अकाल मौत वो मरे जो काम करे चंडाल का,कालभी उसका क्या करे जो भक्त हो महाकाल का"
महामृत्युञ्जय
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
इसे मृत्यु पर विजय पाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है.
इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं.
इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है;
शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र,
और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है
क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद
पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई "जीवन बहाल" करने वाली विद्या
का एक घटक है.
ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है.
चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले
अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है.
महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ
त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति,फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में)वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है, और स्वास्थ्य प्रदान करता है,एक अच्छा माली
उर्वारुकम= ककड़ी (कर्मकारक)
इव= जैसे, इस तरह
बंधना= तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द सेअधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्युर = मृत्यु से
मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा= न
अमृतात= अमरता, मोक्ष
मंत्र
इसमें शिव की स्तुति की गयी है। शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' माना जाता है। मंत्र इस प्रकार है -
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
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*****भगवान् शिव के द्वारा सृष्टि*****
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जिस समय सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था; न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा, अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों का भी कहीं पता नहीं था; न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायुकी भी सत्ता नहीं थी—उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव की ही सत्ता विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत-महात्म आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
एक बार भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिवने अपनी परा शक्ति अम्बिकाको प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसके कंधेपर सृष्टि-संचालन का महान् भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भागपर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्वगुणकी प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था। रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथों में शंक, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान् को प्रणाम करके कहा कि ‘भगवन् ! मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान् शंकरने मुस्कराकर कहा—‘वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो।’
भगवान् शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल-धाराएं निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जलमें शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ।
तदनन्तर सोये हुए नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर डाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमलके नाल में भ्रमण करते रहे, किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिका का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तपका आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सम्मुख भगवान् विष्णु प्रकट हुए। परमेश्वर शिवकी लीला से उस समय वहाँ विष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि-अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान् विष्णु ने प्रार्थना किया कि ‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये।’
भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले —‘सुरश्रेष्ठगण मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन् ! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु ! तू इस चराचर जगत का पालन करो,। तदनन्तर परमेश्वर शिवने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।
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शिव हैं सृजन के देवता
और काल के अधिपति
शिव, शंकर, भोलेनाथ या महाकाल, कई नामों से एक ही रूप में पूजे जाने
वाले एकमात्र देवता है शिव। शिव प्रकृति के देवता हैं, इसलिए आम
आदमी के सबसे ज्यादा नजदीक और सबसे ज्यादा पूजित हैं। शिव और
उनकास्वरूप हमेशा आश्चर्य का विषय रहा है। शिव एकमात्र भगवान
हैं जो सृजन के देवता हैं और संहार के भी। शिव को काल
का अधिपति भी माना गया है इसलिए उन्हें महाकाल भी कहा गया है। वे
शमशान वासी भी इसीलिए माने जाते हैं क्योंकि सृष्टि के संहार
की कमान भी उनके हाथों में है।
आइए, समझते हैं शिव के रूप और उनके परिवार को। कहते हैं शिव
प्राण हैं, क्योंकि जब प्राण नहीं रहते तो शरीर शव हो जाता है, जब
प्राण हों तो ही शिव हैं। शिव इस सृष्टि में प्रकृति के भगवान हैं
इसीलिए उनका पूरा स्वरूप प्रकृति और प्रेम से परिपूर्ण है। शिव
का निवास पर्वत और आसन शिला (पत्थर) का है। वे आभूषण के रूप
में सर्प और बिच्छुओं को धारण करते हैं और वस्त्र के रूप में वाघम्बर
(शेर की खाल)। उनका भोजन भी कंद-मूल है। वाहन नंदी यानी बैल।
शिव हमें प्रकृति के नजदीक और खुद के स्वभाव में जीने की शिक्षा देते
हैं। इस सृष्टि के तीन प्रमुख देवता माने गए हैं ब्रह्मा, विष्णु और
शिव, ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु उसका पालन और
संचालन तथा शिव संहार करते हैं।
शिव की पत्नी पार्वती हैं, पार्वती शक्ति का प्रतीक हैं, शरीर में प्राण
के साथ शक्ति का संचार भी आवश्यक है। शक्ति कर्म के लिए प्रेरित
करती है। यह शक्ति शारीरिक के साथ आत्मिक बल की भी प्रतीक है।
आत्मिक बल, अच्छे कर्म और प्राण शक्ति हो तो इससे उत्पन्न
होती है बुद्धि और वैराग्य, बुद्धि के देवता हैं गणेश जो शिव के पुत्र हैं,
शिव के दूसरे पुत्र हैं कार्तिकेय (स्कंध)। कार्तिकेय वैराग्य के प्रतीक
हैं। इस तरह शिव जो सृष्टि में सृजन का संदेश देते हैं और संहार का भी,
वे हमें अपने परिवार के जरिए श्रेष्ठ जीवन का उपदेश देते हैं।
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कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि ॥
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शिव भोले है इसी लिए दंण्ड कमंडल वाले है शिव सत्य है , कल्याणकारी है ,और सुन्दर है , जल्दी मान जाते है ,जल्दी सबकी इच्छा पूरी कर देते है ,पर खुद भगवान् होकर भी ,एक छोटा सा घर भी नहीं बनाये, ना आभूषणों से सज्जित है ,बस मृगछाला लपेट कैलाश में धुनी रमाते रहे , शायद इसी के कारण उन्हें भोले ,कहते है , और सभी अपना काम उनसे सहज ही करवा लेते है
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?
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शिव कारण हैं;
शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं;
शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं;
शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं;
शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं;
शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं;
शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं;
शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं;
शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं।
शक्ति सागर की लहर हैं।
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आइये हम समझने की कोशिश करते हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध....."
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*******ईश्वर *******
शब्द से सभी परिचित हैं परंतु बहुत कम लोग ही ईश्वर को समझ पाते
हैं। ईश्वर के बारे में लोगों की आम घारणा है कि पूजा अर्चना करने एवं मंदिर
आदि में जाकर प्रसाद एवं चढ़ावा चढ़ाने से ईश्वर उन पर प्रसन्न
हो जाएगा एवं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देगा या उन्हें कोई जादू
की छड़ी पकड़ा देगा जिससे वे मलामाल हो जाऐंगे, या उनके सब पाप नष्ट
हो जाएंगे, परंतु यह बिलकुल ही मूरर्वतापूर्ण एवं अंध विश्वास से ग्रस्त
धारणा है। ईश्वर न तो कभी किसी से कुछ लेता है न ही कभी किसी को कुछ
देता है, लेना देना पूर्णतः मनुष्य के कर्म के उपर निर्र्भर करता है। कर्म से
ही मनुष्य जीवन में सुरव दुरव का अनुभव करता है, कर्म से ही उसके
भविष्य का निर्माण होता है, कर्म से ही उसके वंशानुगत जीन्स का निर्माण
होता है एवं कर्म से ही उसके जन्मों का निर्धारण होता है, इसलिए
कहा जाता है कि मनुष्य स्वयं अपने भविष्य का निर्माता होता है।
कहा जाता है कि अमुक स्थान या अमुक व्यक्ति के पास जाने से मनुष्य
की सभी मनोकामनाऐं पूर्ण हो जातीं हैं, यह सिर्फ मनुष्य की श्रद्घा एवं
विश्वास पर निर्भर करता है। जब कोई रोगी किसी डाक्टर के पास इलाज
कराने जाता है और यदि डाक्टर को उसका रोग समझ में नहीं आता तब
डाक्टर उसे ऐसी दवा दे देता है जिसमें कोई औषधीय गुण नहीं होता परंतु इस
दवा को रवाकर भी मरीज ठीक हो जाता है, अतः शक्ति मनुष्य के
श्रद्घा एवं विश्वास में होती है न कि किसी मूर्ति मंदिर या व्यक्ति विशेष
में, मंदिरों को आध्यात्म की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है जहां हम
श्रृद्घा एवं विश्वास सीरवते हैं।
वैज्ञानिक आधार पर ईश्वर को समझने के लिए हम एक ठोस धातु
का टुकड़ा लेते हैं इसे हम जिस स्थान पर ररव देते हैं यह उसी स्थान पर
ररवा रहता है जब तक कि इसे उस स्थान से किसी के द्वारा हटाया न जाए
या इसमें जब तक कोई वल न लगाया जाए, अर्थात यह स्वयं कुछ
भी नहीं कर सकता। अब हम इस टुकड़े को इतना गर्म करें कि यह द्रव रूप में
बदल जाए अब यह द्रव रूप धरातल के अनुरूप अपना आकार बदलने में सक्षम
हो जाता है अर्थात इसे अब जिस पात्र में ररवा जाए यह उसी के अनुरूप
अपना आकर बना लेता है। अब हम इस द्रव रूप को इतना गर्म करें कि यह
वाष्प रूप में बदल जाए यह वाष्प रूप सारे वायुमंडल में फैलने में सक्षम
हो जाता है एवं वायु की गति प्राप्त कर लेता है। इस वाष्प रूप को और गर्म
करने पर इसके परमाणु प्रकाशित हो जाते हैं अब यह प्रकाश, उर्जा एवं
तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है।(यहां यह ध्यान ररवने योग्य है कि जलने
से परमाणु कभी नष्ट नहीं होता न ही इसकी संरचना बदलती है यह प्रकाश,
उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है)। अब यह सारे ब्रह्मांड में
फैलने में सक्षम हो जाता है एवं प्रकाश की गति अर्थात तीन लारव
किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति प्राप्त कर लेता है तथा कोई भी क्रिया करने
में सक्षम हो जाता है। यह उर्जारूप अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर तरंग रूप में
बदल जाता है और अंत में यह तरंग रूप निराकार रूप में बदलता रहता है इस
निराकार रूप को हम ईश्वर कहते हैं। धार्मिक ग्रथों में इसे ईश्वर का तत्व
रूप कहा गया है, गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है
कि जो व्यक्ति मेरे तत्व रूप को जान लेता है वही मुझ तक पहुंच पाता है।
ब्रह्मांड में जो कुछ भी है इस सबको हम द्रव्य कहते हैं, इस द्रव्य
को दो भागों में विभक्त किया गया है। 1. जड़ 2. चेतन ।
चेतन स्वतःक्रिया करने में सक्षम होते हैं जबकि जड़ स्वतः क्रिया नहीं कर
सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। जड़ का सबसे
छोटा कण परमाणु होता है, एवं चेतन द्रव्य का सबसे छोटा रूप
आत्मा होती हैं। जड .परमाणु के भीतर ही चेतन द्रव्य स्थित होता है एवं
अलग ने स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है।
जड़ द्रव्य के तीन रूप होते हैं। 1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप।
चेतन द्रव्य के दो रूप होते हैं। 1. उर्जा 2. तरंग
इस तरह दोनों को मिलाकर द्रव्य के पांच रूप होते हैं। 1. ठोस 2. द्रव 3.
वायु रूप 4. उर्जा 5. तरंग।
विज्ञान भी द्रव्य के इस पांच रूपों को प्रमाणित कर चुका है। धार्मिक
ग्रथों में इन्हें पंच तत्व क्रमशः 1. पृथ्वी 2. जल, 3 .वायु, 4. अग्नि एवं
5. आकाश कहते है।
ईश्वर को स्वतंत्र एवं निरपेक्ष
माना गया है क्योंकि सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है एवं इसी में लीन
हो जाता है। गुणों को धारण करने वाली प्रत्येक चीज साकार एवं नश्वर
होती है, चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो सिर्फ ईश्वर ही निराकार
अमर एवं अजन्मा है। ईश्वर ने संसार की रचना कुछ इस प्रकार की है
कि यहां क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है एवं प्रतिक्रिया ने
परिणाम प्राप्त होते रहते हैं इसमें ईश्वर को कुछ भी नहीं करना होता वह
तो हर जगह द्रष्टा एवं आधार के रूप में उपस्थित रहता है। चूंकि हम सूक्ष्म
क्रियाओं को देरव नहीं सकते परंतु हम अपने जीवन चक्र से इसे समझ सकते
हैं।
प्राणी (सजीव) जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं पहला प्राणी जगत
दूसरा वनस्पिति जगत तीसरा कीट जगत। इसमें वनस्पिति जगत जो त्याग
करता है ( फल फूल औषधि आक्सीजन आदि के रूप में) उससे प्राणी जगत
एवं कीट जगत का पोषण होता है, प्राणी जगत जो त्याग करता है (मल मूत्र
कार्वन डाइआक्साइड आदि) इससे कीट जगत एवं वनस्पिति जगत का पोषण
होता है एवं कीट जगत रवाद आदि के रूप में जो त्याग करता है उससे
वनस्पिति जगत एवं प्राणी जगत का पोषण होता है। अतः तीनों आपस में एक
दूसरे का अस्तित्व बनाए ररवते हैं एवं कोई भी चीज कचरा या प्रदूषण के रूप
में शेष नहीं रहती।
हम ईश्वर को गणित की संरव्या शून्य से भी समझ सकते हैं, गणित में शून्य
एक ऐसी संरव्या है जिसके बिना गणित की कल्पना करना संभव नहीं इसमें
अकेले शून्य का कोई महत्व नहीं होता परंतु यह किसी संरव्या के साथ
कितनी भी बड़ी संरव्या का निर्माण कर सकता है। शून्य में चाहे कितने
भी शून्य का जोड़ घटाना गुणा भाग कुछ भी किया जाए परिणाम हमेशा शून्य
ही आता है इसी प्रकार एक निराकार (ईश्वर) में चाहे कितने भी निराकार मिल
जाएं यह हमेशा निराकार ही रहेगा। इसी आघार पर सारा ब्रह्मांड निराकार
अर्थात शून्य में विलीन हो जाता है एवं सिर्फ एक ईश्वर शेष बच जाता ह
ईश्वर के मूलरूप को हमारी भौतिक आरवों से
नहीं देरवा जा सकता इसे सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है।
ईसावास्योपनिषद् के प्रथम श्लोक में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार
किया गया है। पूर्णमदः पूर्णममिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिश्यते॥
अर्थ :-ईश्वर सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है, यह जगत भी उस
ईश्वर से पूर्ण ही है क्योंकि यह पूर्ण जगत उस पूर्ण पुरुसोत्तम से
ही उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार ईश्वर की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर
भी वह ( ईश्वर) पूर्ण है, उस (ईश्वर) पूर्ण में से इस (जगत) पूर्ण
को निकाल देने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण ही बच जाता है।
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गोकुल में भगवान शिव
एक बार भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई. भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर अलख जगाते हुए गोकुल में आए. शिव जी द्वार पर आकर खड़े हो गए. तभी नन्द भवन से एक दासी शिवजी के पास आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें. और लाला को आशीर्वाद दे दें. शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है, मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है. दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया.
