चंद नही तहां सूरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत! दम (प्राण) को पकड़ना चाहिए, प्राणायाम के द्वारा उसे वश मे करना चाहिए। इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी। अनाहत नाद रुपी तुरी बज उठेगी और ब्रह्मरंध मे बिना सूर्य या चंद्रमा के (ब्रह्म) का प्रकाश चमक उठेगा।
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अवधू नव घाटी रोकि लै बाट, बाई बणिजै चौसठि हाट।१।
काया पलटै अविचल बिध, छाया बिबरजित निपजै सिध।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे! अवधूत! शरीर के नवो द्वारो को बन्द करके वायु के आने जाने का मार्ग रोक लो। इससे चौसठो संधियो मे वायु का व्यापार होने लगेगा। इससे निश्चय ही कायाकल्प होगा, साधक सिद्ध हो जायेगा जिसकी छाया नही पड़ती।
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चालत चंदवा षिसि षिसि पड़ै, बैठा ब्रह्म अगनि परजलै।१।
आडै आसणि गोटिका बंध, जावत प्रथिमी तावत कंध।२।
महायोगी गोरख कहते है की चंचलता (चालत) से चंद्र स्त्राव (अमृत) खिसक खिसक कर क्षरित हो जाता है। स्थिरता (बैठा) से ब्रह्माग्नि प्रज्वलित होती है। तिरछी ( अर्थात चल और स्थिर के बीच की) अवस्था (आदि) मे अभ्यास से वह सिद्धि (गोटिका बंध) प्राप्त होती है जिससे योगी इच्छानुसार अदृश्य हो जाता है (कहते है कि सिद्ध योगी अभिमंत्रित गोली (गुटिका) मुँह में रखकर अदृश्य हो जाता है) और अमरत्व प्राप्त कर लेता है जिससे जब तक पृथ्वी रहती है तब तक उसका शरीर भी रहता है।
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मनवां जोगी गाया मढी, पंच तत ले कंथा गढ़ी।१।
षिमा षड़ासण ग्यान अधारी, सुमति पावड़ी डंड बिचारी।२।
महायोगी गोरख कहते है की शरीररुपी मढ़ी मे मन रुपी जोगी रहता है जिसने अपने लिए पाँच तत्व की कंथा बनाई है। वह क्षमा का खड़ासन, ज्ञान की अधारी, सद्बुद्धि की खड़ाऊँ और विचार का डंडा उपयोग मे लाता है। (काठ के डंडे से लगी हुई अधारी होती है जिसे योगी व साधु सहारे के लिए रखते है। इसी प्रकार का खड़ासन भी होता है जिसके सहारे खड़ा होकर भी आराम रहता है।) लेकिन यहा गोरख कह रहे है की शरीर का नही मन का योग वास्तविक योग है। बाह्म युक्तियो को छोड़ कर आभ्यंतर की युक्तियो को ग्रहण करना चाहिए।
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पाषंडी सो काया पषालै, उलटि पवन अगनि प्रजालै।१।
व्यंद न देई सुपनै जाण, सो पाषंडी कहिए तत समांन।२।
महायोगी गोरख कहते है की योगी पाखंडी नही होता है। लेकिन योगी का पाखंड यह है की वह योग की क्रियाओ से काया का प्रक्षालन करता है, उसे निर्मल बनाता है। पवन को उलट कर (प्राणायम के द्वारा) योगाग्नि को प्रज्वलित करता है, कुण्डलिनी को जगाता है, बिन्दु को सपने मे भी स्खलित नही होने देता। ऐसे पाखंडी को तत्व मे समाया हुआ समझना चाहिए।
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अमरा निरमल पाप न पुंनि, सत रज बिबरजित सुंनि।१।
सोहं हंसा सुमिरै सबद, तिहिं परमारथ अनंत सिध।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की जो (अंतर्लीन) मुनि, सत् - रजस् - तमस् , इस त्रैगुण्य से विवर्जित है, पाप - पुण्य से रहित है, निर्मल है, अमर है, "सोहं हंस:" इस आभ्यंतर शब्द का स्मरण करता है अर्थात अजपाजाप जपता रहता है, उसे अनन्त परमार्थ सिद्ध हो जाता है।
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गिरही सो जो गिरहै काया, अभि अंतरि की त्यागै माया।१।
