शिव गोरख नाथ, नवनाथ, चौरासी सिद्ध





🌷आदिनाथ :- स्वयंभू शिव 🌷

🌷 आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
🌷 तीन लोक में हो रहा, आपनि जय-जय-कार ।।

🌷 ॐकार स्वरूप, जो आदि अंत से परे होकर भी सभी मे विधमान है 
🌷 ॐकार ही एक मात्र नाद है जो समस्त ब्रह्मांड में गुंजयमान होती है 

🌷 आदिनाथ ही एक मात्र समस्त शक्तियों का बीज है समस्त महायोगियों उसी के रूप हैं,
आदिनाथ में ही समस्त ब्रह्माण्ड सृजित और समाहित है
आदिनाथ ही एक मात्र द्वेत और अद्वेत से परे है आदि है अनादि है

🌷 यह सहस्त्रार, ब्रहमरन्ध्र, दषम द्वार के साथ मस्तिष्क में भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा चक्र को स्थापित करता है। 
आदिनाथ को ज्योति स्वरूप भी कहा जाता है।
हे सदा शिव आदिनाथ जी आपको सोॐ का नमस्कार है 


अलख आदेश🌷🌷

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🌷 उदयनाथ - धरती स्वरूप 🌷

🌷 'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
     धरती-रुप सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।

🌷 नाथ पंथ में उदयनाथ द्वितीय स्थान पर हैं 
🌷 यह नाम शिव की भार्या पार्वती को दिया गया है 
🌷 संपूर्ण धरती उनका स्वरूप है। 
🌷 धरती से तात्पर्य केवल हमारे सौरमण्डल के इस पृथ्वी ग्रह से नहींं है 
     वरन अन्तरिक्ष मेंं जितने भी ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, उनका भू-मण्डल शिव भार्या पार्वती का स्वरूप है।
🌷 जीव को सर्वप्रथम अपने अपनी निजा शक्ति से उत्पन्न, पल्लवित और पोषित करने के कारण इन्हें दिव्य शक्ति, महा शक्ति, धरती रूपा, माही रूपा, पृथ्वी रूपा, प्राण नाथ, प्रजा नाथ, उदयनाथ, भूमण्डल आदि कहा गया।
🌷 पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र से संबंद्ध है जो गुदा के मध्य सिथत एक वलय है जो अन्य सभी का आधार है। 
    भौतिक जगत के सृजन से पूर्व आदि शक्ति ने अदृश्य वलयों का निर्माण किया जो चक्र कहे जाते हैं।
🌷 यह शिव की निजा शक्ति (व्यक्तिगत सामर्थय) जो उनसे भिन्न नहीं होकर समस्त सृष्टि को प्रकार चलायमान रखती है
🌷 जहां शिव समस्त चराचर जगत में आत्मतत्व है तो यह शक्ति उस चराचर जगत का रूप है।
🌷 शिव समस्त सृषिट में बीज है तो यह शक्ति उस बीज को अपने कलेवर में ढांपती और उसका सरंक्षण करती है।
🌷 जिस प्रकार एक चेहरा दर्पण में प्रतिबिंबित होकर दो अथवा अनेक बिम्बो में दिखाई देकर भी एक ही होता है, उसी प्रकार सृजन के समय माया रचित अनेक कारणों से बाहय अद्वैत बृहम शिव और उनकी निजा शक्ति द्वीआयामी और बहुआयामी हो जाती है।

🌷 महायोगी गोरक्षनाथ ने इस दिव्य शक्ति की सुप्त और जागृत दो सिथतियां बतायी है।
🌷 सुप्त अवस्था में यह सर्पिणी की भांति मूलाधार चक्र में मेरूदण्ड के आधार में सिथत रहती है।
🌷 जाग्रत अवस्था में यह सुषुम्णा नाडी में प्रवेष कर सहस्त्रार चक्र की ओर ऊपर उठती है जो इसका अंतिम लक्ष्य है। 
🌷 मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र की यात्रा में प्रत्येक चक्र का भेदन करती हुर्इ यह अपने स्वामी शिव से संगम करती है।
🌷 सुप्त अवस्था में सत, रज और तमस नामक त्रयगुणों की प्रकृति से आवृत और माया के शकित रूप में प्रकट होती है जिससे सभी भाव असितत्व में आते हैं।

हे माता (उदयनाथ) जी आपको सोॐ का प्रणाम है  
अलख आदेश🌷🌷


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🌷 सत्यनाथ (ब्रहमा) - जलस्वरूप 🌷

🌷 'सत्य-नाथ' हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
🌷 नमन करत हैं आपको, स-चराचर के भूप ।।

🌷 सत्यनाथ के नाम से ब्रहमा पदस्थापित है जिनको जलस्वरूप कहा गया है। 
🌷 सृष्टि के समस्त जीवों, चल व अचल पदार्थों के निर्माण मेंं जल एक प्रमुख तत्त्व है। 
🌷 इन्हें प्रजा (सृष्टी पति) पति भी कहा जाता है। 
🌷 ब्रह्मा की उत्पति विष्णु के नाभि कमल से होना सर्वविदित है। 
🌷 जलतत्व स्वाधिष्ठान चक्र से संबंधित है जो जननेन्द्रियों के तल में स्थित है और मानव शरीर के स्व का आसन है। 
🌷 ब्रह्मा भी सृष्टि करने की इच्छा के कारण इस जगत प्रपंच में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। 

आदि पुरुष इच्छा उपजाई, इच्छा साखत निरंजन माही।। 
इच्छा ब्रहमा, विष्णु, महेषा, इच्छा शारदा, गौरी, गणेषा।। 
इच्छा से उपजा संसारा, पंच तत्व गुण तीन पसारा।। 



हे सत्यनाथ (ब्रह्मा) जी आपको सोॐ का प्रणाम है 
अलख आदेश🌷🌷
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शिव ही गोरक्ष - गोरक्ष ही शिव






महायोगी गोरखनाथ को शिवगोरक्ष कहने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है

शिव योगेश्वर हैं नाथ सम्प्रदाय मे यह कहा जाता है कि शिव ने ‘गोरख’ के रूप मे मत्स्येंदारनाथजी से महायोगज्ञान पाया था ।

दत्तात्रेयजी का वचन है –
स्वामी तुमेव गोरष तुमेव रछिपाल
अनंत सिधां माही तुम्हें भोपाल ||
तुम हो स्यंभूनाथ नृवांण |
प्रणवे दत्त गोरख प्रणाम ||

हे गोरखनाथजी ! 
आप ही रक्षक हैं असंख्य सिद्धों के आप शिरोमणि हैं आप साक्षातं शिव (शम्भुनाथ) हैं आप अलखनिरंजन परमेश्वर हैं 
मैं नतमस्तक आप को प्रणाम करता हूँ 

संत कबीर का कथन है –
गोरख सोई ग्यान गमि गहै |
महादेव सोई मन की लहै ||
सिद्ध सोई जो साधै ईती |
नाथ सोई जो त्रिभुवन जती ||

��श्रीगोरखनाथ, महादेव, सिद्ध और नाथ, चारों के चारों अभिन्न-स्वरुप एकतत्व हैं | महायोगी गोरखनाथजी शिव हैं, वे ही शिवगोरक्ष हैं | उनहोने महासिद्ध नाथयोगी के रूप मे दिवि योगशरीर में प्रकट होकर अपने ही भीतर व्याप्त अलखनिरंजन परबृहंम परमेश्वर का साक्षात्कार कर समस्त जगत् को योगामृत प्रदान किया |

����कल्पद्रुमतन्त्र मे गोरक्षस्तोत्रराज मे भगवान क्रष्ण ने उनका शिव रूप मे स्तवन किया है कि :-