"अरी मईया! देखा दे मुख लाल का,
तेरे पलने में, पालनहार देखा दे मुख लाल का "
यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा. शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है. वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है.यशोदाजी बोलीं- कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें. शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा. मै यही समाधी लगा लूगा जब इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं. और माता वहां ले नहीं जाएंगी,और वे दर्शन न मिलने पर समाधी लगा लेगे क्योकि कन्हैया जानते थे कि भोले बाबा कि समाधी लग गई तो हजारों वर्ष के बाद ही खुलेगी तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया. जब कन्हैया किसी भी प्रकार चुप नहीं हुए तो माता को लगा कि सचमुच वे योगी परम तपस्वी है, यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई. शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई. वे अपनी गोद में लेना चाहते थे. शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा. यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया. जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा.
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शिव हैं सृजन के देवता
और काल के अधिपति
शिव, शंकर, भोलेनाथ या महाकाल, कई नामों से एक ही रूप में पूजे जाने
वाले एकमात्र देवता है शिव। शिव प्रकृति के देवता हैं, इसलिए आम
आदमी के सबसे ज्यादा नजदीक और सबसे ज्यादा पूजित हैं। शिव और
उनकास्वरूप हमेशा आश्चर्य का विषय रहा है। शिव एकमात्र भगवान
हैं जो सृजन के देवता हैं और संहार के भी। शिव को काल
का अधिपति भी माना गया है इसलिए उन्हें महाकाल भी कहा गया है। वे
शमशान वासी भी इसीलिए माने जाते हैं क्योंकि सृष्टि के संहार
की कमान भी उनके हाथों में है।
आइए, समझते हैं शिव के रूप और उनके परिवार को। कहते हैं शिव
प्राण हैं, क्योंकि जब प्राण नहीं रहते तो शरीर शव हो जाता है, जब
प्राण हों तो ही शिव हैं। शिव इस सृष्टि में प्रकृति के भगवान हैं
इसीलिए उनका पूरा स्वरूप प्रकृति और प्रेम से परिपूर्ण है। शिव
का निवास पर्वत और आसन शिला (पत्थर) का है। वे आभूषण के रूप
में सर्प और बिच्छुओं को धारण करते हैं और वस्त्र के रूप में वाघम्बर
(शेर की खाल)। उनका भोजन भी कंद-मूल है। वाहन नंदी यानी बैल।
शिव हमें प्रकृति के नजदीक और खुद के स्वभाव में जीने की शिक्षा देते
हैं। इस सृष्टि के तीन प्रमुख देवता माने गए हैं ब्रह्मा, विष्णु और
शिव, ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु उसका पालन और
संचालन तथा शिव संहार करते हैं।
शिव की पत्नी पार्वती हैं, पार्वती शक्ति का प्रतीक हैं, शरीर में प्राण
के साथ शक्ति का संचार भी आवश्यक है। शक्ति कर्म के लिए प्रेरित
करती है। यह शक्ति शारीरिक के साथ आत्मिक बल की भी प्रतीक है।
आत्मिक बल, अच्छे कर्म और प्राण शक्ति हो तो इससे उत्पन्न
होती है बुद्धि और वैराग्य, बुद्धि के देवता हैं गणेश जो शिव के पुत्र हैं,
शिव के दूसरे पुत्र हैं कार्तिकेय (स्कंध)। कार्तिकेय वैराग्य के प्रतीक
हैं। इस तरह शिव जो सृष्टि में सृजन का संदेश देते हैं और संहार का भी,
वे हमें अपने परिवार के जरिए श्रेष्ठ जीवन का उपदेश देते हैं।
शिव महिमा
हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।
पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।
भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।
इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।
इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।
महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।
इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।
भोले नाथ का विराट स्वरूप
जगत पिता के नाम से हम भगवान शिव को पुकारते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापी व लोग कल्याण का प्रतीक माना जाता है जो पूर्ण ब्रह्म है। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ऐसा मानते हैं कि शिव शब्द की उत्पत्ति वंश कांतौ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सबको चाहने वाला और जिसे सभी चाहते है। शिव शब्द का ध्यान मात्र ही सबको अखंड, आनंद, परम मंगल, परम कल्याण देता है।
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर, घुवमेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।
जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।
1चंद्र- चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।
त्रिनेत्र- शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।
सर्प का हार- सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है।
त्रिशूल- शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
1. डमरू- शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।
मुंडमाला- शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।
2. छाल- शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।
3. भस्म- शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।
वृषभ- शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है।
भगवान शिव
हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।
वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।
शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।
आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।
आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।
वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।
भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।
शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।
भगवान शिव के १०८ नाम
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रु
अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर
रुद्राक्ष
रुद्राक्ष के उद्भव के विषय में शिवपुराण में एक कहानी है। इसके अनुसार, हजारों वर्ष तक तप करने के बाद भगवान शिव ने जब आंखें खोलीं, तो उनकी आंखों से एक-एक करके कई बूंदेंटपक पडीं। यही बूंदेंबाद में रुद्राक्ष का वृक्ष बन गई। पुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि रुद्र का जन्म ब्रह्मा की आंखों से हुआ था। माना जाता है कि शिव जब क्रोधित होते हैं, तो वे रुद्र कहलाते हैं।
रूप की दृष्टि से अनेक प्रकार के रुद्राक्ष पाए जाते हैं, जैसे-एकमुखी से चतुर्दश तक। एकमुखीतथा पंचमुखीरुद्राक्ष को साक्षात शिव का स्वरूप माना जाता है। इसे धारण करने से हमें भक्ति तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि द्वि-मुखी रुद्राक्ष धारण करने से गोवध का पाप नष्ट हो जाता है। त्रि-मुखी रुद्राक्ष धन तथा विद्या प्रदान करते हैं। चतुर्मुखी रुद्राक्ष को साक्षात ब्रह्मा का स्वरूप माना जाता हैं। षष्ठमुखीरुद्राक्ष दाहिनी बांह में धारण करना चाहिए। वह स्कंद का प्रतीक है।
सप्तमुखीरुद्राक्ष को धारण करने से निर्धन भी धन-धान्य से पूर्ण हो जाते हैं। अष्टमुखीबटुकभैरव का प्रतीक है। नवमुखीदुर्गा का प्रतीक है, दसमुखीजनार्दन का। एकादशमुखीरुद्रस्वरूप,द्वादशमुखीसूर्यस्वरूप,त्रयोदशमुखीविश्वदेवका प्रतीक है। चतुर्दशमुखीरुद्राक्ष को मस्तक पर धारण करना चाहिए, क्योंकि यह साक्षात् आनंददाताशिव का प्रतीक माना जाता है।
भगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है-
रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:।
शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता तथा श्रीमद्देवी भागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रु बिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।
रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।
जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुन्जाफालके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।
रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष। रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।
शास्त्रों में एक से चौदहमुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है।
एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखी रुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महापात कभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।
दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।
तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।
चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।
पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत: पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं।
इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।
सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।
आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।
नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।
दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।
ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।
बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।
तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।
चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।
रुद्राक्ष
रुद्राक्ष एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाताहै। ऐसा माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान की आँखों के जलबिंदु सेहुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। रुद्राक्ष शिव कावरदान है, जो संसार के भौतिक दु:खों को दूर करने के लिए प्रभु शंकर ने प्रकटकिया है।
रुद्राक्ष के नाम और उनका स्वरूप
एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव, द्विमुखी श्री गौरी-शंकर, त्रिमुखी तेजोमयअग्नि, चतुर्थमुखी श्री पंचदेव, षष्ठमुखी भगवान कार्तिकेय, सप्तमुखी प्रभुअनंत, अष्टमुखी भगवान श्री गेणश, नवममुखी भगवती देवी दुर्गा, दसमुखीश्री हरि विष्णु, तेरहमुखी श्री इंद्र तथा चौदहमुखी स्वयं हनुमानजी का रूपमाना जाता है। इसके अलावा श्री गणेश व गौरी-शंकर नाम के रुद्राक्ष भी होतेहैं।
एकमुखी रुद्राक्ष
ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जोसभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है।
द्विमुखी रुद्राक्ष
सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला तथा दांपत्य जीवन में सुख,शांति व तेज प्रदान करता है।
त्रिमुखी रुद्राक्ष
ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है।
चतुर्थमुखी रुद्राक्ष
धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है।
पंचमुखी रुद्राक्ष
सुख प्रदान करने वाला।
षष्ठमुखी रुद्राक्ष
पापों से मुक्ति एवं संतान देने वाला होता होता है।
सप्तमुखी रुद्राक्ष
दरिद्रता को दूर करने वाला होता है।
अष्टमुखी रुद्राक्ष
आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
नवममुखी रुद्राक्ष
मृत्यु के डर से मुक्त करने वाला होता है।
दसमुखी रुद्राक्ष
शांति एवं सौंदर्य प्रदान करने वाला होता है।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष
विजय दिलाने वाला, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करने वाला होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष
धन प्राप्ति कराता है।
तरेह मुखी रुद्राक्ष
शुभ व लाभ प्रदान कराने वाला होता है।
चौदह मुखी रुद्राक्ष
संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाला होता है।
रुद्राक्ष को धारण करने की सरल विधि
रुद्राक्ष को धारण करने की सरल विधि यदि किसी कारणवश रुद्राक्ष के विशेषरुद्राक्ष मंत्रों से धारण न कर सके तो इस सरल विधि का प्रयोग करके धारणकर लें। रुद्राक्ष के मनकों को शुद्ध लाल धागे में माला तैयार करने के बादपंचामृत (गंगाजल मिश्रित रूप से) और पंचगव्य को मिलाकर स्नान करवानाचाहिए और प्रतिष्ठा के समय ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर मंत्र को पढ़नाचाहिए। उसके पश्चात पुनः गंगाजल में शुद्ध करके निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुएचंदन, बिल्वपत्र, लालपुष्प, धूप, दीप द्वारा पूजन करके अभिमंत्रित करे ॐतत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात || इससेअभिमंत्रित करके धारण करना चाहिए। शिवपूजन, मंत्र, जप, उपासना आरंभकरने से पूर्व ऊपर लिखी विधि के अनुसार रुद्राक्ष माला को धारण करने एवंएक अन्य रुद्राक्ष की माला का पूजन करके जप करना चाहिए। इसकेअतिरिक्त नीचे लिखी सावधानियों को भी ध्यान करना चाहिए।
1-जो रुद्राक्ष कीड़ो ने दूषित किया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने नहो, जो वरणयुक्त हो तथा पूरा-पूरा गोल न हो, इन पांच प्रकार के रुद्राक्षों कोधारण नहीं करना चाहिए।
2-जो रुद्राक्ष छिद्र करते हुए फट गये हो और जो शुद्ध रुद्राक्ष जैसे न हों] उन्हेंधारण न करें।
3-धारण करने से पहले परीक्षण कर लें कि रुद्राक्ष असली है या नकली।नकली रुद्राक्ष पानी में तैरने लगेगा और असली रुद्राक्ष पानी में डूब जाएगा।
4-जो रुद्राक्ष गोल, चिकना, मोटा, कांटेदार हो, उसे ही खरीदना चाहिए।
5-एकमुखी रुद्राक्ष को किसी पीतल के बर्तन में रख दें। उसके ऊपर से 108बिल्वपत्र लेकर चंदन से ओम नमः शिवाय मंत्र लिखकर सबसे नीचे रुद्राक्षरखकर रात्रि में रख दें। प्रातः रुद्राक्ष बिल्वपत्र के ऊपर विराजित होगा तो वहशुद्ध रुद्राक्ष होगा।
6-एकमुखी रुद्राक्ष को ध्यानपूर्वक देखने पर त्रिशूल या नेत्र का निशान कहीं नकहीं अवश्य ही दिखाई देता है।
7-रुद्राक्ष के दानों को तेज धूप में छः घंटे तक रखने से अगर रुद्राक्ष चटकें (टूटेनहीं) तो असली माने जाते हैं।
8-रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, लिसोडा औरविड्वराह (ग्राम्यसूयकर) इन पदार्थो का परित्याग करना चाहिए।
9-जप आदि कार्यो में छोटा रुद्राक्ष ही विशेष फलदायक होता है और बड़ा रुद्राक्षरोगों पर विशेष फलदायी माना जाता है ।
10-रुद्राक्ष शिवलिंग से अथवा शिव प्रतिमा से स्पर्श कराकर धारण करनाचाहिए।
11-रुद्राक्ष धारण करने के उपरांत सुबह-सायं भगवान शंकर का पूजन औरओम नमः शिवाय मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए।
गंगाधर
राजा भगीरथ ने जनकल्याण के लिए पतितपावन गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने राजा भगीरथ को यह वचन दिया कि सर्वकल्याणकारी गंगा पृथ्वी पर आएगी। मगर समस्या यह थी कि गंगाजी को पृथ्वी पर संभालेगा कौन?