सहज सील का धरै सरीर, सो गिरही गंगा का नीर।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की योगी गृही (घरबारी) नही है। यदि वह गृही है (संकेत रुप मे) तो ऐसा है जो अपने शरीर को पकड़े हुए, वश मे किये हुए रहता है। अंत:करण से माया को त्याग देता है। वह इतना शीलवान है कि जैसे पूरा शरीर ही स्वाभाविक शील का बना हुआ है। वह गृही गंगाजल है, शुद्ध है, औरो को भी शुद्ध करने वाला है। ऐसे योगी का देवाधिदेव शिव भी आदर करते है।
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घरबारी सो घर की जाणै, बाहरि जाता भीतरि आणै।१।
सरब निरंतरि काटै माया, सो घरबारी कहिए निरञ्जन की काया।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की योगी घरबारी नही होता, यदि वह घरबारी है तो ऐसा कि जिसे अपने घर (काया) का पूरा ज्ञान है। अपने घर की जो वस्तु बाहर जा रही हो, नष्ट हो रही हो (श्वास और शुक्र) उसको वह भीतर ले जाता है, उसकी रक्षा करता है। वह सब से अभेद भाव रखते हुए निर्लिप्त रहता है और माया का खंडन कर देता है। ऐसे घरबारी को मायारहित निरंजन ब्रह्म का शरीर अर्थात ब्रह्मतुल्य समझना चाहिए।
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धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन नही संताप।१।
अहूठ पटण मैं भिष्या करै, ते अवधू सिव पुरी संचरै।।२।।
महायोगी गोरख कहते है की योगी धूर्त नही होता है, लेकिन दुनियावी दृष्टि मे अगर वह धूर्त है भी तो वह ऐसा धूर्त है जो अपने आपा (अहंकार) को ठग लेता है। वह भिक्षा माँग कर भोजन करता है और उसे कोई सतांप नही होता। साढ़े तीन हाथ (अहुठ) का शरीर ही वह नगर है जिसमे घूम फिर कर वह भिक्षा माँगता है। हे अवधूत! ऐसे धूर्त शिवलोक (ब्रह्मरंध्र) में सचंरण करते है।
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पावड़िया पग फिलसै अवधू लोहै छीजंत काया।१।
नागा मूनी दूधाधारी एता जोग न पाया।२।
दूधाधारी पर घरि चित, नागा लकड़ी चाहै नित।३।
मोनीं करै म्यंत्र की आस, बिन गुरु गुदड़ी नही बेसास।૪।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत ! (शरीर को वश मे करने के बाहरी उपायो से योग सिद्धि नही होती)। पावड़ी पहनने वाला चलने मे फिसल जाता हेै। लोहे की साँकलो से जकड़ने से शरीर नष्ट होता है। नागा, मौनी और केवल दूध पीकर रहने वाले, इतनो को योग लाभ नही होता। क्योंकि पयाहारी (दूध पर ही रहने वाले) का मन सदा दूसरे के घर रहता है, (सोचता रहता है, अमुक के यहाँ से दूध आ जाता तो अच्छा होता), नागा शरीर को गरम रखने के लिए सदैव लकड़ी चाहता है। मौनी को एक साथी की जरुरत होती है जो उसके बदले बोल कर मार्ग देखा सके।
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घटि घटि गोरख फिरै निरुता, को घट जागे को घट सूता।१।
घटि घटि गोरष घटि घटि मींन, आपा परचै गुर मुषि चींन्ह।२।
महायोगी गोरख कहते है की घट घट मे गोरख बिना आहट (बिना दूसरो के जाने) के फिरता है। ब्रह्म प्रत्येक घट मे विधमान है। किसी शरीर मे वह जाग रहा है, किसी मे सो रहा है। घट घट मे गोरख है, घट घट मे मीन (मत्स्येन्द्र) है। गुरु और शिष्य मे कोई भेद नही है। गुरू तो ब्रह्मविद होता ही है, शिष्य भी उसके दिखाये मार्ग का अनुसरण कर ब्रह्मवित् अर्थात ब्रह्म ही हो जाता है। गोरख अपने गुरु मीन के प्रभाव से कैवल्यपद को प्राप्त हुए है। गुरु के इसी महत्व को दिखाने के लिए गोरखनाथ जी ने यहाँ पर मीन (मत्स्येन्द्रनाथ) का उल्लेख किया है। गुरू मुख शिक्षा से आत्म परिचय (आत्म ज्ञान) प्राप्त करो।
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घटि घटि गोरख बाही क्यारी, जो निपजै सो होइ हमारी।१।
घटि घटि गोरष कहै कहांणी, काचै भांडै रहे न पांणी।२।