��हे गोरक्षनाथ जी – 
आप निरंजन, निराकार, निर्विकल्प, निरामय, अगम्य, अगोचर, अल्क्ष्य हैं 
सिद्ध आप की वन्दना करते हैं 
आप को नमस्कार है आप हठयोग के प्रवर्तक शिव हैं 
अपने गुरु मत्स्येंदारनाथ की कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं 
योगी मन मे आप का ध्यान करते हैं | आप को नमस्कार है आप विश्व के प्रकाशक हैं आप विश्वरूप हैं

��हे गोरक्ष ! 
आप को नमस्कार है आप असंख्य लोकों के स्वामी हैं, नाथों के नाथशिरोमणि हैं, 
आपको नमस्कार है भक्तों के प्रति अनुरक्त होकर ही शिवस्वरुप गोरक्ष योगानुशासन का उपदेश देते हैं

����अपने ही जगदगुरुस्वरुप शक्तियुक्त आदिनाथ को नमस्कार कर गोरक्षनाथ सिद्धसिद्धान्त का बखान करते हैं |

����महकलयोगशास्त्र मे शिव ने स्वयं कहा है कि :--

मैं ही गोरक्ष – गोरखनाथ हूँ – हमारे इस रूप का बोध प्राप्त करना चाहिए | (नाथ) योगमार्ग के प्रचार के लिए मैंने गोरक्षरूप धारण किया है |

��अहमेवस्मि गोरक्षो मद्रुपं तन्निबोधत
योगमार्गप्रचाराय मया रूपमिदं धृतम् |

��अलख आदेश योगी गोरख ��



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84 SIDHA



1. कपिल नाथ जी
2. सनक नाथ जी
3. लंक्नाथ रवें जी
4. सनातन नाथ जी
5. विचार नाथ जी / भ्रिथारी नाथ जी
6. चक्रनाथ जी
7. नरमी नाथ जी
8. रत्तन नाथ जी
9. श्रृंगेरी नाथ जी
10. सनंदन नाथ जी
11. निवृति नाथ जी
12. सनत कुमार जी
13. ज्वालेंद्र नाथ जी
14. सरस्वती नाथ जी
15. ब्राह्मी नाथ जी
16. प्रभुदेव नाथ जी
17. कनकी नाथ जी
18. धुन्धकर नाथ जी
19. नारद देव नाथ जी
20. मंजू नाथ जी
21. मानसी नाथ जी
22. वीर नाथ जी
23. हरिते नाथ जी
24. नागार्जुन नाथ जी
25. भुस्कई नाथ जी
26. मदर नाथ जी
27. गाहिनी नाथ जी
28. भूचर नाथ जी
29. हम्ब्ब नाथ जी
30. वक्र नाथ जी
31. चर्पट नाथ जी
32. बिलेश्याँ नाथ जी
33. कनिपा नाथ जी
34. बिर्बुंक नाथ जी
35. ज्ञानेश्वर नाथ जी
36. तारा नाथ जी
37. सुरानंद नाथ जी
38. सिद्ध बुध नाथ जी
39. भागे नाथ जी
40. पीपल नाथ जी
41. चंद्र नाथ जी
42. भद्र नाथ जी
43. एक नाथ जी
44. मानिक नाथ जी
45. गेहेल्लेअराव नाथ जी
46. काया नाथ जी
47. बाबा मस्त नाथ जी
48. यज्यावालाक्य नाथ जी
49. गौर नाथ जी
50. तिन्तिनी नाथ जी
51. दया नाथ जी
52. हवाई नाथ जी
53. दरिया नाथ जी
54. खेचर नाथ जी
55. घोड़ा कोलिपा नाथ जी
56. संजी नाथ जी
57. सुखदेव नाथ जी
58. अघोअद नाथ जी
59. देव नाथ जी
60. प्रकाश नाथ जी
61. कोर्ट नाथ जी
62. बालक नाथ जी
63. बाल्गुँदै नाथ जी
64. शबर नाथ जी
65. विरूपाक्ष नाथ जी
66. मल्लिका नाथ जी
67. गोपाल नाथ जी
68. लघाई नाथ जी
69. अलालम नाथ जी
70. सिद्ध पढ़ नाथ जी
71. आडबंग नाथ जी
72. गौरव नाथ जी
73. धीर नाथ जी
74. सहिरोबा नाथ जी
75. प्रोद्ध नाथ जी
76. गरीब नाथ जी
77. काल नाथ जी
78. धरम नाथ जी
79. मेरु नाथ जी
80. सिद्धासन नाथ जी
81. सूरत नाथ जी
82. मर्कंदय नाथ जी
83. मीन नाथ जी
84. काक्चंदी नाथ जी




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गोरक्ष गायत्री 

नाथपंथ में गोरक्ष गायत्री का स्थान बहुत ऊँचा है ! 
वैसे तो प्रत्येक सिद्ध की गायत्री का उल्लेख नाथपंथ में है। 
पर 12 पन्थो में से किसी भी पंथ से नाथ योगी सम्बन्ध क्यों ना रखता हो 
उसे गोरक्ष गायत्री का ज्ञान अवश्य होता है !
नाथ पंथ में गोरख नाथ जी को शिव का अवतार मन जाता है। 
नाथ पंथी कोई भी जाप शुरु करने से पहले गोरख गायत्री का जप अवश्य करते है। 
और नित्य पूजन में भी गोरख गायत्री का जाप गुरु गोरख नाथ जी कृपा पाने के लिए करते है। 
कहते की जिसने गोरख नाथ जी कृपा प्राप्त कर ली उसने शिव तत्व की प्राप्ति कर ली। 

गोरक्ष गायत्री मंत्र...............गुरूजी को आदेश 

ॐ गुरूजी ॐकारे शिव रूपी , संध्या ने साध रूपी 
मध्याने हंस रूपी हंस - परमहंस 
द्वि अक्षर गुरु तो गोरक्षकाया तो गायत्री 
ॐ तो ब्रह्मा सोहं तो शक्ति, शून्य तो माता, अवगति पिता, 
अभय पंथ अचल पदवी , निरन्जर गोत्र ,
विहंगम जाती असंख्य प्रवर 
अनन्त शाखा सूक्ष्म वेद .आत्मा ज्ञानी ब्रह्मज्ञानी 

"ॐ गोरख विद्महे , ज्योतिर्मय धीमहि 
तन्नो अलख निरंजन योगी गोरख प्रचोदयात:"

इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। 
अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ जी ने 
कथ पढ़, जप के सुनाया। 
आदेश-आदेश।।


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नव-नाथ-चरित

आदि-नाथ' सदा-शिव हैं, जिनका आकाश-रुप,
'उदय-नाथ' पार्वती पृथ्वी-रुप जानिए ।
'सत्य-नाथ' ब्रह्मा जी जल-रुप मानिए ,
विष्णु 'सन्तोष-नाथ' तिनका है तेज-रुप ।
अचल हैं 'अचम्भे-नाथ' जिनका है शेष-रुप,
गज-बली 'कन्थड-नाथ' हस्ति-रुप जानिए ।
ज्ञान-पारखी जो सिद्ध हैं वह 'चौरंगीनाथ' ,
अठार भार वनस्पति चन्द्र-रुप जानिए ।
दादा-गुरु 'श्रीमत्स्येन्द्र-नाथ' जिनका है माया-रुप ,
गुरु 'श्रीगोरक्ष-नाथ' ज्योति-रुप जानिए ।
बाल हैं त्रिलोक, 'नव-नाथ' को नमन करुँ,
नाथ जी ये बाल को अपना ही जानिए ।।

आदि-नाथ

'आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
तीन लोक में हो रहा, आपनि जय-जय-कार ।।