समस्या का समाधान करते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है अतः तुम्हें भगवान रुद्र की तपस्या करना चाहिए। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर भगीरथ ने प्रभु भोलेनाथ की कठोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगीरथ से कहा- 'नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं गिरिराजकुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूँगा।'
भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं। उस समय गंगाजी के मन में भगवान शंकर को पराजित करने की प्रबल इच्छा थी। गंगाजी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लेकर पाताल में चली जाऊँगी।
गंगाजी के इस अहंकार को जान शिवजी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगाजी को अदृश्य करने का विचार किया। पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गईं। लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं। जब भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गईं, तब उन्होंने पुनः भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया। उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोड़ा। वहाँ से गंगाजी सात धाराएँ हो गईं।
इस प्रकार ह्लादिनी, पावनी और नलिनी नामक की धाराएँ पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु- ये तीन धाराएँ पश्चिम की ओर चली गईं। सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली और पृथ्वी पर आई। इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं।
औढरदानी शिव
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा शांति के आगार हैं। वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। उनका यह दिव्यज्ञान स्वतः सम्भूत है।
ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे सबके मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं।
भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म-विभूषण, श्मशानवासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वतीजी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं। आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है।
संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है।
हरिहर रूप
एक बार सभी देवता मिलकर संपूर्ण जगत के अशांत होने का कारण जानने के लिए विष्णुजी के पास गए। भगवान विष्णु ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर तो भोलेनाथ ही दे सकते हैं। अब सभी देवता विष्णुजी को लेकर शिवजी की खोजने मंदर पर्वत गए। वहाँ शंकरजी के होते हुए भी देवताओं को उनके दर्शन नहीं हो रहे थे।
पार्वतीजी का गर्भ नष्ट करने पर देवताओं को महापाप लगा था और इस कारण ही ऐसा हो रहा था। तब विष्णुजी ने कहा कि सारे देवता शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तत्पकृच्छ्र व्रत करें। इसकी विधि भी विष्णुजी ने बताई। सारे देवताओं ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप सारे देवता पापमुक्त हो गए। पुनः देवताओं को शंकरजी के दर्शन करने की इच्छा जागी। देवताओं की इच्छा जान प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने हृदयकमल में विश्राम करने वाले भगवान शंकर के लिंग के दर्शन करा दिए।
अब सभी देवता यह विचार करने लगे कि सत्वगुणी विष्णु और तमोगुणी शंकर के मध्य यह एकता किस प्रकार हुई। देवताओं का विचार जान विष्णुजी ने उन्हें अपने हरिहरात्मक रूप का दर्शन कराया। देवताओं ने एक ही शरीर में भगवान विष्णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर उनकी स्तुति की।
पंचमुखी शिव
मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजपावर्णैर्मुखैः पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरंजितमीशमिंदुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम् ।
शूलं टंककृपाणवज्रदहनान्नागेन्द्रघंटांकुशान् पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्॥
'जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्ज्वल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पाँच मुख हैं।
जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घंटा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूँ।'
महामृत्युंजय
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम् ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे॥
भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहे हैं। अपने दो हाथों में क्रमशः मृगमुद्रा और रुद्राक्ष की माला धारण किए हैं। दो हाथों में अमृत-कलश लिए हैं। दो अन्य हाथों से अमृत कलश को ढँके हैं।
इस प्रकार आठ हाथों से युक्त, कैलास पर्वत पर स्थित, स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र का मुकुट धारण किए त्रिनेत्र, मृत्युंजय महादेव का मैं ध्यान करता हूँ।
शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।
शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।
शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है। वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।
कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं। अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।
इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के
रूप इसीलिए दिखाया गया है।
भगवान् शिव के द्वारा सृष्टि
जिस समय सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था; न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा, अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों का भी कहीं पता नहीं था; न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायुकी भी सत्ता नहीं थी—उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव की ही सत्ता विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत-महात्म आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
एक बार भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिवने अपनी परा शक्ति अम्बिकाको प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसके कंधेपर सृष्टि-संचालन का महान् भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भागपर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्वगुणकी प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था। रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथों में शंक, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान् को प्रणाम करके कहा कि ‘भगवन् ! मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान् शंकरने मुस्कराकर कहा—‘वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो।’
भगवान् शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल-धाराएं निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जलमें शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ।
तदनन्तर सोये हुए नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर डाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमलके नाल में भ्रमण करते रहे, किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिका का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तपका आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सम्मुख भगवान् विष्णु प्रकट हुए। परमेश्वर शिवकी लीला से उस समय वहाँ विष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि-अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान् विष्णु ने प्रार्थना किया कि ‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये।’
भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले —‘सुरश्रेष्ठगण मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन् ! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु ! तू इस चराचर जगत का पालन करो,। तदनन्तर परमेश्वर शिवने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।
अर्धनारीश्वर शिव
सृष्टि के प्रारम्भ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गयी मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई—‘ब्रह्मन् ! अब मैथुनी सृष्टि करो।’
आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदयमें प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान करते रहे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान् उमा –महेश्वर नमे उन्हें अर्धनारीश्वर-रूप में दर्शन दिया। देवादिदेव भगवान् शिव के दिव्य स्वरूप को देखकर ब्रह्माजी अभिभूत हो उठे और उन्होंने दण्डकी भाँति भूमि पर लेटकर उस अलौकिक विग्रह को प्रणाम किया।
महेश्वर शिवने कहा—‘पुत्र ब्रह्मा ! मुझे तुम्हारा मनोरथ ज्ञात हो गया है। तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है; उससे मैं परम प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’ ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमादेवी को अलग कर दिया। तदनन्तर परमेश्वर शिव के अर्धांग से अलग हुई उन पराशक्ति को साष्टांग प्रणाम करके ब्रह्माजी इस प्रकार कहने लगे—
‘शिवे ! सृष्टि के प्रारम्भ में आपके पति देवाधिदेव ने शम्भुने मेरी रचना की थी। भगवति ! उन्हीं के आदेश से मैने देवता आदि समस्त प्रजाओं का मानसिक सृष्टि की। परंतु अनेक प्रयासों के बाद भी उनकी वृद्धि करने में मैं असफल रहा हूँ। अतः अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाको उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूँ, किंतु अभीतक नारी-कुलका प्राकट्य नहीं हुआ है और नारी-कुलकी सृष्टि करना मेरी शक्ति से बाहर है। देवि ! आप सम्पूर्ण सृष्टि शक्तियों की उद्गमस्थली हैं। इसलिये हे मातेश्वरी, आप मुझे नारी-कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें। मैं आपसे एक और विनती करता हूँ कि चराचर जगत् की वृद्धि के लिये आप मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेने की कृपा करें।’
ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर शिवाने ‘तथास्तु’—ऐसा ही होगा—कहा और ब्रह्माको उन्होंने नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान की। इसके लिए उन्होंने अपनी भौहों के मध्यभाग से अपने ही समान कान्तमती एक शक्ति प्रकट की। उसे देखकर देवदेवेश्वर शिवने हँसते हुए कहा—‘देवि ! ब्रह्माने तपस्या द्वारा तुम्हारी आराधना की है। अब तुम उनपर प्रसन्न हो जाओ और उनका मनोरथ पूर्ण करो।’ परमेश्वर शिवकी इस आज्ञा को शिरोधार्य करके वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गयी। इस प्रकार ब्रह्माजी को अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। फिर महादेवजी भी अन्तर्धान हो गये तभी से इस लोक में मैथुनी सृष्टि चल पड़ी। सफल मनोरथ होकर ब्रह्माजी भी परमेश्वर शिव का स्मरण करते हुए निर्विघ्नरूपसे सृष्टि-विस्तार करने लगे।
इस प्रकार शिव और शक्ति एक-दूसरे से अभिन्न तथा सृष्टि के आदिकारण हैं। जैसे पुष्प में गन्ध, चन्द्रमें चन्द्रिका, सूर्य में प्रभा नित्य और स्वभाव-सिद्ध है, उसी प्रकार शिवमें शक्ति भी स्वभाव-सिद्ध है। शिव में इकार ही शक्ति है। शिव कूटस्थ तत्त्व है और शक्ति परिणामी तत्त्व। शिव अजन्मा आत्मा है और शक्ति जगत् में नाम-रूप के द्वारा व्यक्त सत्ता। यही अर्धनारीश्वर शिवका रहस्य है।
सोमवार व्रत कथा
श्रावण सोमवार व्रत कथा
शिव शक्ति की सोमवार व्रत कथा
श्रावण सोमवार की कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था।
दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा।
पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था।
उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।'
भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।'
इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।'
पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।'
उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई।
भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया।
व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा।
जब अमर 12 वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे।
लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी।
वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा।
वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।'
जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे।
मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।'
भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।'
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा।
राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
संबंधित जानकारी
– Sri Shiva Thandav Stotram
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलॆ
गलॆवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनॊतु नः शिवः शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
-विलॊलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावकॆ
किशॊरचन्द्रशॆखरॆ रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
धराधरॆन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमॊदमानमानसॆ ।
कृपाकटाक्षधॊरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरॆ मनॊ विनॊदमॆतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखॆ ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमॆदुरॆ
मनॊ विनॊदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्रलॊचनप्रभृत्यशॆषलॆखशॆखर
प्रसूनधूलिधॊरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकॊरबन्धुशॆखरः ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
-निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलॆखया विराजमानशॆखरं
महाकपालिसम्पदॆशिरॊजटालमस्तु नः ॥ 6 ॥
करालफालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायकॆ ।
धराधरॆन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलॊचनॆ मतिर्मम ॥ 7 ॥
नवीनमॆघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबन्धुकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनॊतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
-विलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजॆ ॥ 9 ॥
अगर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजॆ ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
-द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालफालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयॊर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजॊर्-
-गरिष्ठरत्नलॊष्ठयॊः सुहृद्विपक्षपक्षयॊः ।
तृष्णारविन्दचक्षुषॊः प्रजामहीमहॆन्द्रयॊः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजॆ ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकॊटरॆ वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलॊललॊचनॊ ललाटफाललग्नकः
शिवॆति मन्त्रमुच्चरन् सदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमॆवमुक्तमुत्तमॊत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरॊ विशुद्धिमॆतिसन्ततम् ।
हरॆ गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमॊहनं हि दॆहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमयॆ दशवक्त्रगीतं यः
शम्भुपूजनपरं पठति प्रदॊषॆ ।
तस्य स्थिरां रथगजॆन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥ 15 ॥
सोलह सोमवार व्रत कथा
एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक मेंअमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था।शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आजचौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जीने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की औरअन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी कोकोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।
कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारणपूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलहसोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी नेउत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें,संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्टी की तीन मूर्तिबनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवानशंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलहसोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकरभोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजीतुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।
पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बादशिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होनेका कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूपअप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती सेपूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रतबतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला।उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया।फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था किहथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्मणभी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्मणकुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे।एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससेराजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्मण ने सोलह सोमवारका व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया औरसर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्यसे मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया।पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसेराज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा केदिवंगत होने पर ब्राह्मण कुमार को गद्दी मिली। फिर वह इस व्रत को करतारहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा,परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जोआकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश करदेगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।
रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढि या नेइसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उडगई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तनचटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई।सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी करआराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर कीयह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईंजी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले-बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी,परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जीने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया - मैंनेपति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जीने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो।रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई औरदूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजाको रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरीपत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी कीकृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी।राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे।मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानीके साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जोमनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथासुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्तहोता है।
॥ बोलो शिवशंकर भोले नाथ की जय ॥
पुराणों के अनुसार शिवजी की आराधना से मनुष्य की सारी मनोकामना पूरी होती है। शिवलिंग पर मात्र जल चढ़ाने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। 12ज्योतिर्लिंगों का दर्शन करने वाला प्राणी सबसे खुशनसीब है।
शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है। इन सभी का दर्शन हर कोई नहीं कर सकता। सिर्फ किस्मत वाले लोग ही देश भर में स्थित इन ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर पाते हैं।
शिव के 12 ज्योतिर्लिंग
1. सोमनाथ
यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है।
2. श्री शैल मल्लिकार्जुन
मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थातिप है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।
3. महाकाल
उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।
4. ओंकारेश्वर ममलेश्वर
मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।
5. नागेश्वर
गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।
6. बैजनाथ
बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।
7. भीमशंकर
महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग।
8. त्र्यंम्बकेश्वर
नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।
9. घुमेश्वर
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग।
10. केदारनाथ
हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है।
11. विश्वनाथ
बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।
12. रामेश्वरम्
त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।
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महामृत्युञ्जय
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
इसे मृत्यु पर विजय पाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है.
इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं.
इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है;
शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र,
और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है
क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद
पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई "जीवन बहाल" करने वाली विद्या
का एक घटक है.
ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है.
चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले
अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है.
महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ
त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति,फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में)वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है, और स्वास्थ्य प्रदान करता है,एक अच्छा माली
उर्वारुकम= ककड़ी (कर्मकारक)
इव= जैसे, इस तरह
बंधना= तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द सेअधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्युर = मृत्यु से
मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा= न
अमृतात= अमरता, मोक्ष
मंत्र
इसमें शिव की स्तुति की गयी है। शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' माना जाता है। मंत्र इस प्रकार है -
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
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*****भगवान् शिव के द्वारा सृष्टि*****
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जिस समय सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था; न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा, अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों का भी कहीं पता नहीं था; न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायुकी भी सत्ता नहीं थी—उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव की ही सत्ता विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत-महात्म आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
एक बार भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिवने अपनी परा शक्ति अम्बिकाको प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसके कंधेपर सृष्टि-संचालन का महान् भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भागपर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्वगुणकी प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था। रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथों में शंक, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान् को प्रणाम करके कहा कि ‘भगवन् ! मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान् शंकरने मुस्कराकर कहा—‘वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो।’
भगवान् शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल-धाराएं निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जलमें शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ।
तदनन्तर सोये हुए नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर डाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमलके नाल में भ्रमण करते रहे, किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिका का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तपका आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सम्मुख भगवान् विष्णु प्रकट हुए। परमेश्वर शिवकी लीला से उस समय वहाँ विष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि-अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान् विष्णु ने प्रार्थना किया कि ‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये।’
भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले —‘सुरश्रेष्ठगण मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन् ! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु ! तू इस चराचर जगत का पालन करो,। तदनन्तर परमेश्वर शिवने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।
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शिव हैं सृजन के देवता
और काल के अधिपति
शिव, शंकर, भोलेनाथ या महाकाल, कई नामों से एक ही रूप में पूजे जाने
वाले एकमात्र देवता है शिव। शिव प्रकृति के देवता हैं, इसलिए आम
आदमी के सबसे ज्यादा नजदीक और सबसे ज्यादा पूजित हैं। शिव और
उनकास्वरूप हमेशा आश्चर्य का विषय रहा है। शिव एकमात्र भगवान
हैं जो सृजन के देवता हैं और संहार के भी। शिव को काल
का अधिपति भी माना गया है इसलिए उन्हें महाकाल भी कहा गया है। वे
शमशान वासी भी इसीलिए माने जाते हैं क्योंकि सृष्टि के संहार
की कमान भी उनके हाथों में है।
आइए, समझते हैं शिव के रूप और उनके परिवार को। कहते हैं शिव
प्राण हैं, क्योंकि जब प्राण नहीं रहते तो शरीर शव हो जाता है, जब
प्राण हों तो ही शिव हैं। शिव इस सृष्टि में प्रकृति के भगवान हैं
इसीलिए उनका पूरा स्वरूप प्रकृति और प्रेम से परिपूर्ण है। शिव
का निवास पर्वत और आसन शिला (पत्थर) का है। वे आभूषण के रूप
में सर्प और बिच्छुओं को धारण करते हैं और वस्त्र के रूप में वाघम्बर
(शेर की खाल)। उनका भोजन भी कंद-मूल है। वाहन नंदी यानी बैल।
शिव हमें प्रकृति के नजदीक और खुद के स्वभाव में जीने की शिक्षा देते
हैं। इस सृष्टि के तीन प्रमुख देवता माने गए हैं ब्रह्मा, विष्णु और
शिव, ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु उसका पालन और
संचालन तथा शिव संहार करते हैं।
शिव की पत्नी पार्वती हैं, पार्वती शक्ति का प्रतीक हैं, शरीर में प्राण
के साथ शक्ति का संचार भी आवश्यक है। शक्ति कर्म के लिए प्रेरित
करती है। यह शक्ति शारीरिक के साथ आत्मिक बल की भी प्रतीक है।
आत्मिक बल, अच्छे कर्म और प्राण शक्ति हो तो इससे उत्पन्न
होती है बुद्धि और वैराग्य, बुद्धि के देवता हैं गणेश जो शिव के पुत्र हैं,
शिव के दूसरे पुत्र हैं कार्तिकेय (स्कंध)। कार्तिकेय वैराग्य के प्रतीक
हैं। इस तरह शिव जो सृष्टि में सृजन का संदेश देते हैं और संहार का भी,
वे हमें अपने परिवार के जरिए श्रेष्ठ जीवन का उपदेश देते हैं।
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कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि ॥
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शिव भोले है इसी लिए दंण्ड कमंडल वाले है शिव सत्य है , कल्याणकारी है ,और सुन्दर है , जल्दी मान जाते है ,जल्दी सबकी इच्छा पूरी कर देते है ,पर खुद भगवान् होकर भी ,एक छोटा सा घर भी नहीं बनाये, ना आभूषणों से सज्जित है ,बस मृगछाला लपेट कैलाश में धुनी रमाते रहे , शायद इसी के कारण उन्हें भोले ,कहते है , और सभी अपना काम उनसे सहज ही करवा लेते है
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?
.
शिव कारण हैं;
शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं;
शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं;
शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं;
शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं;
शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं;
शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं;
शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं;
शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं।
शक्ति सागर की लहर हैं।
.
आइये हम समझने की कोशिश करते हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध....."
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*******ईश्वर *******
शब्द से सभी परिचित हैं परंतु बहुत कम लोग ही ईश्वर को समझ पाते
हैं। ईश्वर के बारे में लोगों की आम घारणा है कि पूजा अर्चना करने एवं मंदिर
आदि में जाकर प्रसाद एवं चढ़ावा चढ़ाने से ईश्वर उन पर प्रसन्न
हो जाएगा एवं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देगा या उन्हें कोई जादू
की छड़ी पकड़ा देगा जिससे वे मलामाल हो जाऐंगे, या उनके सब पाप नष्ट
हो जाएंगे, परंतु यह बिलकुल ही मूरर्वतापूर्ण एवं अंध विश्वास से ग्रस्त
धारणा है। ईश्वर न तो कभी किसी से कुछ लेता है न ही कभी किसी को कुछ
देता है, लेना देना पूर्णतः मनुष्य के कर्म के उपर निर्र्भर करता है। कर्म से
ही मनुष्य जीवन में सुरव दुरव का अनुभव करता है, कर्म से ही उसके
भविष्य का निर्माण होता है, कर्म से ही उसके वंशानुगत जीन्स का निर्माण
होता है एवं कर्म से ही उसके जन्मों का निर्धारण होता है, इसलिए
कहा जाता है कि मनुष्य स्वयं अपने भविष्य का निर्माता होता है।
कहा जाता है कि अमुक स्थान या अमुक व्यक्ति के पास जाने से मनुष्य
की सभी मनोकामनाऐं पूर्ण हो जातीं हैं, यह सिर्फ मनुष्य की श्रद्घा एवं
विश्वास पर निर्भर करता है। जब कोई रोगी किसी डाक्टर के पास इलाज
कराने जाता है और यदि डाक्टर को उसका रोग समझ में नहीं आता तब
डाक्टर उसे ऐसी दवा दे देता है जिसमें कोई औषधीय गुण नहीं होता परंतु इस
दवा को रवाकर भी मरीज ठीक हो जाता है, अतः शक्ति मनुष्य के
श्रद्घा एवं विश्वास में होती है न कि किसी मूर्ति मंदिर या व्यक्ति विशेष
में, मंदिरों को आध्यात्म की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है जहां हम
श्रृद्घा एवं विश्वास सीरवते हैं।
वैज्ञानिक आधार पर ईश्वर को समझने के लिए हम एक ठोस धातु
का टुकड़ा लेते हैं इसे हम जिस स्थान पर ररव देते हैं यह उसी स्थान पर
ररवा रहता है जब तक कि इसे उस स्थान से किसी के द्वारा हटाया न जाए
या इसमें जब तक कोई वल न लगाया जाए, अर्थात यह स्वयं कुछ
भी नहीं कर सकता। अब हम इस टुकड़े को इतना गर्म करें कि यह द्रव रूप में
बदल जाए अब यह द्रव रूप धरातल के अनुरूप अपना आकार बदलने में सक्षम
हो जाता है अर्थात इसे अब जिस पात्र में ररवा जाए यह उसी के अनुरूप
अपना आकर बना लेता है। अब हम इस द्रव रूप को इतना गर्म करें कि यह
वाष्प रूप में बदल जाए यह वाष्प रूप सारे वायुमंडल में फैलने में सक्षम
हो जाता है एवं वायु की गति प्राप्त कर लेता है। इस वाष्प रूप को और गर्म
करने पर इसके परमाणु प्रकाशित हो जाते हैं अब यह प्रकाश, उर्जा एवं
तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है।(यहां यह ध्यान ररवने योग्य है कि जलने
से परमाणु कभी नष्ट नहीं होता न ही इसकी संरचना बदलती है यह प्रकाश,
उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है)। अब यह सारे ब्रह्मांड में
फैलने में सक्षम हो जाता है एवं प्रकाश की गति अर्थात तीन लारव
किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति प्राप्त कर लेता है तथा कोई भी क्रिया करने
में सक्षम हो जाता है। यह उर्जारूप अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर तरंग रूप में
बदल जाता है और अंत में यह तरंग रूप निराकार रूप में बदलता रहता है इस
निराकार रूप को हम ईश्वर कहते हैं। धार्मिक ग्रथों में इसे ईश्वर का तत्व
रूप कहा गया है, गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है
कि जो व्यक्ति मेरे तत्व रूप को जान लेता है वही मुझ तक पहुंच पाता है।
ब्रह्मांड में जो कुछ भी है इस सबको हम द्रव्य कहते हैं, इस द्रव्य
को दो भागों में विभक्त किया गया है। 1. जड़ 2. चेतन ।
चेतन स्वतःक्रिया करने में सक्षम होते हैं जबकि जड़ स्वतः क्रिया नहीं कर
सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। जड़ का सबसे
छोटा कण परमाणु होता है, एवं चेतन द्रव्य का सबसे छोटा रूप
आत्मा होती हैं। जड .परमाणु के भीतर ही चेतन द्रव्य स्थित होता है एवं
अलग ने स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है।
जड़ द्रव्य के तीन रूप होते हैं। 1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप।
चेतन द्रव्य के दो रूप होते हैं। 1. उर्जा 2. तरंग
इस तरह दोनों को मिलाकर द्रव्य के पांच रूप होते हैं। 1. ठोस 2. द्रव 3.
वायु रूप 4. उर्जा 5. तरंग।
विज्ञान भी द्रव्य के इस पांच रूपों को प्रमाणित कर चुका है। धार्मिक
ग्रथों में इन्हें पंच तत्व क्रमशः 1. पृथ्वी 2. जल, 3 .वायु, 4. अग्नि एवं
5. आकाश कहते है।
ईश्वर को स्वतंत्र एवं निरपेक्ष
माना गया है क्योंकि सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है एवं इसी में लीन
हो जाता है। गुणों को धारण करने वाली प्रत्येक चीज साकार एवं नश्वर
होती है, चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो सिर्फ ईश्वर ही निराकार
अमर एवं अजन्मा है। ईश्वर ने संसार की रचना कुछ इस प्रकार की है
कि यहां क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है एवं प्रतिक्रिया ने
परिणाम प्राप्त होते रहते हैं इसमें ईश्वर को कुछ भी नहीं करना होता वह
तो हर जगह द्रष्टा एवं आधार के रूप में उपस्थित रहता है। चूंकि हम सूक्ष्म
क्रियाओं को देरव नहीं सकते परंतु हम अपने जीवन चक्र से इसे समझ सकते
हैं।
प्राणी (सजीव) जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं पहला प्राणी जगत
दूसरा वनस्पिति जगत तीसरा कीट जगत। इसमें वनस्पिति जगत जो त्याग
करता है ( फल फूल औषधि आक्सीजन आदि के रूप में) उससे प्राणी जगत
एवं कीट जगत का पोषण होता है, प्राणी जगत जो त्याग करता है (मल मूत्र
कार्वन डाइआक्साइड आदि) इससे कीट जगत एवं वनस्पिति जगत का पोषण
होता है एवं कीट जगत रवाद आदि के रूप में जो त्याग करता है उससे
वनस्पिति जगत एवं प्राणी जगत का पोषण होता है। अतः तीनों आपस में एक
दूसरे का अस्तित्व बनाए ररवते हैं एवं कोई भी चीज कचरा या प्रदूषण के रूप
में शेष नहीं रहती।
हम ईश्वर को गणित की संरव्या शून्य से भी समझ सकते हैं, गणित में शून्य
एक ऐसी संरव्या है जिसके बिना गणित की कल्पना करना संभव नहीं इसमें
अकेले शून्य का कोई महत्व नहीं होता परंतु यह किसी संरव्या के साथ
कितनी भी बड़ी संरव्या का निर्माण कर सकता है। शून्य में चाहे कितने
भी शून्य का जोड़ घटाना गुणा भाग कुछ भी किया जाए परिणाम हमेशा शून्य
ही आता है इसी प्रकार एक निराकार (ईश्वर) में चाहे कितने भी निराकार मिल
जाएं यह हमेशा निराकार ही रहेगा। इसी आघार पर सारा ब्रह्मांड निराकार
अर्थात शून्य में विलीन हो जाता है एवं सिर्फ एक ईश्वर शेष बच जाता ह
ईश्वर के मूलरूप को हमारी भौतिक आरवों से
नहीं देरवा जा सकता इसे सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है।
ईसावास्योपनिषद् के प्रथम श्लोक में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार
किया गया है। पूर्णमदः पूर्णममिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिश्यते॥
अर्थ :-ईश्वर सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है, यह जगत भी उस
ईश्वर से पूर्ण ही है क्योंकि यह पूर्ण जगत उस पूर्ण पुरुसोत्तम से
ही उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार ईश्वर की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर
भी वह ( ईश्वर) पूर्ण है, उस (ईश्वर) पूर्ण में से इस (जगत) पूर्ण
को निकाल देने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण ही बच जाता है।
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गोकुल में भगवान शिव
एक बार भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई. भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर अलख जगाते हुए गोकुल में आए. शिव जी द्वार पर आकर खड़े हो गए. तभी नन्द भवन से एक दासी शिवजी के पास आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें. और लाला को आशीर्वाद दे दें. शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है, मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है. दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया.