महायोगी गोरख कहते है की गोरख ( तत्व रुप व सार रुप मे गोरख स्वयं ब्रह्म है, पूर्ण परमात्मा है) ने प्रत्येक व्यक्ति शरीर रुप क्यारी को जोता बोया है अर्थात प्रत्येक ह्रदय मे बीज रुप मे गोरख (परमात्मा) विधमान है, किन्तु हमारी (गोरख की या परमात्मा की) वही क्यारी है जिसमे कुछ उपज हो जाए। यानी वही ब्रह्मलीन हो सकता है जो उस अन्त:स्थ ब्रह्म का स्वानुभव कर ले। गोरख तो प्रत्येक शरीर मे अपना उपदेश कर रहे है, अनाहत नाद हो रहा है। किन्तु इसका लाभ वे ही उठा सकते है जिन्होने अपनी काया को सिद्ध कर लिया है। क्योकी कच्ची हाँडी मे पानी नही ठहर सकता है यानी जिन्होने अपनी काया को सिद्ध नही किया है वे इसमे लाभ नही उठा सकते है।
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अति अहार यंद्री बल करै, नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।१।
ब्यापै न्यंद्रा झंपै काल, ताके हिरदै सदा जंजाल।२।
महायोगी गोरख कहते है की अधिक आहार करने से इन्द्रियाँ बलवती हो जाती है, जिससे ज्ञान नष्ट हो जाता है। व्यक्ति वासना तृप्ति की इच्छा करने लगता है, निंद बढ जाती है और काल उसे ढक लेता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा उलझन मे पड़ा रहता है।
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अवधू निद्रा कै घरि काल जंजालं, अहार कै घरि चोरं।१।
मैथुन कै घरि जुरा गरासै, अरध - उरध लै जोरं।२।
महायोगी गोरख कहते है की निद्रा में आसक्ति से जीव काल के जंजाल मे फँसता है, आहार मे आसक्ति से चोर (कामदेव) का ह्रदय में प्रवेश होता है, मैथुन से बुढ़ापा आ घेरता है। इसलिए नीचे गिरनेवाले (अरध) रेतस को ऊधर्वावस्था से जोड़ना चाहिए, यानी ऊधर्वरेता होना चाहिए।
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देव कला ते संजम रहिबा, भूत कला अहारं।१।
मन पवना लै उनमनि धरिबां, ते जोगी तत सारं।२।
महायोगी गोरख कहते है की आहार उतना ही करना चाहिए जितने से (पाँच भौतिक) शरीर की रक्षा हो सके और अपने देवत्व की रक्षा के लिए संयम से रहना चाहिए। जो जोगी मन पवन को संयुक्त कर उन्मनावस्था मे लीन कर देते है वे ही तत्व का सार प्राप्त कर पाते है।
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थोड़ा बोलै थोड़ा षाइ, तिस घटि पवनां रहै समाइ।१।
गगन मंडल से अनहद बाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरु लाजै।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो थोड़ा बोलता और थोड़ा खाता है, उसके शरीर मे पवन समाया रहता है। जिससे आकाश मडंल (ब्रह्मरंध) मे अनाहत नाद सुनायी देता है। इसलिए अमरतत्व प्राप्त करने का साधन हमारे ही पास होने पर भी यदि यह शरीर पात हो जाए तो सद्गुरु के लिए लज्जा की बात है।
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अवधू अहार तोड़ौ निद्रा मोड़ौ, कबहुँ न होइगा रोगी।१।
छठै छ मासै काया पलटिबा, ज्यूं को को बिरला बिजोगी।२।
महायोगी गोरख कहते है की हे अवधूत आहार तोड़ो, मिताहार करो, नींद को अपने पास न फटकने दो, छठे छमासे कायाकल्प किया करो। इससे तुम कभी रोगी नही होओगे। कोई कोई बिरले जोगी ऐसा कर सकते है।
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स्वामी बन षंडि जाउं तो षुध्या व्यापै, नग्री जाउं त माया।१।
भरि भरि षाउं त बिंद बियापै, क्यों सीझति जल ब्यंद की काया।२।
हे स्वामी जो बन खंड जाता हूँ तो क्षुधा व्यापती है, भूख सताती है, नगर मे जाता हूँ
तो माया आकृष्ट करती है और भर भर खाता हूँ तो शुक्र के बढ़ने से काम वासना सताती है।
जल बूंद (शुक्र) से निर्मित इस शरीर को किस प्रकार सिद्ध बनायें, समत्वावस्था मे लायें ??