।।चौपाई।
जय-जय-जय कैलाश-निवासी, यो-भूमि उतर-खण्ड-वासी ।
शीश जटा सु-भुजंग विराजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजे ।।
डिमक-डिमक-डिम डमरु बाजे, ताल मृदंग मधुर ध्वनि गाजे ।
ताण्डव नृत्य किया शिव जब ही, चौदह सूत्र प्रकट भे तब ही ।।
शब्द-शास्त्र का किया प्रकाशा, योग-युक्ति राखे निज पासा ।
भेद तुम्हारा सबसे न्यारा, जाने कोई जानन-हारा ।।
योगी-जन तुमको अति प्यारे, जरा-मरण के कष्ट निवारे ।
योग प्रकट करने के कारण, 'गोरक्ष' स्वरुप किया धारण ।।
ब्रह्म-विष्णु को योग बताया, नारद ने निज शीश नवाया ।
कहाँ तलक कर वरनूँ गाथा, आदि-अनादि हो आदि-नाथा ।।

।।उदय-नाथ।।

'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
धरती-रुप सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'उदय'-मातृ भवानि, करो कृपा निज बालक जानी ।
पृथ्वी-रुप क्षमा तुम करती, दुर्गा-रुप असुर-भय हरती ।।
आदि-शक्ति का रुप तुम्हारा, जानत जीव चराचर सारा ।
अन्नपूर्णा बन के जग पाला, धन्यो रुप सुन्दरी बाला ।।
ब्रह्मा-विष्णु भी शीश नमाएँ, नारद-शारद मिल गुण गाएँ ।
योग-युक्ति में तुम सहकारी, तुझे सदा पूजें नर-नारी ।।
योगी-जन पर कृपा तुम्हारी, भक्त-भीड़-भय-भञ्जन-हारी ।
मैं बालक तुम मातृ हमारी, भव-सागर से तुरतहिं तारी ।।
कृपा करो मो पर महरानी, तुम सम न कोइ दूसर दानी ।
पाठ करै जो ये चित लाई, 'उदय-नाथ' जी होंइ सहाई ।।

।।सत्य-नाथ।।

'सत्य-नाथ' हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
नमन करत हैं आपको, स-चराचर के भूप ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'सत्य-नाथ' कृपाला, दया करो हे दीन-दयाला ।
करके कृपा यह सृष्टि रचाई, भाँति-भाँति की वस्तु बनाई ।।
चार वेद का किया उचारा, ऋषि-मुनि मिल के किया विचारा ।
सनत् सनन्दन-सनत्कुमारा, नारद-शारद गुण-भण्डारा ।।
जग हित सबको प्रकटित कीन्हा, उत्तम ज्ञान योगी-पद दीन्हा ।
पाताले भुवनेश्वर सुन्दर, सत्य-धाम-पथ धाम मनोहर ।।
कुरु-क्षेत्रे पृथूदक सुन्दर, 'सत्य-नाथ' योगी कहलाए ।
आपन महिमा अगम अपारा, जानत है त्रिभुवन सारा ।।'
आशा-तृष्णा निकट न आए, माया-ममता दूर नसाए ।
'सत्य-नाथ' का जो गुण गाएँ, निश्चय उनका दर्शन पाएँ ।।

।।सन्तोष-नाथ।।

विष्णु तो 'सन्तोष-नाथ', खाँड़ा खड्ग-स्वरुप ।
राज-सम दिव्य तेज है, तीन लोक का भूप ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री स्वर्ग-निवासी, करो कृपा मिटे काम फाँसी ।
सुन्दर रुपे विष्णु-तन धारे, स-चराचर के पालन हारे ।।
सब देवन में नाम तुम्हारा, जग-कल्याण-हित लेत अवतारा ।
जग-पालन का काम तुम्हारा, भीड़ पड़े सब देव उबारा ।।
योग-युक्ति 'गोरक्ष' से लीन्ही, शिव प्रसन्न हो दीक्षा दीन्ही ।
शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी, कान में कुण्डल शुभ-कारी ।।
शेषनाग की सेज बिछाई, निज भक्तन के होत सहाई ।
ऋषि-मुनि-जन के काज सँचारे, अधम दुष्ट पापी भी तारे ।।
देवासुर-संग्राम छिड़ाए, मार असुर-दल मार भगाए ।
'सन्तोष-नाथ' की कृपा पाएँ, जो चित लाय पाठ यह गाएँ ।।

।।अचम्भेनाथ।।

सागर मथन की हुइ तैयारी, देव दैत्यकी सेना भारी ।।
पर-दुख-भञ्जन पर-हित काजा, नेति आप भये सिद्ध राजा ।
सागर मथा अमृत प्रकटाया, सब देवन को अमर बनाया ।।
यतियों में भी नाम तुम्हारा, योगियों में सिद्ध-पद धारा ।
नित ही बाल-स्वरुप सुहाए, अचल अचम्भेनाथ कहाए ।।

शेष रुप है आपका, अचल 'अचम्भेनाथ' ।
आदि-नाथ के आप प्रिय, सदा रहें उन साथ ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय योगी अचलेश्वर, सकल सृष्टि धारे शिव ऊपर ।
अकथ अथाह आपकी शक्ति, जानो पावन योग की युक्ति ।।
शब्द-शास्त्र के आप नियन्ता, शेषनाग तुम हो भगवन्ता ।
बाल यती है रुप तुम्हारा, निद्रा जीत क्षुधा को मारा ।।
नाम तुम्हारा बाल गुन्हाई, टिल्ला शिवपुरी धाम सुहाई ।


।।कन्थड-नाथ।।
'गज-बलि' गज के रुप हैं, गण-पति 'कन्थड-नाथ' ।
वों में हैं अग्र-तम, सब ही जोड़ें हाथ ।।

।।चौपाई।।

जय-जय-जय श्रीकन्थड-नाथ देवा, हो कृपा मैं करूँ नित सेवा ।
मोदक हैं अति तुमको प्यारे, मूषक-वाहन परम सुखारे ।।
पहले पूजा करे तुम्हारी, काज होंय शुभ मंगल-कारी ।
कीन्हि परीक्षा जब त्रिपुरारी, देखि चतुरता भये सुखारी ।।
ऋद्धि-सिद्धि चरणों की दासी, आप सदा रहते वन-वासी ।
जग हित योगी-भेष बनाये, कन्थड-नाथ सु-नाम धराये ।।
कन्थ कोट में आसन कीन्हा, चमत्कार राजा को दीन्हा ।
सात बार तो कोट गिराए, बड़े-बड़े भूपनहिं नमाये ।।
वसुनाथ पर कृपा तुम्हारी, करी तपस्या कूप में भारी ।
भैक कापड़ी शिष्य तुम्हारे, करो कृपा हर विघ्न हमारे ।।

।।चौरंगि नाथ।।

ज्ञान-पारखी सिद्ध हैं, चन्द्र चौरंगि नाथ ।
जिनका वन-पति रुप है, उन्हें नमाऊँ माथ ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री सिद्ध चौरंगी, योगिन के तुम नित हो संगी ।
शीतल रुप चन्द्र अवतारा, सदा बरसो अमृत की धारा ।।
वनस्पति में अंश तुम्हारे, औषधि के सुख भये सुखारे ।
शालिवान है वंश तुम्हारा, बालपने योगी तन धारा ।।
अति सुन्दर तव सुन्दरताई, सुन्दरि रानी देख सुभाई ।
गुरु-शरण में रानी आई, हाथ जोड़ यह विनय सुनाई ।।
शिष्य आपका मुझे चाहिए, नहीं तो प्राण तन में बहिए ।
सुनकर गुरु जी करुणा कीन्हीं, जब तुझे यही आज्ञा दीन्हीं ।।
रानी संग चले मति पाई, जाय महल में ध्यान लगाई ।
रानी ने तब शीश नमाया, हुए अदृश्य भेद नहीं पाया ।।