"अरी मईया! देखा दे मुख लाल का,
तेरे पलने में, पालनहार देखा दे मुख लाल का "
यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा. शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है. वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है.यशोदाजी बोलीं- कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें. शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा. मै यही समाधी लगा लूगा जब इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं. और माता वहां ले नहीं जाएंगी,और वे दर्शन न मिलने पर समाधी लगा लेगे क्योकि कन्हैया जानते थे कि भोले बाबा कि समाधी लग गई तो हजारों वर्ष के बाद ही खुलेगी तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया. जब कन्हैया किसी भी प्रकार चुप नहीं हुए तो माता को लगा कि सचमुच वे योगी परम तपस्वी है, यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई. शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई. वे अपनी गोद में लेना चाहते थे. शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा. यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया. जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा.
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शिव हैं सृजन के देवता
और काल के अधिपति
शिव, शंकर, भोलेनाथ या महाकाल, कई नामों से एक ही रूप में पूजे जाने
वाले एकमात्र देवता है शिव। शिव प्रकृति के देवता हैं, इसलिए आम
आदमी के सबसे ज्यादा नजदीक और सबसे ज्यादा पूजित हैं। शिव और
उनकास्वरूप हमेशा आश्चर्य का विषय रहा है। शिव एकमात्र भगवान
हैं जो सृजन के देवता हैं और संहार के भी। शिव को काल
का अधिपति भी माना गया है इसलिए उन्हें महाकाल भी कहा गया है। वे
शमशान वासी भी इसीलिए माने जाते हैं क्योंकि सृष्टि के संहार
की कमान भी उनके हाथों में है।
आइए, समझते हैं शिव के रूप और उनके परिवार को। कहते हैं शिव
प्राण हैं, क्योंकि जब प्राण नहीं रहते तो शरीर शव हो जाता है, जब
प्राण हों तो ही शिव हैं। शिव इस सृष्टि में प्रकृति के भगवान हैं
इसीलिए उनका पूरा स्वरूप प्रकृति और प्रेम से परिपूर्ण है। शिव
का निवास पर्वत और आसन शिला (पत्थर) का है। वे आभूषण के रूप
में सर्प और बिच्छुओं को धारण करते हैं और वस्त्र के रूप में वाघम्बर
(शेर की खाल)। उनका भोजन भी कंद-मूल है। वाहन नंदी यानी बैल।
शिव हमें प्रकृति के नजदीक और खुद के स्वभाव में जीने की शिक्षा देते
हैं। इस सृष्टि के तीन प्रमुख देवता माने गए हैं ब्रह्मा, विष्णु और
शिव, ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु उसका पालन और
संचालन तथा शिव संहार करते हैं।
शिव की पत्नी पार्वती हैं, पार्वती शक्ति का प्रतीक हैं, शरीर में प्राण
के साथ शक्ति का संचार भी आवश्यक है। शक्ति कर्म के लिए प्रेरित
करती है। यह शक्ति शारीरिक के साथ आत्मिक बल की भी प्रतीक है।
आत्मिक बल, अच्छे कर्म और प्राण शक्ति हो तो इससे उत्पन्न
होती है बुद्धि और वैराग्य, बुद्धि के देवता हैं गणेश जो शिव के पुत्र हैं,
शिव के दूसरे पुत्र हैं कार्तिकेय (स्कंध)। कार्तिकेय वैराग्य के प्रतीक
हैं। इस तरह शिव जो सृष्टि में सृजन का संदेश देते हैं और संहार का भी,
वे हमें अपने परिवार के जरिए श्रेष्ठ जीवन का उपदेश देते हैं।
शिव महिमा
हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।
पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।
भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।
इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।
इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।
महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।
इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।
भोले नाथ का विराट स्वरूप
जगत पिता के नाम से हम भगवान शिव को पुकारते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापी व लोग कल्याण का प्रतीक माना जाता है जो पूर्ण ब्रह्म है। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ऐसा मानते हैं कि शिव शब्द की उत्पत्ति वंश कांतौ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सबको चाहने वाला और जिसे सभी चाहते है। शिव शब्द का ध्यान मात्र ही सबको अखंड, आनंद, परम मंगल, परम कल्याण देता है।
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर, घुवमेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।
जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।
1चंद्र- चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।
त्रिनेत्र- शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।
सर्प का हार- सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है।
त्रिशूल- शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
1. डमरू- शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।
मुंडमाला- शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।
2. छाल- शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।
3. भस्म- शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।
वृषभ- शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है।
भगवान शिव
हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।
वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।
शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।
आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।
आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।
वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।
भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।
शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।
भगवान शिव के १०८ नाम
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रु
अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर
रुद्राक्ष
रुद्राक्ष के उद्भव के विषय में शिवपुराण में एक कहानी है। इसके अनुसार, हजारों वर्ष तक तप करने के बाद भगवान शिव ने जब आंखें खोलीं, तो उनकी आंखों से एक-एक करके कई बूंदेंटपक पडीं। यही बूंदेंबाद में रुद्राक्ष का वृक्ष बन गई। पुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि रुद्र का जन्म ब्रह्मा की आंखों से हुआ था। माना जाता है कि शिव जब क्रोधित होते हैं, तो वे रुद्र कहलाते हैं।
रूप की दृष्टि से अनेक प्रकार के रुद्राक्ष पाए जाते हैं, जैसे-एकमुखी से चतुर्दश तक। एकमुखीतथा पंचमुखीरुद्राक्ष को साक्षात शिव का स्वरूप माना जाता है। इसे धारण करने से हमें भक्ति तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि द्वि-मुखी रुद्राक्ष धारण करने से गोवध का पाप नष्ट हो जाता है। त्रि-मुखी रुद्राक्ष धन तथा विद्या प्रदान करते हैं। चतुर्मुखी रुद्राक्ष को साक्षात ब्रह्मा का स्वरूप माना जाता हैं। षष्ठमुखीरुद्राक्ष दाहिनी बांह में धारण करना चाहिए। वह स्कंद का प्रतीक है।
सप्तमुखीरुद्राक्ष को धारण करने से निर्धन भी धन-धान्य से पूर्ण हो जाते हैं। अष्टमुखीबटुकभैरव का प्रतीक है। नवमुखीदुर्गा का प्रतीक है, दसमुखीजनार्दन का। एकादशमुखीरुद्रस्वरूप,द्वादशमुखीसूर्यस्वरूप,त्रयोदशमुखीविश्वदेवका प्रतीक है। चतुर्दशमुखीरुद्राक्ष को मस्तक पर धारण करना चाहिए, क्योंकि यह साक्षात् आनंददाताशिव का प्रतीक माना जाता है।
भगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है-
रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:।
शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता तथा श्रीमद्देवी भागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रु बिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।
रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।
जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुन्जाफालके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।
रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष। रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।
शास्त्रों में एक से चौदहमुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है।
एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखी रुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महापात कभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।
दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।
तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।
चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।
पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत: पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं।
इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।
सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।
आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।
नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।
दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।
ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।
बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।
तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।
चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।
रुद्राक्ष
रुद्राक्ष एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाताहै। ऐसा माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान की आँखों के जलबिंदु सेहुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। रुद्राक्ष शिव कावरदान है, जो संसार के भौतिक दु:खों को दूर करने के लिए प्रभु शंकर ने प्रकटकिया है।
रुद्राक्ष के नाम और उनका स्वरूप
एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव, द्विमुखी श्री गौरी-शंकर, त्रिमुखी तेजोमयअग्नि, चतुर्थमुखी श्री पंचदेव, षष्ठमुखी भगवान कार्तिकेय, सप्तमुखी प्रभुअनंत, अष्टमुखी भगवान श्री गेणश, नवममुखी भगवती देवी दुर्गा, दसमुखीश्री हरि विष्णु, तेरहमुखी श्री इंद्र तथा चौदहमुखी स्वयं हनुमानजी का रूपमाना जाता है। इसके अलावा श्री गणेश व गौरी-शंकर नाम के रुद्राक्ष भी होतेहैं।
एकमुखी रुद्राक्ष
ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जोसभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है।
द्विमुखी रुद्राक्ष
सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला तथा दांपत्य जीवन में सुख,शांति व तेज प्रदान करता है।
त्रिमुखी रुद्राक्ष
ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है।
चतुर्थमुखी रुद्राक्ष
धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है।
पंचमुखी रुद्राक्ष
सुख प्रदान करने वाला।
षष्ठमुखी रुद्राक्ष
पापों से मुक्ति एवं संतान देने वाला होता होता है।
सप्तमुखी रुद्राक्ष
दरिद्रता को दूर करने वाला होता है।
अष्टमुखी रुद्राक्ष
आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
नवममुखी रुद्राक्ष
मृत्यु के डर से मुक्त करने वाला होता है।
दसमुखी रुद्राक्ष
शांति एवं सौंदर्य प्रदान करने वाला होता है।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष
विजय दिलाने वाला, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करने वाला होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष
धन प्राप्ति कराता है।
तरेह मुखी रुद्राक्ष
शुभ व लाभ प्रदान कराने वाला होता है।
चौदह मुखी रुद्राक्ष
संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाला होता है।
रुद्राक्ष को धारण करने की सरल विधि
रुद्राक्ष को धारण करने की सरल विधि यदि किसी कारणवश रुद्राक्ष के विशेषरुद्राक्ष मंत्रों से धारण न कर सके तो इस सरल विधि का प्रयोग करके धारणकर लें। रुद्राक्ष के मनकों को शुद्ध लाल धागे में माला तैयार करने के बादपंचामृत (गंगाजल मिश्रित रूप से) और पंचगव्य को मिलाकर स्नान करवानाचाहिए और प्रतिष्ठा के समय ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर मंत्र को पढ़नाचाहिए। उसके पश्चात पुनः गंगाजल में शुद्ध करके निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुएचंदन, बिल्वपत्र, लालपुष्प, धूप, दीप द्वारा पूजन करके अभिमंत्रित करे ॐतत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात || इससेअभिमंत्रित करके धारण करना चाहिए। शिवपूजन, मंत्र, जप, उपासना आरंभकरने से पूर्व ऊपर लिखी विधि के अनुसार रुद्राक्ष माला को धारण करने एवंएक अन्य रुद्राक्ष की माला का पूजन करके जप करना चाहिए। इसकेअतिरिक्त नीचे लिखी सावधानियों को भी ध्यान करना चाहिए।
1-जो रुद्राक्ष कीड़ो ने दूषित किया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने नहो, जो वरणयुक्त हो तथा पूरा-पूरा गोल न हो, इन पांच प्रकार के रुद्राक्षों कोधारण नहीं करना चाहिए।
2-जो रुद्राक्ष छिद्र करते हुए फट गये हो और जो शुद्ध रुद्राक्ष जैसे न हों] उन्हेंधारण न करें।
3-धारण करने से पहले परीक्षण कर लें कि रुद्राक्ष असली है या नकली।नकली रुद्राक्ष पानी में तैरने लगेगा और असली रुद्राक्ष पानी में डूब जाएगा।
4-जो रुद्राक्ष गोल, चिकना, मोटा, कांटेदार हो, उसे ही खरीदना चाहिए।
5-एकमुखी रुद्राक्ष को किसी पीतल के बर्तन में रख दें। उसके ऊपर से 108बिल्वपत्र लेकर चंदन से ओम नमः शिवाय मंत्र लिखकर सबसे नीचे रुद्राक्षरखकर रात्रि में रख दें। प्रातः रुद्राक्ष बिल्वपत्र के ऊपर विराजित होगा तो वहशुद्ध रुद्राक्ष होगा।
6-एकमुखी रुद्राक्ष को ध्यानपूर्वक देखने पर त्रिशूल या नेत्र का निशान कहीं नकहीं अवश्य ही दिखाई देता है।
7-रुद्राक्ष के दानों को तेज धूप में छः घंटे तक रखने से अगर रुद्राक्ष चटकें (टूटेनहीं) तो असली माने जाते हैं।
8-रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, लिसोडा औरविड्वराह (ग्राम्यसूयकर) इन पदार्थो का परित्याग करना चाहिए।
9-जप आदि कार्यो में छोटा रुद्राक्ष ही विशेष फलदायक होता है और बड़ा रुद्राक्षरोगों पर विशेष फलदायी माना जाता है ।
10-रुद्राक्ष शिवलिंग से अथवा शिव प्रतिमा से स्पर्श कराकर धारण करनाचाहिए।
11-रुद्राक्ष धारण करने के उपरांत सुबह-सायं भगवान शंकर का पूजन औरओम नमः शिवाय मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए।
गंगाधर
राजा भगीरथ ने जनकल्याण के लिए पतितपावन गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने राजा भगीरथ को यह वचन दिया कि सर्वकल्याणकारी गंगा पृथ्वी पर आएगी। मगर समस्या यह थी कि गंगाजी को पृथ्वी पर संभालेगा कौन?