वाये न षाइबा भूषेन मरिबा, अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि का भेवं।३।
हठ न करिबा पड्या न रहिबा, यूँ बोल्या गोरष देवं।૪।
महायोगी गोरख कहते है की भोजन पर टूट नही पड़ना चाहिए (अधिक नही खाना चाहिए)। न भूखे ही मरना चाहिए। रात दिन ब्रहाग्नि को ग्रहण करना चाहिए। शरीर के साथ हठ नही करना चाहिए और न ही पड़ा ही रहना चाहिए।
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सारमसारं गहर गंभीरं, गगन उछलिया नादं।१।
मानिक पाया फेरि लुंकाया, झूठा बाद बिबादं।२।
महायोगी गोरख कहते है की साधना के द्वारा ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचने पर अनाहत नाद सुनाई दिया, जो सार का भी सार और गंभीर से भी गंभीर है। इससे ब्रह्मनुभूति रुपी माणिक्य हाथ लगा। परन्तु वह माणिक्य व्यक्तिगत साधना से प्राप्त होने पर भी दुनिया के लिए छिपा ही रहा। (वह स्वसंवेध है, वाणी से किसी को बताया नही जा सकता। इस अनुभूति के मिल जाने पर ज्ञात हुआ की सारा वाद विवाद झूठा है। सच्ची तो केवल अनुभूति है।
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नाथ कहंतां सब जग नाथ्या, गोरष कहतां गोई।१।
कलमा का गुरु महंमद होता, पहलै मूबा सोईं।२।
महायोगी गोरख कहते है की शब्दो के ब्राह्मर्थ पर नही जाना चाहिए, उनका तत्वार्थ ग्रहण करना चाहिए। इसी तत्वार्थ दृष्टि के अभाव मे, माया को अपने वश में रखनेवाले 'नाथ' का नाम लेते हुए भी सारा संसार माया के द्वारा नाथ डाला गया। यानी गोरख का नाम लेने वालो के लिए भी उनका सच्चा आध्यात्मिक जीवन गुप्त ही रह गया। इसी प्रकार खाली कलमा के शब्द भी किसी का उद्धार नही कर सकते। कलमा को चलाने वाले मुहमद भी बचे न रह सके। (योगी अपने गुरुओं को इसी शरीर मे अमर मानते है)।
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महंमद महंमद न करि काजी, महंमद का विषम विचारं।१।
महंमद हाथि करद जे, होती लोहै घड़ी न सारं।२।
सबदै मारी सबदँ जिलाई, ऐसा महंमद पीरं।३।
ताकै भरमि न भूलौ, काजी सो बल नही सरीर।૪।
महायोगी गोरखनाथ जी कहते है की हे काजी "मुहम्मद मुहम्मद " न करो (क्योकी तुम मुहम्मद को जानते नही हो। तुम समझते हो कि जीव हत्या करते हुए तुम मुहम्मद के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो) परन्तु मुहम्मद का विचार बहुत गंभीर और कठिन है। मुहम्मद के हाथ मे जो छुरी थी वह न लोहे की गढ़ी हुई थी न इस्पात की जिससे जीव हत्या होती है।
(जिस छुरी का प्रयोग मुहम्मद करते थे वह सूक्ष्म छुरी "शब्द" की छुरी थी।) वह शिष्यों की भौतिकता को इसी शब्द की छुरी से मारते थे जिससे वे संसार की विषय वासनाओ के लिए मर जाते थे। परन्तु उनकी यह शब्द की छुरी वस्तुत: जीवन प्रदायिनी थी क्योकी उनकी बहिर्मुखता के नष्ट हो जाने पर ही उनका वास्तविक आभ्यंतर आध्यात्मिक जीवन आरम्भ होता था। मुहम्मद ऐसे पीर थे। हे काजियो, उनके भ्रम मे न भूलो, तुम उनकी नकल नहीं कर सकते। तुम्हारे शरीर मे वह (आत्मिक) बल ही नही है, जो मुहम्मद में था। ( गोरख कह रहे है की मुहम्मद जिन बातों को आध्यात्मिक दृष्टि से कहते थे, उनको उनके अनुयायियों ने भौतिक अर्थ मे समझा)
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बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।१।
गगन सिषर महिं बालक बोलै ताका नावँ धरहुगे कैसा।।२।।