।।मछन्द्रनाथ।।

माया-रुपी आप हैं, दादा मछन्द्रनाथ ।
रखूँ चरण में आपके, करो कृपा मम नाथ ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय अलख दया-सागर, मत्स्य में प्रकट जय करुणाकर ।
अमर कथा श्री शिवहिं सुनाई, गौरी के जो मन को भाई ।।
सूक्ष्म वेद जो शिवहि सुनाया, गर्भ में आपने वह पाया ।
जाकर अपना शीश नवाया, उमा महेश सु-वचन सुनाया ।।
जीव जगत का कर कल्याणा, ले आशीष चले भगवाना ।
सिंहल द्वीप सु-राज चलाया, सारे जग में यश फैलाया ।।
कदली-वन में किया निवासा, योग-मार्ग का किया प्रकाशा ।
माया-रुपहि आप सुहाएँ, जग को अन-धन-वस्त्र पुराएँ ।।
दादा पद है आपन सुन्दर, करें कृपा निज भक्त जानकर ।
महिमा आपकी महा भारी, कहि न सके मति मन्द हमारी ।।

।।गोरख-नाथ।।

शिव गोरक्ष शिव-रुप हैं, घट-घट जिनका वास ।
ज्योति-रुप में आपने, किया योग प्रकाश ।।

।।चौपाई।।
जय-जय-जय गोरक्ष गुरुज्ञानी, तोग-क्रिया के तुम हो स्वामी ।
बालरुप लघु जटा विराजै, भाल चन्द्रमा भस्म तन साजै ।।
शिवयोगी अवधूत निरञ्जन, सुर-नर-मुनि सब करते वन्दन ।
चारों युग के आपहि योगी, अजर अमर सुधा-रस भोगी ।।
योग-मार्ग का किया प्रचारा, जीव असंख्य अभय कर जारा ।
राजा कोटि निभाने आए, देकर योग सब शिष्य बनाए ।।
तुम शिव गोरख राज अविनाशी, गोरक्षक उत्तरापथ-वासी ।
विश्व-व्यापक योग तुम्हारा, 'नाथ-पन्थ' शिव-मार्ग उदारा ।।
शिव गोरक्ष के शरण जो आएँ, होय अभय अमर-पद पाएँ ।
जो गोरख का ध्यान लगाएँ, जरा-मरण नहिं उसे सताएँ ।।

।।दोहा।।
माला यह नव-नाथ की, कण्ठ करे जो कोइ ।
कृपा होय नव-नाथ की, आवागमन न होइ ।।
नव-नाथ-माला सु-रची, तुच्छ मती अनुसार
त्रुटि क्षमा करें योगि-जन, कर लेना स्वीकार ।।
नहिं विद्या में निपुण हूँ, नहिं है ज्ञान विशेष ।
योगी-जन गुरु-पूजा को, करता हूँ आदेश ।।

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अवधू ईश्वर हमरै चेला, भणीजैं मछीन्द्र बोलिये नाती !
निगुरी पिरथी पिरलै जाती, ताथै हम उल्टी थापना थाती !!

यानी जिसको
भी ज्ञान हो गया ! फ़िर वो स्वयम ही परमात्मा हो गया !

फ़िर बूंद समुद्र मे समा गई ! अब कौन गुरु
और कौन चेला ! सारे भेद खत्म हो गये !

ऐसे ही गोरख कहते हैं :-
हे अवधूत स्वयम ईश्वर तो हमारे चेला हैं और मछिन्द्र तो नाती
यानी चेले का भी चेला है ! हमे गुरु बनाने की जरुरत नही थी

लेकिन अज्ञानी लोग बिना गुरु के ही
सिद्ध बनने का नाटक नही कर ले !

इस लिये मछिन्द्र को हमने गुरु बना लिया जो वस्तुत: उल्टी स्थापना
करना है , क्योन्की खुद मछिन्द्र नाथ हमारे शिष्य हैं !

असल मे जिनको भी ज्ञान हो गया उसकी प्रतीति ऐसी ही होती है !

वह ब्रह्म स्वरुप हो गया ! वह
खुद ब्रह्म हो गया अब सब कुछ उसके बाद है ! वह समयातीत हो गया !

काल और क्षेत्र के बाहर हो गया ! 
तो इन ऊंचाइयो पर थे गुरु गोरखनाथ !

देखिए ... गुरु गोरख क्या कहते हैं ?

आदिनाथ नाती मछिन्द्रनाथ पूता !
निज तात निहारै गोरष अवधूता !!




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मरौ वे जोगी मरौ ,मरौ मरन है मीठा |
तिस मरणी मरौ ,जिस मरणी गोरष मरि दीठा ||



गोरख,एक ऐसा नाम जिसका स्मरण करते ही शरीर में एक लहर सी दौड जाती है |

उनकी रचनाओं को आप हलके-फुलके तरीके से ले ही नहीं सकते |

सरसरी तौर पर निगाह डालने से बड़ी ही बेतुकी नज़र आएगी ,

परन्तु जब एकांत में बैठकर गंभीरता से विचार करेंगे तो समझ में आएगा

कि गोरख क्या कहना चाहता है |
एक बार गोरख के पास एक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से परेशान होकर आया

और बोला-"मैं इन सांसारिक परेशानियों को सहते सहते तंग आ गया हूँ,

और परेशान होकर आत्महत्या करना चाहता हूँ,मरना चाहता हूँ |

"गोरख ने तत्क्षण कहा-"हाँ,मरो,बिलकुल मर जाना चाहिए|"

वह व्यक्ति सन्न रह गया और बोला -"यह क्या कह रहे है आप ?

मैं इतने संतों के पास गया,सबको अपना मंतव्य बताया|

सबने मुझे एक ही बात कही कि आत्महत्या करना पाप है |

यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं है |

और एक आप हैं जो कह रहे हैं कि हाँ मर जाओ |"गोरख बोले-"मैंने सही कहा है ,

सब समस्याओं का समाधान मरना ही है |

परन्तु तुम को ऐसे ही मरना होगा ,जैसे गोरख ने मर कर दिखाया है |"


इस मरने के सम्बन्ध में गोरख ने कहा है-


मरौ वे जोगी मरौ ,मरौ मरन है मीठा |
तिस मरणी मरौ ,जिस मरणी गोरष मरि दीठा ||


गोरख कहते हैं कि हे योगी पुरुष!तुम मर जाओ |

तुम्हारा मरना ही उचित है |

मरना संसार में बड़ा ही मधुर है |

गोरख शरीर के मरने की बात यहाँ बिलकुल भी नहीं कहते हैं |

यहाँ वे व्यक्ति के "मैं"के मरने की कहते हैं ,

अहंकार को मारने की बात कहते हैं |

इस संसार में जितने भी दुःख और परेशानियां है ,वे सब इस "मैं"की पैदा की हुई है |

जिस दिन आपका यह "मैं"मर जायेगा ,समझ लो सब परेशानियां स्वतः ही समाप्त हो जायेगी |

गोरख यहाँ स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जैसे मैं मरा हूँ वैसे ही तुम मरो |

तभी आपका मरना सार्थक होगा |शारीरिक तौर पर तो एक दिन सबको ही मरना होता है |

जिस दिन अहंकार मर जायेगा ,उस दिन ही आपका वास्तविक रूप से मरण होगा |

ऐसे मर जाने पर ही आपका पुनर्जन्म नहीं होगा |

आप अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाओगे,परमात्मा को पा लेंगे |
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गोरख वाणी 
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बसती न सुन्यम , सुन्यम न बसती अगम अगोचर ऐसा !
गगन सिषर महिं बालक बोलै ताका नाँव धरहुगे कैसा !! १ !!

परमतत्व तक किसी की पहुँच नहीं है वह अगम है !