समस्या का समाधान करते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है अतः तुम्हें भगवान रुद्र की तपस्या करना चाहिए। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर भगीरथ ने प्रभु भोलेनाथ की कठोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगीरथ से कहा- 'नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं गिरिराजकुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूँगा।'
भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं। उस समय गंगाजी के मन में भगवान शंकर को पराजित करने की प्रबल इच्छा थी। गंगाजी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लेकर पाताल में चली जाऊँगी।
गंगाजी के इस अहंकार को जान शिवजी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगाजी को अदृश्य करने का विचार किया। पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गईं। लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं। जब भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गईं, तब उन्होंने पुनः भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया। उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोड़ा। वहाँ से गंगाजी सात धाराएँ हो गईं।
इस प्रकार ह्लादिनी, पावनी और नलिनी नामक की धाराएँ पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु- ये तीन धाराएँ पश्चिम की ओर चली गईं। सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली और पृथ्वी पर आई। इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं।
औढरदानी शिव
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा शांति के आगार हैं। वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। उनका यह दिव्यज्ञान स्वतः सम्भूत है।
ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे सबके मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं।
भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म-विभूषण, श्मशानवासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वतीजी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं। आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है।
संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है।
हरिहर रूप
एक बार सभी देवता मिलकर संपूर्ण जगत के अशांत होने का कारण जानने के लिए विष्णुजी के पास गए। भगवान विष्णु ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर तो भोलेनाथ ही दे सकते हैं। अब सभी देवता विष्णुजी को लेकर शिवजी की खोजने मंदर पर्वत गए। वहाँ शंकरजी के होते हुए भी देवताओं को उनके दर्शन नहीं हो रहे थे।
पार्वतीजी का गर्भ नष्ट करने पर देवताओं को महापाप लगा था और इस कारण ही ऐसा हो रहा था। तब विष्णुजी ने कहा कि सारे देवता शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तत्पकृच्छ्र व्रत करें। इसकी विधि भी विष्णुजी ने बताई। सारे देवताओं ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप सारे देवता पापमुक्त हो गए। पुनः देवताओं को शंकरजी के दर्शन करने की इच्छा जागी। देवताओं की इच्छा जान प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने हृदयकमल में विश्राम करने वाले भगवान शंकर के लिंग के दर्शन करा दिए।
अब सभी देवता यह विचार करने लगे कि सत्वगुणी विष्णु और तमोगुणी शंकर के मध्य यह एकता किस प्रकार हुई। देवताओं का विचार जान विष्णुजी ने उन्हें अपने हरिहरात्मक रूप का दर्शन कराया। देवताओं ने एक ही शरीर में भगवान विष्णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर उनकी स्तुति की।
पंचमुखी शिव
मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजपावर्णैर्मुखैः पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरंजितमीशमिंदुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम् ।
शूलं टंककृपाणवज्रदहनान्नागेन्द्रघंटांकुशान् पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्॥
'जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्ज्वल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पाँच मुख हैं।
जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घंटा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूँ।'
महामृत्युंजय
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम् ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे॥
भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहे हैं। अपने दो हाथों में क्रमशः मृगमुद्रा और रुद्राक्ष की माला धारण किए हैं। दो हाथों में अमृत-कलश लिए हैं। दो अन्य हाथों से अमृत कलश को ढँके हैं।
इस प्रकार आठ हाथों से युक्त, कैलास पर्वत पर स्थित, स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र का मुकुट धारण किए त्रिनेत्र, मृत्युंजय महादेव का मैं ध्यान करता हूँ।
शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।
शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।
शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है। वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।
कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं। अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।
इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के
रूप इसीलिए दिखाया गया है।
भगवान् शिव के द्वारा सृष्टि
जिस समय सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था; न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा, अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों का भी कहीं पता नहीं था; न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायुकी भी सत्ता नहीं थी—उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव की ही सत्ता विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत-महात्म आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
एक बार भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिवने अपनी परा शक्ति अम्बिकाको प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसके कंधेपर सृष्टि-संचालन का महान् भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भागपर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्वगुणकी प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था। रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथों में शंक, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान् को प्रणाम करके कहा कि ‘भगवन् ! मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान् शंकरने मुस्कराकर कहा—‘वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो।’
भगवान् शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल-धाराएं निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जलमें शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ।
तदनन्तर सोये हुए नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर डाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमलके नाल में भ्रमण करते रहे, किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिका का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तपका आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सम्मुख भगवान् विष्णु प्रकट हुए। परमेश्वर शिवकी लीला से उस समय वहाँ विष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि-अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान् विष्णु ने प्रार्थना किया कि ‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये।’
भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले —‘सुरश्रेष्ठगण मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन् ! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु ! तू इस चराचर जगत का पालन करो,। तदनन्तर परमेश्वर शिवने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।
अर्धनारीश्वर शिव
सृष्टि के प्रारम्भ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गयी मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई—‘ब्रह्मन् ! अब मैथुनी सृष्टि करो।’
आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदयमें प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान करते रहे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान् उमा –महेश्वर नमे उन्हें अर्धनारीश्वर-रूप में दर्शन दिया। देवादिदेव भगवान् शिव के दिव्य स्वरूप को देखकर ब्रह्माजी अभिभूत हो उठे और उन्होंने दण्डकी भाँति भूमि पर लेटकर उस अलौकिक विग्रह को प्रणाम किया।
महेश्वर शिवने कहा—‘पुत्र ब्रह्मा ! मुझे तुम्हारा मनोरथ ज्ञात हो गया है। तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है; उससे मैं परम प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’ ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमादेवी को अलग कर दिया। तदनन्तर परमेश्वर शिव के अर्धांग से अलग हुई उन पराशक्ति को साष्टांग प्रणाम करके ब्रह्माजी इस प्रकार कहने लगे—
‘शिवे ! सृष्टि के प्रारम्भ में आपके पति देवाधिदेव ने शम्भुने मेरी रचना की थी। भगवति ! उन्हीं के आदेश से मैने देवता आदि समस्त प्रजाओं का मानसिक सृष्टि की। परंतु अनेक प्रयासों के बाद भी उनकी वृद्धि करने में मैं असफल रहा हूँ। अतः अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाको उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूँ, किंतु अभीतक नारी-कुलका प्राकट्य नहीं हुआ है और नारी-कुलकी सृष्टि करना मेरी शक्ति से बाहर है। देवि ! आप सम्पूर्ण सृष्टि शक्तियों की उद्गमस्थली हैं। इसलिये हे मातेश्वरी, आप मुझे नारी-कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें। मैं आपसे एक और विनती करता हूँ कि चराचर जगत् की वृद्धि के लिये आप मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेने की कृपा करें।’
ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर शिवाने ‘तथास्तु’—ऐसा ही होगा—कहा और ब्रह्माको उन्होंने नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान की। इसके लिए उन्होंने अपनी भौहों के मध्यभाग से अपने ही समान कान्तमती एक शक्ति प्रकट की। उसे देखकर देवदेवेश्वर शिवने हँसते हुए कहा—‘देवि ! ब्रह्माने तपस्या द्वारा तुम्हारी आराधना की है। अब तुम उनपर प्रसन्न हो जाओ और उनका मनोरथ पूर्ण करो।’ परमेश्वर शिवकी इस आज्ञा को शिरोधार्य करके वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गयी। इस प्रकार ब्रह्माजी को अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। फिर महादेवजी भी अन्तर्धान हो गये तभी से इस लोक में मैथुनी सृष्टि चल पड़ी। सफल मनोरथ होकर ब्रह्माजी भी परमेश्वर शिव का स्मरण करते हुए निर्विघ्नरूपसे सृष्टि-विस्तार करने लगे।
इस प्रकार शिव और शक्ति एक-दूसरे से अभिन्न तथा सृष्टि के आदिकारण हैं। जैसे पुष्प में गन्ध, चन्द्रमें चन्द्रिका, सूर्य में प्रभा नित्य और स्वभाव-सिद्ध है, उसी प्रकार शिवमें शक्ति भी स्वभाव-सिद्ध है। शिव में इकार ही शक्ति है। शिव कूटस्थ तत्त्व है और शक्ति परिणामी तत्त्व। शिव अजन्मा आत्मा है और शक्ति जगत् में नाम-रूप के द्वारा व्यक्त सत्ता। यही अर्धनारीश्वर शिवका रहस्य है।
सोमवार व्रत कथा
श्रावण सोमवार व्रत कथा
शिव शक्ति की सोमवार व्रत कथा
श्रावण सोमवार की कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था।
दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा।
पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था।
उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।'
भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।'
इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।'
पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।'
उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई।
भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया।
व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा।
जब अमर 12 वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे।
लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी।
वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा।
वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।'
जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे।
मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।'
भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।'
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा।
राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
संबंधित जानकारी
– Sri Shiva Thandav Stotram
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलॆ
गलॆवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनॊतु नः शिवः शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
-विलॊलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावकॆ
किशॊरचन्द्रशॆखरॆ रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
धराधरॆन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमॊदमानमानसॆ ।
कृपाकटाक्षधॊरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरॆ मनॊ विनॊदमॆतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखॆ ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमॆदुरॆ
मनॊ विनॊदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्रलॊचनप्रभृत्यशॆषलॆखशॆखर
प्रसूनधूलिधॊरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकॊरबन्धुशॆखरः ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
-निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलॆखया विराजमानशॆखरं
महाकपालिसम्पदॆशिरॊजटालमस्तु नः ॥ 6 ॥
करालफालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायकॆ ।
धराधरॆन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलॊचनॆ मतिर्मम ॥ 7 ॥
नवीनमॆघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबन्धुकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनॊतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
-विलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजॆ ॥ 9 ॥
अगर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजॆ ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
-द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालफालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयॊर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजॊर्-
-गरिष्ठरत्नलॊष्ठयॊः सुहृद्विपक्षपक्षयॊः ।
तृष्णारविन्दचक्षुषॊः प्रजामहीमहॆन्द्रयॊः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजॆ ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकॊटरॆ वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलॊललॊचनॊ ललाटफाललग्नकः
शिवॆति मन्त्रमुच्चरन् सदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमॆवमुक्तमुत्तमॊत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरॊ विशुद्धिमॆतिसन्ततम् ।
हरॆ गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमॊहनं हि दॆहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमयॆ दशवक्त्रगीतं यः
शम्भुपूजनपरं पठति प्रदॊषॆ ।
तस्य स्थिरां रथगजॆन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥ 15 ॥
सोलह सोमवार व्रत कथा
एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक मेंअमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था।शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आजचौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जीने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की औरअन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी कोकोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।
कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारणपूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलहसोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी नेउत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें,संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्टी की तीन मूर्तिबनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवानशंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलहसोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकरभोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजीतुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।
पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बादशिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होनेका कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूपअप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती सेपूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रतबतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला।उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया।फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था किहथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्मणभी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्मणकुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे।एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससेराजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्मण ने सोलह सोमवारका व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया औरसर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्यसे मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया।पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसेराज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा केदिवंगत होने पर ब्राह्मण कुमार को गद्दी मिली। फिर वह इस व्रत को करतारहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा,परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जोआकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश करदेगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।
रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढि या नेइसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उडगई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तनचटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई।सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी करआराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर कीयह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईंजी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले-बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी,परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जीने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया - मैंनेपति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जीने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो।रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई औरदूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजाको रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरीपत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी कीकृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी।राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे।मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानीके साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जोमनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथासुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्तहोता है।
॥ बोलो शिवशंकर भोले नाथ की जय ॥
पुराणों के अनुसार शिवजी की आराधना से मनुष्य की सारी मनोकामना पूरी होती है। शिवलिंग पर मात्र जल चढ़ाने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। 12ज्योतिर्लिंगों का दर्शन करने वाला प्राणी सबसे खुशनसीब है।
शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है। इन सभी का दर्शन हर कोई नहीं कर सकता। सिर्फ किस्मत वाले लोग ही देश भर में स्थित इन ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर पाते हैं।
शिव के 12 ज्योतिर्लिंग
1. सोमनाथ
यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है।
2. श्री शैल मल्लिकार्जुन
मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थातिप है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।
3. महाकाल
उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।
4. ओंकारेश्वर ममलेश्वर
मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।
5. नागेश्वर
गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।
6. बैजनाथ
बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।
7. भीमशंकर
महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग।
8. त्र्यंम्बकेश्वर
नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।
9. घुमेश्वर
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग।
10. केदारनाथ
हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है।
11. विश्वनाथ
बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।
12. रामेश्वरम्
त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।
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आदिशक्ति श्री दुर्गा
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पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुप
नवरात्रि पूरे भारत मे बड़े हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है,
यह नौ दिनो तक चलता है। इन नौ दिनो मे हम तीन देवियों
पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा करते है।
पहले तीन दिन पार्वती के तीन स्वरुपों(कुमार, पार्वती और काली),
अगले तीन दिन लक्ष्मी माता के स्वरुपों और आखिरी के तीन
दिन सरस्वती माता के स्वरुपों की पूजा करते है। ये तीनो देवियां
शक्ति, सम्पदा और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है।
आइये जाने इन नौ रुपों के बारे
प्रथम दुर्गा श्री शैलपुत्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं।
पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं।
नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इनके पूजन से मूलाधर चक्र जाग्रत होता है, जिससे साधक को
मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृत शेखराम।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम
नवरात्र पूजन के प्रथम दिन मां शैलपुत्री जी का पूजन होता है. शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया है, माँ शैलपुत्री दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं. नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में
कलश स्थापना:
नवरात्रा का प्रारम्भ आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना के साथ होता है. कलश को हिन्दु विधानों में मंगलमूर्ति गणेश का स्वरूप माना जाता है अत: सबसे पहले कलश की स्थान की जाती है. कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त यानी शुद्ध किया जाता है. भूमि की शुद्धि के लिए गाय के गोबर और गंगा-जल से भूमि को लिपा जाता है.