महायोगी गोरखनाथ जी कहते है की परम तत्व तक किसी की पहुँच नही है (अगम)। वह इन्द्रियों का विषय नही है (अगोचर)। वह ऐसा है कि न उसे हम बस्ती कह सकते है (यानी न यह कह सकते की वह कुछ है (बस्ती) ) और न शून्य (न यह की वह कुछ नही)। वह भाव (बस्ती) और अभाव (शून्य), सत् और असत् दोनो से परे है। वह आकाश मण्डल मे बोलनेवाला बालक है (आकाश मण्डल मे बोलनेवाला इसलिए कहा कि शून्य अथवा आकाश या ब्रह्मारंध मे ही ब्रह्म निवास माना जाता है, वही पहुचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है। वही पर आत्म अनुसंधान करना चाहिए। बालक इसलिए कि जिस प्रकार बालक पाप पुण्य से अछूता है, उसी प्रकार परमात्मा भी है। जरा मरण से दूर, काल से अस्पृष्ट सतत् बाल स्वरुप ही योगियो का साध्य आदर्श है। इसलिए (गोरख) "गोरख गोपालं" व "बूढ़ा बालं" कहे जाते है।) उसका नाम कैसे रखा जा सकता है ?? (क्योंकी वह नाम और रुप दोनों उपाधियो से परे है)।
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नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू , दिढ करि राषहु चीया।१।
काम क्रोध अंहकार निबारौ, तौ सबै दिसंतर कीया।२।
महायोगी गोरखनाथ कहते है की वैसे तो योगियों का कोई घरबार नही, सारी दुनिया उनका घर है। वे सर्वत्र घुमते है, यह उनकी विरक्ति का सूचक है। किन्तु कुछ को देशाटन की ही आदत पड़ जाती है और वे इसी मे लगे रहते है। इसलिए गोरखनाथ जी अवधूतो को उपदेश करते है की देश - देशान्तर मे जाना स्वयं देशान्तर के उद्देश्य से आवश्यक नही है। यदि चित स्थिर है और काम क्रोध का निवारण हो गया है तो सब देशान्तर हो गए। क्योकी निवृति के ही अर्थ देशान्तर किया जाता है, जो चित की स्थिरता से निष्पन्न हो जाता है।
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भरया ते थीरं, झलझंलति आधा।१।
सिधे सिध मिल्या रे अवधू, बोल्या अरु लाधा।२।
महायोगी गोरखनाथ जी कहते है की जो ज्ञान से पूर्ण है, जो भरपूर है, वे स्थिर व गंभीर होते है। वे अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते नही फिरते। जो अधकचरे है वे छलछलाते रहते है, चंचलतावश जगह - जगह ज्ञान छाँटते रहते है (लेकीन इससे किसी का लाभ नही होता)। सिद्ध ऐसे लोगो से नही बोलते! हे अवधूत ! जब सिद्ध से सिद्ध मिलता है तभी उनमें वार्तालाप संभव है। इस प्रकार की चर्चा से उन्हे लाभ भी होता है। भरा पात्र नही छलकता आधा ही छलकता है।
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हबकि न बोलिबा, ठबकि न चालिबा, धीरै धारिबा पावं।१।
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणत गोरष रावं।२।
महायोगी गोरख कहते है की सब व्यवहार 'युक्ति' से होना चाहिए, सोच समझकर करना चाहिए। अचानक फट से नही बोलना चाहिए। जोर से पाँव पटकते हुए नही चलना चाहिए। धीरे धीरे पाँव रखना चाहिए। गर्व (अभिमान) नही करना चाहिए। सहज स्वभाविक स्थिति मे रहना चाहिए, यह गोरखनाथ का उपदेश (कथन) है।
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गगन मंडल मै ऊंधा कूबा, तहां अंमृत का वासा।१।
सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा।२।
महायोगी गोरख कहते है की आकाश मंडल (शून्य अथवा ब्रहारंध) मे एक औंधे मुँह का कुआ है जिसमे अमृत का वास है। जिसने अच्छे गुरु की शरण ली है वही उसमे से भर भर कर अमृत पी सकता है (क्योकी उसे पीने का उपाय गुरु ही बता सकता है)। जिसने किसी सच्चे सदगुरु की शरण नही ली वह इस अमृत का पान नही कर सकता अर्थात वह प्यासा ही रह जाता है।
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पंथ बिन चलिबा अग्नि बिन जलिबा, अनिल तृषा जहटिया।१।
संसबेद श्री गोरष कहिया, बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२।