वह इन्द्रियों का विषय नहीं , वह तो अगोचर है ! वह ऐसा है कि उसे हम न बस्ती कह सकते हैं और न ही शुन्य ! न यह कह सकते हैं की वह कुछ है और न यह की वह कुछ नहीं है ! वह भाव और अभाव, सत और असत दोनों से परे है ! वह तो आकाश मंडल में बोलने वाला बालक है , आकाश मंडल में बोलने वाला इसलिए कहा गया है क्यूंकि आकाशमंडल को शुन्य , आकाश या ब्रह्मरंध्र कहा गया है और यही ब्रह्म का निवास माना जाता है , वही पहुँचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है ! बालक इसलिए कहा गया है क्यूंकि जिस प्रकार बालक पाप और पुण्य से रहता है ठीक उसकी प्रकार परमात्मा भी निर्लेप है !
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अदेषी देषिबा देषि बिचारिबा अदि सिटि राषिबा चीया !
पाताल की गंगा ब्रह्मंड चढ़ाइबा , तहां बिमल बिमल जल पीया !!२ !!

न देखे जा सकने वाले परब्रम्ह को देखना चाहिए और देखकर उस पर विचार करना चाहिए ! जो आँखों से देखा नहीं जा सकता उसे चित्त में रखना चाहिए ! पाताल जो मूलाधार चक्र हैं वहाँ की गंगा अर्थात कुण्डलिनी शक्ति को ब्रम्हाण्ड ( सहस्त्रार ) में प्रेरित करना चाहिए , वहीँ पहुँच कर योगी साक्षात्कार करता है अर्थात अमृत पान करता है !

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इहाँ ही आछै इहाँ ही आलोप ! इहाँ ही रचिलै तीनि त्रिलोक !
आछै संगै रहै जू वा ! ता कारणी अनन्त सिधा जोगेस्वर हूवा !!३!!

परब्रम्ह सहस्त्रार या ब्रम्हरन्ध्र में ही है , यही वह अलोप है ! तीनो लोको की रचना यहीं से हुई ! यह ब्रम्हाण्ड ब्रह्म का ही व्यक्त स्वरुप है , ब्रम्हरंध्र से ही उसने अपना सर्वाधिक पसारा किया है , ऐसा अक्षय परब्रहम जो सर्वदा हमारे साथ रहता है , उसी के कारण उसी को प्राप्त करने के लिए अनंत सिद्ध योग मार्ग में प्रवेश कर योगेश्वर हो जाते हैं !

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वेद कतेब न षानी बाणी ! सब ढंकी तलि आणी !
गगनि सिषर महि सबद प्रकास्या ! तहं बूझै अलष बिनाणी !!४!!

वेद आदि भी परब्रम्ह का ठीक ठीक निर्वचन नहीं कर पाए हैं, न किताबी धर्मो की पुस्तकें और न ही चार खानि की वाणी , बल्कि इन्होने तो सत्य को प्रकट करने के बदले उसके ऊपर आवरण डाल दिया ! यदि ब्रम्ह स्वरुप का यथार्थ ज्ञान अभीष्ट हो तो ब्रम्हरन्ध्र यानी गगन शिखर में समाधि द्वारा जो शब्द प्रकाश में आता है, उसमे विज्ञान रूप अलक्ष्य का ज्ञान प्राप्त करो !

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अलश बिनाणी दोई दीपक रचिलै तीन भवन इक जोती !
तास बिचारत त्रिभवन सूझै चूनिल्यो माणिक मोती !!५!!

उस अलक्ष्यपुरुष परब्रम्ह ने ही दो दीपकों की रचना की है जो सविकल्प और निर्विकल्प समाधि है , उन दोनों दीपकों में उस अलक्ष्य का ही प्रकाश है ! उसी एक ज्योति से तीनो लोक व्याप्त हैं ! उस ज्योति पर विचार करने से तीनो लोक सूझने लगते हैं अर्थात त्रिलोकदर्शिता आती है और हंस स्वरूपी आत्मा ज्ञान रुपी मोतियों को चुगने लगता है तथा उस माणिक्य रूप कैवल्य की अनुभूति प्राप्त करता है !


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गोरखनाथ जी की वाणी

"जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है |
पांचू चेला फिरे अकेला ,अलख अलख जोगी करता है ||
सुन्न हर शहर,शहर घर बस्ती ,कुण सोवै कुण जागे है |
साध हमारे , हम साधन के , तन सोवै , ब्रह्म जागे है ||"

" जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है" |
आपने कमल का पुष्प देखा होगा,वह गंदे जल में यानि कीचड में पैदा होता है |
कमल के पुष्प में कलियाँ होती है और इन कलियों पर भँवरा घूमता रहता है ,उनकी तरफ आकर्षित होकर |
वह उनका रसपान करता है ,परन्तु उस पुष्प में वह कभी भी वास नहीं करता है,उस फूल को कभी भी अपना निवास स्थान नहीं बनाता है |
यह वास्तविकता है |आप अगर गौर से देखेंगे तो ऐसा ही पाएंगे |
गोरख नाथ जी यहाँ कहते है कि यह संसार एक गंदे जल के समान है जहाँ पर आपका यह भौतिक शरीर उस जल में कमल-पुष्प के समान है |
इस पुष्प रूपी शरीर में पाँचों इन्द्रियां कलियाँ है | इन कलियों यानि इन्द्रियों से रसपान भँवरा यानि आपकी आत्मा करती है |
और इस भँवरे यानि आत्मा का स्थाई निवास यह पुष्प यानि भौतिक शरीर नहीं है |
आत्मा बार बार नए नए शरीर में घूमती रहती है जैसे कि भँवरा नए नए फूलों पर घूमता रहता है |
यह वास्तविकता है और सत्य भी |यह इन्द्रियां मन से नियंत्रित होती है |और मन ही आत्मा को रस प्रदान करता है |
आत्मा इस रस के वशीभूत होकर मन के साथ योग कर शरीर दर शरीर भटकती है |परन्तु यह शरीर मूलतः उसका निवास स्थान नहीं है |
कई टीकाकार पांच चेले ,पांच तत्वों को बताते हैं ,जिनसे यह शरीर बना है |
यथा-भूमि,जल,अग्नि,आकाश और वायु |शरीर में पांच इन्द्रियां भी इन पाँचों तत्वों का ही प्रतिनिधित्व करती है |
जैसे आकाश से श्रवनेंद्रिय ,वायु से त्वचा,अग्नि से नेत्र,जल से स्वादेंद्रिय तथा पृथ्वी से घ्रानेंद्रिय का विकास हुआ है | 

"पांचू चेला फिरे अकेला ,अलख अलख जोगी करता है " 

ये पाँचों इन्द्रियां जिनका मन एक मात्र गुरु है ,वे सब अकेले घूमती है अर्थात कुछ भी नहीं कर पाती है |
क्योंकि बिना आत्मा के ये पाँचों कुछ भी नहीं कर पाती है |अलख शब्द गोरख का बहुत ही प्रिय शब्द है |
गोरख नाथ जी ने इस शब्द का अपनी रचनाओं में बड़ी उदारता के साथ प्रयोग किया है |
अलख का अर्थ होता है अदृश्य यानि INVISIBLE अर्थात अव्यक्त |जो अपने आपमें व्यक्त नहीं है,अदृश्य है |
"अलख अलख जोगी करता है "
इसका भावार्थ यही है की सिद्ध पुरुष ने मक्खन निकाल कर जान लिया है कि वह जो है वह अदृश्य ही है ,अलख ही है |
और जब आप ने उस अलख को जान लिया ,समझ लिया तो इस गुरु "मन"के ये पाँचों चेले यानि इन्द्रियाँ उस जोगी,उस सिद्ध पुरुष को भ्रमित नहीं कर पाएंगे और ऐसे पाँचों इन्द्रियां अलग थलग पड जायेगी और जोगी तो केवल अलख अलख ही करेगा क्योंकि वह सत्य जान चूका है |