शैलपुत्री पूजा विधि:
शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है. पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है. दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं .अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता है. कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है.
इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है. इसे जयन्ती (Jayanti) कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”. इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं।
कलश स्थापना के पश्चात देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गा हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें’.
देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है. प्रथम पूजन के दिन“शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती हैं
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द्वितीय दुर्गा श्री ब्रह्मचारिणी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं।
यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने
भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोप तपस्या की थी।
अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं।
नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है।
इनकी उपासना से मनुष्य के तप, त्याग, वैराग्य सदाचार, संयम की वृद्धि होती है
तथा मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता।
नवरात्र के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना का विधान है. देवी दुर्गा का यह दूसरा रूप भक्तों एवं सिद्धों को अमोघ फल देने वाला है. देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है. माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है, तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों का नाश होता है.
ब्रह्मचारिणी – नवरात्री दूसरा दिन
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय है. मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से द्वितीय शक्ति देवी ब्रह्मचारिणी का है. ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करने वाली मां ब्रह्मचारिणी. यह देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं. मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है.
देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता है. देवी ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्म का स्वरूप हैं अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं. इस देवी के कई अन्य नाम हैं जैसे तपश्चारिणी, अपर्णा और उमाइस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में स्थित होता है. इस चक्र में अवस्थित साधक मां ब्रह्मचारिणी जी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है.
ब्रह्मचारिणी पूजा विधि :
देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा का विधान इस प्रकार है, सर्वप्रथम आपने जिन देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी अर्पण करें. प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करें. कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें. इनकी पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करें.
देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें “दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू. देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा”.. इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल (लाल रंग का एक विशेष फूल) व कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें. प्रसाद और आचमन के पश्चात् पान सुपारी भेंट कर प्रदक्षिणा करें और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें. अंत में क्षमा प्रार्थना करें “आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी..
ब्रह्मचारिणी की मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
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तृतीय दुर्गा श्री चंद्रघंटा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है।
इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है,
इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है।
नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है।
इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली
सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
नवरात्री दुर्गा पूजा तीसरे तिथि – माता चंद्रघंटा की पूजा
देवी दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है. दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदि-शक्ति दुर्गा के तृतीय स्वरूप माँ चंद्रघंटा की पूजा होती है. देवी चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं. इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है. माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र में प्रविष्ट होता है यह क्षण साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं.
चंद्रघंटा – नवरात्री की तीसरी दिन :
चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है. चेहरा शांत एवं सौम्य है और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है. माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है. अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान करती हैं. मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं. माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं.
माँ चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं. देवी चंद्रघंटा की मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है इनकी अराधना सद्य: फलदायी है, समस्त भक्त जनों को देवी चंद्रघंटा की वंदना करते हुए कहना चाहिए ” या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता. नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:”.. अर्थात देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है. इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्राप्त होती है.
देवी चंद्रघंटा पूजा विधि :
देवी चन्द्रघंटा की भक्ति से आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है. जो व्यक्ति माँ चंद्रघंटा की श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है. मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है.
जो साधक योग साधना कर रहे हैं उनके लिए यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन कुण्डलनी जागृत करने हेतु स्वाधिष्ठान चक्र से एक चक्र आगे बढ़कर मणिपूरक चक्र का अभ्यास करते हैं. इस दिन साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र में प्रविष्ट होता है . इस देवी की पंचोपचार सहित पूजा करने के बाद उनका आशीर्वाद प्राप्त कर योग का अभ्यास करने से साधक को अपने प्रयास में आसानी से सफलता मिलती है.
तीसरे दिन की पूजा का विधान भी लगभग उसी प्रकार है जो दूसरे दिन की पूजा का है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर माता के परिवार के देवता, गणेश (Ganesh), लक्ष्मी (Lakshmi), विजया (Vijya), कार्तिकेय (Kartikey), देवी सरस्वती(Saraswati), एवं जया (Jaya) नामक योगिनी की पूजा करें फिर देवी चन्द्रघंटा की पूजा अर्चना करें.
चन्द्रघंटा की मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।
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चतुर्थ दुर्गा श्री कूष्मांडा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं।
अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण
इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है।
नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
श्री कूष्मांडा के पूजन से अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।
इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।
देवी कुष्मांडा पूजा विधि :
जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को अनहत चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है.
दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं. इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करे: पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें “सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च. दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे..”
कुष्मांडा की मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
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पंचम दुर्गा श्री स्कंदमाता
आदिशक्ति श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं।
श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है।
नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं
तथा मृत्युलोक में ही साधक को परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है।
उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वंयमेव सुलभ हो जाता है।
स्कन्दमाता की पूजा विधि :
कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से जो साधक दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध चक्र की साधना का होता है. इस चक्र का भेदन करने के लिए साधक को पहले मां की विधि सहित पूजा करनी चाहिए. पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अब तक के चार दिनों में किया है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए “सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया. शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी.
अब पंचोपचार विधि से देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए. नवरात्रे की पंचमी तिथि को कहीं कहीं भक्त जन उद्यंग ललिता का व्रत भी रखते हैं. इस व्रत को फलदायक कहा गया है. जो भक्त देवी स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है. देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है.
स्कन्दमाता की मंत्र :
सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया |
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
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षष्ठम दुर्गा श्री कात्यायनी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी।
महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने
उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं।
नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।
श्री कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र जाग्रति की सिद्धियां
साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है।
वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौलिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है
तथा उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।
माँ कात्यायनी की पूजा विधि :
जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के छठे दिन माँ कात्यायनी जी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को आज्ञा चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है.
दुर्गा पूजा के छठे दिन भी सर्वप्रथम कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं. इनकी पूजा के पश्चात देवी कात्यायनी जी की पूजा कि जाती है. पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान किया जाता है ||
देवी कात्यायनी के मंत्र :
चन्द्रहासोज्जवलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
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सप्तम दुर्गा श्री कालरात्रि
आदिशक्ति श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं।
ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं।
नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है।
इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट)
में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री कालरात्रि की साधना से साधक को
भानुचक्र जाग्रति की सिद्धियां स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं।
कालरात्रिमर्हारात्रिर्मोहरात्रिश्र्च दारूणा. त्वं श्रीस्त्वमीश्र्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा..
मधु कैटभ नामक महापराक्रमी असुर से जीवन की रक्षा हेतु भगवान विष्णु को निंद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा जी ने इसी मंत्र से मां की स्तुति की थी. यह देवी काल रात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योगनिद्रा हैं. इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा है.
देवी काल-रात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है. मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं. देवी की चार भुजाएं हैं दायीं ओर की उपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं.
बायीं भुजा में क्रमश: तलवार और खड्ग धारण किया है. देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और हवाओं में लहरा रहे हैं. देवी काल रात्रि गर्दभ पर सवार हैं. मां का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता है. देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है अत: देवी को शुभंकरी भी कहा गया है.
सप्तमी दिन – कालरात्रि की पूजा विधि :
देवी का यह रूप ऋद्धि सिद्धि प्रदान करने वाला है. दुर्गा पूजा का सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है (Seventh day of Durga Puja is most important day for Tantrik.). सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं. इस दिन मां की आंखें खुलती हैं. षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किया जाता है उसे आज तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आँखें बनती हैं. दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है. इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं.
सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है. इस दिन अनेक प्रकार के मिष्टान एवं कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है. सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है. कुण्डलिनी जागरण हेतु जो साधक साधना में लगे होते हैं आज सहस्त्रसार चक्र का भेदन करते हैं.
पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा वर्णित हैं उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए फिर नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए. देवी की पूजा से पहले उनका ध्यान करना चाहिए
” देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्तया, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां, भक्त नता: स्म विदाधातु शुभानि सा न:..
देवी कालरात्रि के मंत्र :
1- या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
2- एक वेधी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।
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अष्टम दुर्गा श्री महागौरी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं।
इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं।
नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन और अर्चन किया जाता है।
इन दिन साधक को अपना चित्त सोमचक्र (उर्ध्व ललाट) में
स्थिर करके साधना करनी चाहिए।
श्री महागौरी की आराधना से सोम चक्र जाग्रति की सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।
देवी दुर्गा के नौ रूपों में महागौरी आठवीं शक्ति स्वरूपा हैं. दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है. महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी हैम माँ महागौरी की अराधना से भक्तों को सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है.
दुर्गा सप्तशती (Durga Saptsati) में शुभ निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं. देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ जिसने शुम्भ निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया. यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं.
महागौरी स्वरूप :
महागौरी की चार भुजाएं हैं उनकी दायीं भुजा अभय मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है. बायीं भुजा में डमरू डम डम बज रही है और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देती हैं. जो स्त्री इस देवी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं. कुंवारी लड़की मां की पूजा करती हैं तो उसे योग्य पति प्राप्त होता है. पुरूष जो देवी गौरी की पूजा करते हैं उनका जीवन सुखमय रहता है देवी उनके पापों को जला देती हैं और शुद्ध अंत:करण देती हैं. मां अपने भक्तों को अक्षय आनंद और तेज प्रदान करती हैं.
दुर्गा पूजा अष्टमी महागौरी की पूजा विधि :
नवरात्रे के दसों दिन कुवारी कन्या भोजन कराने का विधान है परंतु अष्टमी के दिन का विशेष महत्व है. इस दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं. देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार अष्टमी के दिन भी देवी की पंचोपचार सहित पूजा करें. देवी का ध्यान करने के लिए दोनों हाथ जोड़कर इस मंत्र का उच्चारण करें “सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥”.
महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं.देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”
महागौरी के मंत्र :
1- श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
2- या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
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नवम् दुर्गा श्री सिद्धिदात्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं।
ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं।
नवरात्रि के नवम् दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इस दिन साधक को अपना चित्त निर्वाण चक्र (मध्य कपाल) में
स्थिर कर अपनी साधना करनी चाहिए।
श्री सिद्धिदात्री की साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता।
माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति सिद्धिदात्री हैं, नवरात्र-पूजन के नौवें दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा का विधान है. नवमी के दिन सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है. दुर्गा मईया जगत के कल्याण हेतु नौ रूपों में प्रकट हुई और इन रूपों में अंतिम रूप है देवी सिद्धिदात्री का. देवी प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं. देवी सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है, देवी की चार भुजाएं हैं दायीं भुजा में माता ने चक्र और गदा धारण किया है, मां बांयी भुजा में शंख और कमल का फूल है.
मां सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान रहती हैं, मां की सवारी सिंह हैं. देवी ने सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है. देवतागण, ऋषि-मुनि, असुर, नाग, मनुष्य सभी मां के भक्त हैं. देवी जी की भक्ति जो भी हृदय से करता है मां उसी पर अपना स्नेह लुटाती हैं. मां का ध्यान करने के लिए आप“सिद्धगन्धर्वयक्षाघरसुरैरमरैरपि सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी..” इस मंत्र से स्तवन कर सकते हैं.
सिद्धि के प्रकार :
पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं की कृपा से सिध्दियों को प्राप्त किया था तथा इन्हें के द्वारा भगवान शिव को अर्धनारीश्वर रूप प्राप्त हुआ. अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां हैं जिनका मार्कण्डेय पुराण में उल्लेख किया गया है .