महायोगी गोरख कहते है की मार्ग के बिना चलना,अग्नि के बिना जलना, वायु से प्यास बुझाना, यह केवल अनुभव से जानने योग्य है। यह अपना अनुभव महायोगी गुरु गोरखनाथ ने कहा है .... हे पंडितो इसको समझो (यहाँ जति गोरख कह रहे है कि यह उन तथाकथित पडिंतो को समझना चाहिए जो केवल पढ़ी पढ़ाई या रटि रटाई का बखान करते रहते है जबकी अनुभव मे वह ज्ञान है ही नही। अनुभव ही सार है)
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अजपा जपै सुंनि मन धरै, पांचौ इन्द्री निग्रह करै।१।
ब्रह्म अगनि मैं होमै काया, तास महादेव बंदै पाया।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो अजपा जाप करता है एवं मन को शून्य (ब्रह्मरंध) मे लीन किए रहता है। ऐसा करते हुए जो पाँचो इन्द्रियो को अपने वश मे रखता है। इस प्रकार से जो योगी ब्रहानुभुति रुप अग्नि मे अपने भौतिक अस्तित्व(काया) की आहुति कर डालता है। महादेव भी उसके चरणो की वंदना करते है।
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धन जोबन की करै न आस, चित न राषै कांमनि पास।१।
नाद बिंदु जाकै घटि जरै, ताकी सेवा पारबती करै।२।
महायोगी गोरख कहते है की जो धन यौवन की आशा नही करता, स्त्री मे मन नही लगाता। जिसके शरीर मे नाद और बिंदु जीर्ण होते रहते है, पार्वती भी उसकी सेवा करती है ।
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अरधै जाता उरधै धरै, कांम दगध जे जोगी करै।१।
तजै अल्यंगन काटै माया, ताका बिसनु पषालै पाया।२।
जति गोरख कहते है की जो योगी नीचे की ओर गति करने वाले रेतस् (शुक्र) को ऊपर की ओर प्रेरित करे, ऊध्र्वरेता होकर जो काम को भस्म कर देता है। कामिनी का आलिंगन छोड़ देता है और माया को काट डालता है। विष्णु भी उस जोगी के चरण धोता है।
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अह निसि मन लै उनमन रहै, गम की छाड़ि अगम की कहै।१।
छाड़ै आसा रहै निरास, कहै ब्रह्म हूँ ताका दास ।२।
अलख पुरुष गोरख कहते है की जो रात दिन बहिर्मुख मन को उन्मनावस्था मे लीन किए रहता है, गम्य जगत की बाते छोड़ कर अगम्य की बाते करता है। सब आशाओ - अपेक्षाओ को त्याग देता है, कोई आशा या इच्छा शेष नही रखता, वह ब्रह्म से भी बढ़कर है। ब्रह्म उसका दासत्व स्वीकार करता है।
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कोई बादी कोई बिबादी, जोगी कौं बाद न करना।१।
अठसठी तीरथ समदि समावैं, यू़ँ जोगी कौं गुरुमुषि जरनां।२।
जति गोरख कहते है की विभिन्न मत वाले तथाकथित पण्डित अपने मत का मडंन और दूसरो के मत का खंडन करने मे लगे रहते है। किन्तु योगी को इस प्रकार के शास्त्रार्थ मे नही पड़ना चाहिए। जैसे सभी नदियो का जल समुद्र मे ही समाता है उसी प्रकार शिष्य का विश्वास गुरु वचनो मे ही होना चाहिए ( भारत की नदियो की संख्या अठसठ मानी जाती है और सभी तीर्थ नदियो पर है) । उन्ही वचनो का मनन चिन्तन द्वारा पाचन करके आत्मीकरण उपरान्त उसमे दतचित रहना चाहिए।
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मांन्यां सबद चुकाया दंद, निहचै राजा भरथरी परचै गोपिचंद।१।
निहचै नरवै भए निरदंद, परचै जोगी परमानंद।२।
महायोगी गोरख कहते है की जिसने गुरु वचनो को माना उसकी दुविधा नष्ट हो गई। इसी निश्चय ने राजा भर्तृहरी को बनाया, उन्हे सिद्धि दि और राजा गोपीचंद को ब्रह्म परिचय (साक्षात्कार) कराया। इसी निश्चय ने नरपतियो (नरवै) को निर्द्वन्द्व बना दिया। जिससे आत्मसाक्षात्कार के द्वारा वे पूर्ण परमानन्द प्राप्त करने वाले योगी हो गए।