"सुन्न हर शहर,शहर ,घर,बस्ती,कुण सोवै कुण जागे है"|

इसका अर्थ यह है कि जब आप उस अदृश्य को जान लेते है,अपनी आत्मा को जान जाते है और परमात्मा को पहचान जाते हैं तब आपके लिए यह शहर,यह बस्ती और यह घर सब शून्य हो जाते है अर्थात उनका आपके जीवन में कोई महत्व नहीं रहता है |आप यह भी नहीं जानते कि यहाँ कौन सो रहा है और कौन जाग रहा है ?कौन परमात्मा के मार्ग पर चल रहा है और कौन संसार में खोया हुआ है ?जोगी तो केवल परमात्मा में ही खोया रहता है |उसको इन सब से कोई मतलब नहीं रहता है |
और अंत में गोरख नाथ जी कहते है कि 

" साध हमारे , हम साधन के , तन सोवै , ब्रह्म जागे है"|

गोरख नाथ जी के अनुसार जोगी को संसार में और संसार में रहने वालों से कोई मतलब नहीं रहता है |फिर भी गोरख चेतावनी देता है और कहता है कि साध्य हमारे है और साध्य है-परमात्मा |साध्य यानि परमात्मा हमें अपना कहते है ,साध्य हमारे है जबकि हम अपने आपको साधन यानि शरीर के समझते हैं |शरीर एक साधन है-परमात्मा को पाने का |बिना मानव शरीर के परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता |यहाँ पर यह शरीर ही सोता है और यह शरीर संसार का है |इस शरीर में जो ब्रह्म है वह है परमात्मा यानि हमारी आत्मा ,वह सदैव जागती रहती है |
अब एक बार फिर पढ़िए ,गोरख की इस वाणी को|कितनी भाव-प्रधान है यह वाणी |

"जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है |
पांचू चेला फिरे अकेला ,अलख अलख जोगी करता है ||
सुन्न हर शहर,शहर घर बस्ती ,कुण सोवै कुण जागे है |
साध हमारे , हम साधन के , तन सोवै , ब्रह्म जागे है ||"

आदेश आदेश आदेश

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मरौ है जोगी मरौ,
नीव का पत्थर गोरखनाथ

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन से बारह लोग है—मेरी दृष्‍टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे है? मैंने उन्‍हें सूची दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर,नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्‍ण, कृष्‍ण मूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखे बंद कर लीं, सोच में पड़ गए…..।
सूची बनानी आसान भी नहीं है—क्‍योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है। किसे छोड़ो और किसे गिनों? वे प्‍यारे व्‍यक्‍ति थे—अति कोमल अति माधुर्यपूर्ण स्‍त्रैण…..। वृद्धावस्‍था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतम होते गये थे….। मैं उनके चेहरे पर आते जाते भाव पढ़ने लगा। उन्‍हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम जो स्‍वभावत: होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था। उन्‍होंने आंखे खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने। मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। फिर मैंने बारह नाम ऐसे चुने है। जिनको कुछ मौलिक देन है। राम की कोई मौलिक देन नहीं है। कृष्‍ण की मौलिक देन है। इसलिए हिंदुओं ने भी उन्‍हें पूर्णावतार कहा है राम को नहीं कहां।

उन्‍होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गई थी। मैंने उन्‍हें सात नाम दिये: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्‍होंने कहा आपने जो पाँच नाम छोड़ दिये, वे किस आधार पर। मैंने कहां नागार्जुन बुद्ध में सम्‍माहित है। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते है। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते है। बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्‍योंकि बीज से फिर वृक्ष हो जाएगा। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकडों नागार्जुन पैदा हो जाएंगे, लेकिन कोर्इ नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री है, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्‍ते पर आये हुए एक तीर्थ स्‍थल है—प्‍यारे है, अगर छोड़ना हो तो तीर्थ स्थल छोड़े जा सकते है। गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती है।

ऐसे ही कृष्‍ण मूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। रामकृष्‍ण, कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही साखायें है। जैसे कबीर में जो इक्कठ्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरूष रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा सिक्‍ख धर्म क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आर्श्‍चय नहीं है। मीरा में कबीर का स्‍त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध सारा सुवास, सारा संगीत,मीरा के पैरों में धुँघरू बन कर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है, नानक में कबीर का पुरूष रूप बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते है।

इस तरह मैंने सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्‍सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्‍होंने कहा: और अगर पाँच की सूची बनाई जाए तो। मैंने कहां काम मेरे लिए कठिन हो गया है। मैंने यह सूची उन्‍हें दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख….। क्‍योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल है। गोरख नहीं छोड़े जा सकता। और शंकर तो कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्‍ण के ही एक अंग की व्‍याख्‍या है, कृष्‍ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।

तब तो वे बोले: बस एक बार और….। अगर चार ही रखने हों।

तो मैंने कहां:’’ कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख….। क्‍योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्‍न नहीं है। थोडे ही भिन्‍न है। जरा-सा ही भेद है। वह भी अभिव्‍यक्‍ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हाँ सकती है।

वे कहने लगे एक बार और …..। अब तीन व्‍यक्‍ति चुनें।

तब मैंने कहां: अब असंभव है। अब इन चार में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता। मैंने उन्‍हें कहां: जैसे चार दशाएं है, ऐसे ये चार व्‍यक्‍तित्‍व है। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम है, ऐसे ये चार आयाम है। जैसे परमात्‍मा की हमने चार भुजाओं सोची है, ऐसी ये चार भू जाएं है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक की चार भुजाएं है। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसे है। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक में आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्‍या कम करता रहा। क्‍योंकि अभी तक जो अलग करना पडा वह वस्‍त्र था, अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।

वे कहने लगे: आपने महावीर को छोड़ दिया, गोरख को नहीं?

गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं, क्‍योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ है, महावीर से न कोई नया नहीं हुआ है। वे अपूर्व पुरूष है। मगर जो सदियों से कहा गया था, उन्‍होंने उसकी पुनरूक्ति की है। वे किसी यात्रा का प्रांरभ नहीं है। वे किसी नया शृंखला की पहली कड़ी नहीं है, बल्‍कि अंतिम कड़ी है।

गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी है। उनसे नए प्रकार के धर्म का जन्‍म हुआ, अविभाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते थे, न नानक हो सकते थे। न दादू, ना वाजिद, न फरिद, न मीरा, गोरख के बिना ये कोर्इ भी न हो सकते थे। इन सब के मौलिक आधार गोरख में है। फिर मंदिर बहुत ऊँचा उठा। मंदिर पर बड़े स्‍वर्ण कलश चढ़े…..। लेकिन नींव का पत्‍थर नींव का पत्‍थर है। और स्‍वर्ण कलश दूर से दिखाई दे जाते है। लेकिन नीव के पत्‍थर से ज्‍यादा मूल्‍यवान नहीं हो सकते है। और नींव भित्‍तियों सारे शिखर…। शिखर की पूजा होती है, बुनियाद के पत्‍थरों को तो लोग भूल ही जाते है। ऐसे ही गोरख भी भूल गए थे।

लेकिन भारत की सारी संत-परंपरा गोरख की ऋणी है। जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जाएगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्‍यान की आधारशिला उखड जायेगी। जैसे कृष्‍ण के बिना प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्‍य को पाने के लिए विधियों की मनुष्‍य के भीतर अंतर खोज के लिए उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्‍होंने इतनी विधियां दी की अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक है। इतने द्वार तोड़े मनुष्‍य के अंतरतम में जाने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये।

गोरख के पास अपूर्व व्‍यक्‍तिव था, जैसे आइंस्‍टीन के पास व्‍यक्‍तित्‍व था। जगत के सत्‍य को खोजने के लिए जो पैने से पैने उपाय अल्बर्ट आइंस्‍टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे। हां,अब उनका विकास हो सकता है, उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्‍टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्‍का करनेवाले, मजबूत करने वाले मील के पत्‍थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोंग आयेंगे। मगर आइंस्‍टीन की जगह अब कोर्इ भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतर जगत में गोरख के साथ घटी है।

लेकिन गोरख को लोग भूल गये, गोरख जिस खादन के हीरे है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्‍चा होता है। अगर गोरख और कबीर बैठे हो तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे,गोरख से नहीं। क्‍यो गोरख तो खादन से निकला हीरा है और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है। जिनको खूब निखार दिया गया है।

यह तो तुम्‍हें पता है ना कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्‍चों को खेलने के लिए दे दिया था, समझकर की कोई रंगीन पत्‍थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती एक छोटी से नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पडा रहा। कोहिनूर बच्‍चे खेलते रहे, फेंकते रहें इस कोने से उस कोने, आँगन में पडा रहा….।
तुम पहचान न पाते कोहिनूर को उसका वज़न तीन गुना था आज को कोहिनूर से। उस पर धार रखी गई, निखार किये गये काटे गए, उस के पहलु उभारे गये, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्‍यादा हो गया। क्‍योंकि गोरख तो अभी गोलकोंड़ा की खादन से निकले कोहिनूर हीरे है। कबीर पर धार रखी गई है। जौहरी ने मेहनत करी है….कबीर पहचाने जा सकते है।

गोरख का नाम भूल गए है। बुनियाद के पत्‍थर भूल जाते है।

ओशो—मरौ है जोगी मरौ, (प्रवचन-1)