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अलष बिनांणीं दोई दीपक, रचिलै तीन भवन इक जोति।१।
तास बिचारत त्रिभवन सूझै, चुणिल्यौ माणिक मोती।२।
महायोगी गोरख कहते है की विज्ञान स्वरुप अलक्ष्य परब्रह्म ने दो दिपको(व्यक्त और अव्यक्त स्वरुप, सविक्लप और निर्विकल्प समाधि) की रचना की। उन दोनो दिपको मे उसी परम का नूर है। उसी एक ज्योति मे तीनो लोक व्याप्त है। उस ज्योति पर विचार करने से तिनो लोक सूझने लगते है। त्रिलोक दर्शिता आती है। हंस स्वरुप आत्मा ज्ञान रुपी मोतियो को चुगने लगता है। वह माणिक्य रुप कैवल्यानुभूति को प्राप्त कर लेता है।
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वेद न सास्त्र कतेबे न कुराणे, पुस्तके न बच्या जाई।१।
ते पद जांनां बिरला जोगी, और दुनी सब धंधै लाई।२।
महायोगी गोरख कहते है की वेदो, शास्त्रो, किताबी धर्मो की किताबो, कुराण आदि ग्रन्थो मे जिस पर - ब्रह्मपद का वर्णन नही पढ़ा जा सकता। उस परम पद को बिरले योगी जानते है। बाकी दुनिया तो माया मे लिप्त हो मायावी धंधों मे लगी रहती है।
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हसिबा षेलिबा धरिबा ध्यान, अहनिसि कथिबा ब्रहा गियान।१।
हसै षेले न करै मन भंग, ते निहचल सदा नाथ के संग।२।
जति गोरख कहते है हसँना, खेलना और ध्यान धरना चाहिये। रात दिन ब्रह्म ज्ञान का कथन करना चाहिये। इस प्रकार (संयम पूर्वक) हसते, खेलते हुए जो अपने मन को भंग नही करते, वे निश्चल होकर ब्रह्म के साथ रमण करते है।
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हसिबा षेलिबा रहिबा रंग, काम क्रोध न करिबा संग।१।
हसिबा षेलिबा गाईबा गीत, दृिढ़ करि राषि आपनां चित।२।
जति गोरख कहते है की हसना चाहिये, खेलना चाहिए, मस्त रहना चाहिये किन्तु कभी काम क्रोध का साथ नही करना चाहिये। हंसना, खेलना और गीत भी गाना चाहीये किन्तु अपने चित को दृढ़ रखना चाहिये।
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इहां ही आछै इहां ही अलोप, इहां ही रचिलै तीनि त्रिलोक।१।
आछै संगै रहै जूवा, ता करणि अनंत सिधा जोगेस्वर हूवा।२।
जति गोरख कहते है कि अक्षय (आछै) परब्रहा यहाँ सहस्त्रार या ब्रहारंध (शून्य) मे ही है। यही वह गुप्त (अलोप) है। तिनो लोको की रचना यही से हुई है (उस परम सता का ही व्यक्त स्वरुप यह ब्रहमांड है)। ब्रहारंध रुपी केन्द्र से ही उसका सर्वत्र पसारा है। ऐसा जो अक्षय परब्रह्म सदा हमारे साथ रहता है, उसी को पाने के लिए अनन्त सिद्ध योग मार्ग मे प्रवेश कर योगेश्वर पद को पा जाते है।
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यहू मन सकती यहू मन सिव यहू मन पांच तत्त का जीव
यहू मन ले जै उन मन रहै तै तिनी लोकी की बातां कहै ॥
मन शिव है यही मन शक्ति है यही मन पञ्च तत्वों से निर्मित जीव है | माया के संयोग से ही ब्रहम् मन के रूप में अभिव्यक्त होता है और मन से पंचभूतात्मक शरीर की सृष्टि होती है इस लिए मन का बड़ा महत्त्व है |
मन को लेकर उन्मनावस्था में लीन करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है तीनो लोगो की बाते कह सकता है।
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आदिनाथ नाती मच्छिंदर पूता । निज तात निहारै गोरख अवधूता ।।
अवधू मच्छिंदर हमरै चेला भणीजै । ईश्वर बोलिये नाती।।
निगुरी पिरथी परलै जाती । ताथै हम उलटी थापना थापी।।