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बाबा मस्तनाथ जी

योगिराज मस्तनाथ उच्चकोटि के नाथ योगी थे ,नाथ सम्प्रदाय में ही नहीं , केवल मात्र योगसिधों में ही नहीं , समग्र भारतीय अध्यात्मसाधना के छेत्र में वे मध्यकाल के दूसरे- तीसरे चरन की संधि अवधि के महान तपस्वी और योगपुरुष के रूप में सम्मानित हैं |
अपने पंचभौतिक शरीर में महाराज पूरे सौ साल तक विद्यमान थे | महाराज ने नाथयोग के प्रचार-प्रसार और गोरक्षनाथ जी के योग्सिद्धान्तों के प्रतिपादन में बड़ी महान भूमिका निभाई |महाराज ने शिवाजी , समर्थ रामदास तथा गुरु गोविन्द सिंह की हिंदुत्व भावना से प्रभावित असंख्य लोगों को अपने दिव्य व्यक्तित्व से जागृत और सत्पथ में अनुप्राणित किया | योगिराज चौरन्गीनाथ की योगसाधना और तपस्या की स्थली के रूप में गौरवान्वित हरयाणा का अस्थल बोहर मठ मस्तनाथ की गरिमा का सजीव भौम स्मारक है |हरयाणा के रोहतक क्षेत्र के संग्राम गाँव में एक धनि वैश्य परिवार में सिद्ध बाबा मस्तनाथ जी अवतरित हुए | यह वैश्य जाती रेवारी जाती के नाम से प्रसिद्ध है | इस परिवार के सबला नाम के व्यक्ति निस्संतान थे , वे बड़े श्रद्धालु और भगवद्भक्त थे | एक दिन यमुना नदी तट पर अमृतकाय शिवगोरक्ष महायोगी शिवगोरक्ष नाथ जी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया , सबला ने उनसे पुत्र प्राप्ति का वरदान माँगा | गोरक्ष नाथ जी वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए | १७६४ वि. मैं शिवपूजन के अवसर पर एक वन में वट वृक्ष के निचे सबला और उसकी स्त्री को एक वर्ष के दिव्य बालक के रूप में आकारित मस्तनाथ की प्राप्ति हुई | माता - पिता ने उनका विधिपूर्वक जन्म संस्कार किया , पुत्र का उनोहने धूम - धाम से जन्मोत्सव मनाया | मस्तनाथ की उत्पत्ति दिव्य थी ,अयोनिज थी , निसंदेह यह महायोगी गोरक्षनाथ के दर्शन और अनुग्रह का ही मांगलिक परिणाम - फल था | बाबा मस्तनाथ जी की बाल लीलाएं दस साल की अवस्था में मस्तनाथ को गृहकार्य में सहज अरुचि होने लगी और वे बालकों के साथ खेला करते थे | उनकी उदासीनता को दूर करने के लिए माता - पिता ने उन्हें गोपालन में प्रवृत किया | बालकों को उनके साथ वन में जाकर गाय चराने में बड़ी प्रसन्नता होती थी | धीरे - धीरे उनकी लोकोत्तर लीलालेंआरम्भ हुई | वन में वे गाय चराने जाते थे , बालकों के साथ खेलते थे और ठीक उसी समय गाँव में अपने साथियों के साथ क्रीडामग्न हो जाते थे | यह बात अधिक दिनों तक छिपी न रही | कभी - कभी गाय चराने के लिए उन्हें वन में भेजकर पिता उन्हें गाँव के लड़कों के साथ खेलते देखकर आश्चर्य में पड़ जाते थे | सोचते थे की मस्तनाथ का मन गाय चराने में नहीं लगता , लेकिन आश्चर्य बढ़ जाता था , जब ऐसी हालत में गाय वन में ही चर रही होती थीं | वे एक दिन स्वयं वन में गए तो देखा की मस्तनाथ गो पालन में लगे है और गाँव वापस आते ही उन्हें वहीं देखा तो कुछ भी समझ में नहीं आया | सबला उन्हें साक्षात् गोरक्ष नाथ जी के अनुग्रह से प्राप्त समझ कर उनके प्रति अमित पूज्यभाव रखते थे और उनके हृदय में मस्तनाथ के प्रति आदर सात्विक स्नेह बढ़ता रहता था | वैराग तथा योगी ब्रह्मण को अपने रूप से अवगत कराना बारह साल की अवस्था होने पर मस्तनाथ के मन पर वैराग का रंग चढ़ने लगा | वे नदी तट पर ,वन में और तालाबके रमणीय किनारे - किनारे विचरण कर एकांत का सेवन करते हुए आत्मचिंतन में लग गए | वे इच्छाचारी , मिताहारी और ब्रहमचारी के रूप में जीवन यापन में प्रवृत हुए | माता पिता ने उनके पालन पोषण और देख - रेख में किसी भी तरह की कमी नहीं रखी | मस्तनाथ के घर के ही समीप एक नैष्ठिक ब्राहमन निवास करते थे |जप धियान आदि में लीन होकर वे भगवन का चिंतन किया करते थे | उन्हें मस्तनाथ ने अपनी योगविभूति का दर्शन कराया | उन्होंने जटा विभूति विभूषित , गले में सेली आदि शोभित उनका युवा अवधूत वेश में दर्शन किया | साथ ही साथ उन्हें मस्तनाथ के दर्शन के अतिरिक्त अनेक योगियों का भी दर्शन होने लगा | ब्रह्मण ने यह बात उनके पिता से कही | पिता मस्तनाथ के दिव्यस्वरूप में निष्ठावान थे , उन्होंने उनसे (मस्तनाथ से ) पूछा की ब्रह्मण को दर्शन देने वाले योगी कौन हैं \ पिता ने दैवी सिद्धिसमपन्न मस्तनाथ जी की महिमा का अनुभव किया | गुरु दीक्षा एक दिन उनके निवास पर आइपंथ के प्रसिद्ध संत नरमाई का आगमन हुआ पिता ने उनके चरण पर मस्तनाथ को अदृश्य विधान से समर्पित कर दिया | मस्तनाथ ने कहा की मुझे श्री नाथ जी की सेवा में समर्पित कीजिये | में आपके शरणागत हूँ | नरमाई ने कहा की परमेश्वर का चिंतन ही परम आवश्यक तत्व है, विषयासक्त न रहने पर ही वास्तविक विरक्ति का उदय होता है| नरमाई ने मस्तनाथ को २४ साल की अवस्था में संवत १७८८ वि. में योग मंत्र की दीक्षा देकर शिष्य रूप में स्वीकार किया |मस्तनाथ आई पंथ में दीक्षित होकर कुंडल धारण कर साधना में प्रवृत हो गए | आई पंथ आई पंथ का सम्बन्ध करकाई और भुसटाई पंथ से बताया गया है , दोनों गोरक्ष नाथ जी के शिष्य थे | मस्तनाथ जी के गुरु नरमाई जिन्द के कोट स्थान में उत्पन्न हुए थे | मस्तनाथ जी के समय से आई पंथ के योगियों ने अपने नाम के साथ नाथ लगाना आरम्भ किया | नाथ योगी मस्तनाथ इस पंथ में एक सिद्ध पुरुष के रूप में प्रख्यात हुए | बाबा मस्तनाथ जी का अस्थल बोहर आना और विकलांगों को ठीक करना योगिराज मस्तनाथ ने हरयाणा प्रदेश के बोहर से सटे वन को अपना तप: स्थल चुना , जिसकी प्राकृतिक रमणीयता और नीरवता से आक्रीष्ट होकर योगिराज चौरंगी नाथ ने पधार कर तप किया था | मस्तनाथ जी ने पंचाग्नि तप के लिए धूनी प्रज्वलित की | असंख्य दर्शनार्थी उनकी योगसिद्धि और तपस्या से प्रभावित होकर उमड़ पड़े | महाराज ने इसे योग साधना मैं बाधक समझ कर उसी वनस्थली से थोडा आगे स्थान पर तप करने करने का निश्चय किया अनेक लोग उनके दर्शन से सफल मनोरथ होने लगे , उनके मार्गदर्शन से लोगों को स्वस्थता , शांति और निर्भय की प्राप्ति हुई | तपस्या की इस अवधि में एक पंगु नारी आई | लोगों ने उसकी कुरूपता की हंसी उड़ाई | महाराज के अनुग्रह से वह नारी सुंदर आकृति में बदल गई और उसकी पंगुता नष्ट हो गई | इसी तरह बोहर ग्राम के ही निर्भय शर्मा के पुत्र नाथूराम शर्मा को महाराज के दर्शन के लिए उपस्तिथ होने पर नेत्र ज्योति मिल गई| वह दिव्य दृष्टी से सम्पन्न हो उठा | अनेक विकलांग और अंगहीनो विकलांगता ठीक हो गई , उनके अंग प्रत्यंग ठीक हो गए | शिष्यों को पूर्व की घटना सुनना योगिराज मस्तनाथ साक्षात तीर्थस्वरूप थे , वे आत्मतीर्थ थे | एक वृद्ध जाट , धर्मात्मा पुरुष संतानहीनता से वह बहुत दुखी था | उसकी स्त्री भी शरीर से जर्जर हो चली थी | लोगों ने कहा की यदि यह सुखा वट वृक्ष हरा हो जाये , तो जाट भी पुत्र की प्राप्ति कर सकता है | महाराज के आदेश से शिष्यों ने वृक्ष के मूल मैं पानी डाला और वह हरा हो गया , जाट ने उनके अनुग्रह से तीन वर्षों मैं तीन पुत्रों की प्राप्ति की | पाई देवी को शाप देना महाराज रोहतक मंडल के ही भालोट ग्राम से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित कलोई ग्राम मैं पहुँच गए | वहां कुईं पर पानी लेने आई हुई एक सुंदर नवजवान स्त्री ने अपनी सखिओं के साथ मिलकर मस्तनाथ जी के योगी वेश पर हास्यात्मक व्यंग किया | वह हरिसिंह नामक व्यक्ति की पत्नी थी | महाराज ने उसे शाप दिया की तू योगिनी होगी | उस स्थान को नीरस समझ कर महाराज ने निर्जन -जीव जंतु के प्रवेश से अगम खोखर जंगल मैं निवास किया | घर जाने पर हरिसिंह की स्त्री पाई भूतावेश से ग्रस्त हो गई , वह विकृति को प्राप्त हुई | उसके मन में वैराग का उदय हो गया , वह अपने पति पुत्र आदि से सम्बन्ध विच्छेद कर तथा शरीर को भस्म विभूषित कर शिवगोरक्ष मन्त्र को स्मरण करती हुई उसने वन में प्रवेश किया | जब हरिसिंह को पता चला की यह मस्तनाथ के कोप का परिणाम है तो धनुष बाण लेकर उन्हें मारने चल पड़ा | महाराज आसन पर विराजमान थे | अद्रिस्य हो गए कभी दीख पड़ते , कभी अद्रिस्य हो जाते | हरिसिंह ने महाराज से क्षमा मांगी | मस्तनाथ जी ने उसकी स्त्री को योगदीक्षा दी और यह पाई नाथ के नाम से महातपस्विनी योगिनी के रूप में प्रसिद्ध हो गई | बाबा मस्तनाथ का मृग रूप धारण करना खोखरा जंगल मैं ही योगिराज मस्तनाथ जी की कृपा से एक गोपालक की प्रार्थना से मृत गाय के शरीर मैं फिर से प्राण संचार हो गया | इसी प्रकार एक समय महाराज ने रोहतक के झज्जर ग्राम मैं आसन लगाया | महाराज की चरण धूलि से वह ग्राम पवित्र हो गया एक दिन वे छायादार वृक्ष के निचे विराजमान थे की एक सामंत आखेट के लिए उस वनस्थली मैं आया | महाराज ने मृग रूप धारण कर लिया | उसने महाराज पर बाण चलाया और मृग के स्थान पर उसने वट वृक्ष के निचे जटाजूट विभूषित योगी को देखा | महाराज के चरणों पर गिरकर उसने क्षमा मांगी | महाराज ने उसे आत्मज्ञान से संबोधित किया | बादशाह आलम को चमत्कार दिखाना योगिराज मस्तनाथ ने अपनी चरणधूलि से दिल्ली को भी पवित्र किया था | बादशाह औरन्ग्जेब की धार्मिक कट्टरता से हिंदुत्व को भी आघात लगा था | उन दिनों दिल्ली के सिंघासन पर बादशाह आलम विराजमान था | महाराज के दिल्ली पधारने से हिन्दुओं को बहुत आश्वासन मिला और महाराज ने उन्हें अभय दान दिया | महाराज ने दिल्ली में पच कूईयां (पंच्कूपी ) के समीप एक उद्यान मैं आसन लगाया | शाह आलम उनका दर्शन करना चाहता था | उसने महाराज के चरण-देश मैं शाल आदि बहुमूल्य पदार्थ उपहार मैं भेजे | महाराज ने कौतुक मैं ही उनको आग की धूनी मैं डाल दिया | बादशाह ने मंत्री भेजकर कहलवाया की जो वस्तुएं भेजी थीं वे आपके उपयोग मैं नहीं आयंगी उन्हें लौटा दें , बदले में दूसरी वस्तु भेज रहा हूँ | महाराज ने धूनी में जले पदार्थ ज्यों के त्यों नवीन रूप में निकाल कर वापस कर दिए , लोग उनकी योगसिद्धि से चकित हो गए 




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सब कुछ गुरु के पास है , पाइये अपने भाग |

सेवक "सोम"मन सौप्या रहेै , रहै चरण में लाग ||

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