गोरखनाथजी कहते हैं - आदिनाथजी मेरे नाती हैं और मच्छिंद्रनाथ मेरे पुत्र हैं। नीज याने अपने पुत्र और नाती को देखकर अवधूत गोरखनाथजी बडे़ प्रसन्न हैं । यह एक उलट बांसी है - यह एक प्यारा मजाक है। जबसे गोरखनाथजी ने स्वयं को, अपनेको जाना है, तब से वे कहते हैं मैंने यह जाना कि सब मेरे पिछे हुआ। यहाँ मैं शब्द परमात्मा वाक है। सब परमात्मा के पिछे ही हुए हैं। वही प्रथम है और वही अंतिम है । फिर कौन गुरू कौन चेला ? कौन भक्त कौन भगवान ? इस अभेद में ही आनंद वर्षा है, अमृत का अनुभव है । लेकिन इसके पहले मिटना पडता है। अपने अहंकार को मिटाना पडेगा। मरो हे जोगी मरण है मिठा तिस मरणी मराै जिसमरणी गोरख मरी दिठा ।
आगे गोरखनाथजी कहते हैं -
हे अवधूत, यहाँ मच्छिंद्रनाथ हमारे चेले जानें और ईश्वर हमारे नाती हैं, याने चेले के भी चेले हैं। हमें पता चला है कि हम ही परमात्मा हैं। फिर हमें गुरू बनाने की क्या आवश्यकता ? किंतु हमनें इस डरसे की अज्ञानी लोग बिना गुरूके ही योगी होनेका दम न भरें,घोषणा न करें। क्योंकि एेसी घोषणाओंसे पूरी पृथ्वी निगुरी याने बगैर गुरूजी के होकर रहेगी और अग्यान रूपी प्रलय होगा। इसलिए हमने याने हमारे परमात्म स्वरूपनें, गोरखनाथजीने उल्टा काम शुरू किया, अपनेही पिता को चेला और ईश्वर को नाती कहा है
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सहज समाधि निश्चल बैठ | गुरु ग्यान लै भीतर पैठ |
भीतर पैठ कौन लगावे ध्यान ? आपही गुरू आपही भगवान ||
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूप शुन्यमिव समाधि:
अर्थात - जिस अवस्था में बाहर के संसार का आलंबन छूटकर, स्व स्वरूप का अर्थमात्र एकाकार का प्रत्यय या आभास रह जाता है, उस शून्य स्वरूप अवस्था को समाधि कहते हैं।
मच्छिन्द्रनाथजी कहते हैं हे गोरख ! सहज याने जन्म के साथ प्राप्त प्राणों पर हमारा ध्यान केन्द्रित कर जब मन उसके साथ एकरूप हो जाता है, याने मन इन्द्रिय विषयोंसे मुक्त हो जाता है, मन शून्य हो जाता है , स्वस्वरूप में स्थिर हो जाता है ऐसी सहज समाधि अवस्था में निश्चल याने शरीर के अंगों के बगैर हलचल के, स्थिर बैठो | जब द्रष्टा याने देखनेवाला और दृश्य याने दिखाई देनेवाला दोनों नहीं बचते, द्वैत नहीं बचता तब मन की उस स्वस्वरुपमें स्थिर शून्य अवस्था को ही ही समाधि कहते हैं |
अपने गुरूजी से मैं कौन हूँ ? उसे कैसे जानें ? इनका ग्यान प्राप्त कर भीतर बैठो याने अपने अन्तर में स्थिर होवो | बाहर का जगत छलावा है, वहाँ सुख के के पीछे इन्सान भागता तो है पर सुख पाता नहीं | वहीँ जब इन्सान अपने अन्तर में स्थिरता है तो उसे शास्वत सुख प्राप्त होता है | देखें हम दिनभर काम करने पर जब थक जाते हैं तो रात में सोते ही अपने अन्तर में उतर जाते हैं और सुबह जब जागते हैं तो फिर स्फूर्ति से तारो ताजा हो उठते हैं, सारी थकान गायब हो जाती है | तो शक्ति का, सुख का झरना हमारे भीतर यान अंतरमें ही है |
हमारे अन्तर में स्वभाव में स्थिरने पर फिर कौन बचता है और किसका ध्यान होगा ? अर्थात ध्याता ध्यान और ध्येय एकरूप हो जाते हैं | अर्थात साधक को निर्विचार, उन्मन, नमन अवस्था प्राप्त होती है | यही मन की शून्य अवस्था है | तब फिर वह साधक शिष्य स्वयं गुरू स्वरुप याने गुरूजी के समान निज तत्व का प्रत्यक्षदर्शी होता है | तब फिर वह खरे अर्थमें भ याने भूमि, ग याने गगन/ आकाश, व याने वायु, अ याने अग्नि और न याने नीर या जल इन पञ्च महाभूत युक्त सृष्टि से परे चैतन्य स्वरुप निज तत्व से परिचित उसमें स्थिर भगवान याने यश, श्री, औदार्य, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से युक्त बनता है |
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