इसके अलावा ब्रह्ववैवर्त पुराण (Brahmvaivart Puran) में अनेक सिद्धियों का वर्णन है जैसे 1. सर्वकामावसायिता 2. सर्वज्ञत्व 3. दूरश्रवण 4. परकायप्रवेशन 5. वाक्सिद्धि 6. कल्पवृक्षत्व 7. सृष्टि 8. संहारकरणसामर्थ्य 9. अमरत्व 10 सर्वन्यायकत्व. कुल मिलाकर 18 प्रकार की सिद्धियों का हमारे शास्त्रों में वर्णन मिलता है. यह देवी इन सभी सिद्धियों की स्वामिनी हैं. इनकी पूजा से भक्तों को ये सिद्धियां प्राप्त होती हैं.
नवमी देवी सिद्धिदात्री की पूजा विधि :
सिद्धियां हासिल करने के उद्देश्य से जो साधक भगवती सिद्धिदात्री की पूजा कर रहे हैं उन्हें नवमी के दिन निर्वाण चक्र (Nirvana Chakra) का भेदन करना चाहिए. दुर्गा पूजा में इस तिथि को विशेष हवन किया जाता है. हवन से पूर्व सभी देवी दवाताओं एवं माता की पूजा कर लेनी चाहिए. हवन करते वक्त सभी देवी दवताओं के नाम से हवि यानी अहुति देनी चाहिए. बाद में माता के नाम से अहुति देनी चाहिए.
दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोक मंत्र रूप हैं अत:सप्तशती के सभी श्लोक के साथ आहुति दी जा सकती है. देवी के बीज मंत्र “ऊँ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नम:” से कम से कम 108 बार हवि दें.
माँ सिद्धिदात्री के मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।
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दस महाविद्या
दसहरा के नवरात्र पूजा भारत में एक बहुत ही प्रमुख पर्व है। इसे काली पूजा, दुर्गा पूजा इत्यादी नामो से जाना जाता है। इन दस दिन में दस महाविद्या की दसो देवियों की दसो दिशाओं में पूजा की जाती है।
ऐसा करने से दस महाविद्या की दसो देवियाँ प्रसन्न होती हैं तथा भक्तो और साधको को सभी कष्टों से उबारती हैं।
अपने पूर्व लेखों में मैंने दस महाविद्या की दसों देवियों की नवरात्र में प्रतेक दिन कैसे आराधना करनी है उसका वर्णन किया था। मैं एक बार फ़िर दस महा विद्या पूजा का महात्म आप सभी को बताना चाहता हूँ।
माँ काली दसो दिशाओं में दस महा विद्या के रूप में वास करती है। इसी लिए दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में माँ काली के दस मुख, दस हाथो और दस पैरों का वर्णन है। दस महा विद्या की दस देवियाँ मनुष्य की सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति करती हैं।
माँ काली काल को हरती हैं
माँ तारा पापों से मनुष्यों को तारती हैं।
माँ भुवनेश्वरी हमें भुवन के सभी सुख प्राप्त करने का आर्शीवाद देती हैं।
माँ षोडशी हमारे यौवन को सदा बना रखती हैं।
माँ छिन्मस्तिका मनुष्य के मस्तिक्ष की चिंताओं को हरती है तथा मति प्रदान करती हैं।
माँ भैरवी सभी प्रकार के भ्रम दूर करती है तथा शक्ति प्रदान करती हैं।
माँ धूमावती हमारे जीवन की धुंध को दूर करती हैं
माँ बगलामुखी सभी दुश्मनों का मर्दन करती हैं।
माँ मातंगी मातृत्व का सुख प्रदान करती हैं।
माँ कमला सभी प्रकार के सुख समृधि प्रदान करती हैं।
प्रथम दिन की महा देवी काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को उत्तर की ओर मुख करके करनी चाहिए
इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं काली ह्रीं क्रीं स्वाहा:
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
दस महाविद्या की साधना करनेवाले सभी साधको को ९ दिन फलहार में रहना चाहिए तथा किसी एक रंग के वस्त्र को नौ दिन धारण करना चाहिए। रंगों में तीन रंग प्रमुख हैं- काला (उत्तम ), लाल (मध्य ), सफ़ेद (निम्न)। इस प्रकार का साधना विशेष साधको के लिए है। परन्तु सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस म़हामंत्र का जाप 108 बार करें तो उनके घरमें सुख शान्ति बनी रहती है और आकाल मृत्यु नही होती है.
द्वितीय दिन: माँ तारा की साधना.
दूसरे दिन की महा देवी माँ तारा स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को ईशान कोने की ओर मुख करके करनी चाहिए। ईशान कोन उत्तर पूर्व दिशा के बीच के कोन को कहते हैं.
इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं तारा ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके पुत्र के कष्टों का नाश होता है. अथवा अगर पुत्रहीन स्त्रियाँ यह जाप करें तो उन्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस मन्त्र के जाप से दुश्मनों पर विजय की प्राप्ति भी होती है.
तीसरा दिन: माँ भुवनेश्वरी
तीसरे दिन की महा देवी माँ भुवनेश्वरी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को पूरब की ओर मुख करके करनी चाहिए।
इनका महा मंत्र क्रीं ह्रीं भुवनेश्वरी ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम १०८ -१०८ बार इस मंत्र का जाप करें तो भुवन के सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं तथा दरिद्र व्यक्तियों का इनकी आराधना करना सबसे उचित माना गया है.
चौथा दिन- माँ षोडशी
चौथा दिन की महा देवी माँ षोडशी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को अग्नि कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। अग्नि कोन पूर्व दक्षिण दिशा के बीच के कोन को कहते हैं।-क्रीं ह्रीं षोडशी ह्रीं क्रीं स्वाहा: इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनका यौवन बना रहता है तथा उस व्यक्ति मैं आकर्षण की शक्ति बढती है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उन्हें कार्तिक के सामान वीर पुत्र की प्राप्ति होती है।
पांचवा दिन: माँ छिन्मस्तिका काली
पांचवा दिन की महा देवी माँ छिन्मस्तिका काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को दक्षिण कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं छिन्मस्तिका ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा उस व्यक्ति के तमो गुन और रजो गुन का भी नाश होता है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उनके काम वासना को नियंत्रित करता है.
छठा दिन: माँ भैरवी
छठे दिन की महा देवी माँ भैरवी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को नैरित कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए।नैरित कोण दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं भैरवी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा अकाल मृत्यु , दुष्टात्मा के प्रभाव से बचाव होता है
सातवाँ दिन: माँ धूमावती
सातवें दिन की महा देवी माँ धूमावती स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पश्चिम कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं धूमावती ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके घर से रोग, कलह, दरिद्रता का नाश होता है.
आठवां दिन: माँ बंगलामुखी
आठवे दिन की महा देवी माँ बंगलामुखी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को भंडार कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। भंडार कोण पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र –क्रीं ह्रीं बंगलामुखी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ बंगलामुखी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके ऊपर किसी तांत्रिक क्रिया को कराया जा रहा हो और जिस से वो परेशान हो। इस मंत्र का जाप करने से वैसे दुष्ट व्यक्तियों का नाश होता है। इनका जाप करते समय साधक को पीला वस्त्र धारण करना चाहिए और पीले माला से जाप करना चाहिए। उस माला को जाप ख़त्म होने के बाद किसी पीपल के पेड़ पर टांग देना चाहिए.
नौवां दिन: माँ मातंगी
नौवे दिन की महा देवी माँ मातंगी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पृथ्वी की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं मातंगी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ मातंगी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके जीवन में माता के प्रेम की कमी हो अथवा उनकी माता को कोई कष्ट हो। जो किसान आकाल या बाढ़ से पीड़ित होते है वे भी माँ मातंगी का अगर सामूहिक रूप से जाप करे तो अकाल या बढ़ का प्रभाव कम होता है.
दसवां दिन: माँ कमला
दसवें दिन की महा देवी माँ कमला स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को आकाश की ओर मुख करके करनी चाहिए।इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं कमला ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ कमला का जाप दसो महाविद्या में सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। इनका जाप करने वाले जीवन में कभी भी दरिद्र नही होते। शास्त्रों में कहा गया है की जो माँ कमला की साधना करते हैं उन्हे सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं।
दश महाविद्या शाबर मन्त्र
सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । ॐ सोऽहं सिद्ध की काया, तीसरा नेत्र त्रिकुटी
ठहराया । गगण मण्डल में अनहद बाजा । वहाँ देखा शिवजी बैठा, गुरु हुकम से भितरी बैठा, शुन्य
में ध्यान गोरख दिठा । यही ध्यान तपे महेशा, यही ध्यान ब्रह्माजी लाग्या । यही ध्यान विष्णु की
माया ! ॐ कैलाश गिरी से, आयी पार्वती देवी, जाकै सन्मुख बैठ गोरक्ष योगी, देवी ने जब किया
आदेश । नहीं लिया आदेश, नहीं दिया उपदेश । सती मन में क्रोध समाई, देखु गोरख अपने माही,
नौ दरवाजे खुले कपाट, दशवे द्वारे अग्नि प्रजाले, जलने लगी तो पार पछताई । राखी राखी गोरख
राखी, मैं हूँ तेरी चेली, संसार सृष्टि की हूँ मैं माई । कहो शिवशंकर स्वामीजी, गोरख योगी कौन है
दिठा । यह तो योगी सबमें विरला, तिसका कौन विचार । हम नहीं जानत, अपनी करणी आप ही
जानी । गोरख देखे सत्य की दृष्टि । दृष्टि देख कर मन भया उनमन, तब गोरख कली बिच कहाया
। हम तो योगी गुरुमुख बोली, सिद्धों का मर्म न जाने कोई । कहो पार्वती देवीजी अपनी शक्ति कौन-
कौन समाई । तब सती ने शक्ति की खेल दिखायी, दस महाविद्या की प्रगटली ज्योति ।
प्रथम ज्योति महाकाली प्रगटली ।
। महाकाली ।।
ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये परम ज्योत, परम
ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ओ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव
वहानी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त
काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त-पी-पीवे । भस्मन्ति माई जहाँ पर पाई
तहाँ लगाई । सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगीन, नागों की
नागीन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोर
काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी
पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा, देव ना दानव, नर ना नारी
देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।
द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी ।
।। तारा ।।
ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा
त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद
मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खण्डाग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर
खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा अघोर तारा, दूध
पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा, डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर
भगाया । चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्, ॐ ऐं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्
तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी ।
।। षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी ।।
ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये
ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन
उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद । तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर
एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी । इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन
जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन
बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं
हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सोः
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।
चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी ।
।। भुवनेश्वरी ।।
ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव गायत्री भई
उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश
अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया ।
चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी
बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।
ह्रीं
पञ्चम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी ।
।। छिन्नमस्ता ।।
सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा,
नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी,
तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या । पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक
पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि
सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती, सती को रख, योगी घर
जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो
आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र-वैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ।
षष्टम ज्योति भैरवी प्रगटी ।
।। भैरवी ।।
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की ।
अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर, कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई
सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत
में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर-भैरवी, सम्पत्त-प्रदा-भैरवी, कौलेश-भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंसिनि-
भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी । जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही
मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथज�� � को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु
गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे
काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
ॐ ह्सैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौः
सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी
।। धूमावती ।।
ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन
असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप
लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका
डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये ।
धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती
तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा ।
अष्टम ज्योति बगलामुखी प्रगटी ।
।। बगलामुखी ।।
ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पिला । संहासन पीले ऊपर कौन बसे ।
सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी । कच्ची बच्ची काक-
कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै
बाला । बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी, अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे
ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात् ।
नवम ज्योति मातंगी प्रगटी ।
।। मातंगी ।।
ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ॐ-कार, ॐ-कार में शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना,
सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर
अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य-मांसे घृत-कुण्डे सर्वांगधारी ।
बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते । ॐ मातंगी-सुन्दरी, रुपवन्ती, कामदेवी, धनवन्ती,
धनदाती, अन्नपूर्णी अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये । तिसकी रक्षा
शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।
दसवीं ज्योति कमला प्रगटी ।
।। कमला ।।
ॐ अ-योनी शंकर ॐ-कार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख
से अभय मुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जय ॐ-कार ।
कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन
। कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी
तीन लोक में भया मान । कमला देवी के चरण कमल को आदेश ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध-लक्ष्म्यै नमः ।
सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का
योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला
तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता ।
सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल
गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी ।
ॐ-कार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन (कुण्डलिनी) गगन को
चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा
जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि
सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से
भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये । इतना दस महाविद्या मन्त्र
जाप सम्पूर्ण भया । अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अचलगढ़ पर्वत
पर बैठ श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश । आदेश
।।
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51 शक्तिपीठ इस प्रकार हैं-
हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।
51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान् शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेज| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।
भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ।
51 शक्तिपीठ इस प्रकार हैं-
1. किरीट कात्यायनी- पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं।
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2 कात्यायनी - वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं।
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3 करवीर शक्तिपीठ- महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है।
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4 श्री पर्वत शक्तिपीठ- इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं।
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5 विशालाक्षी शक्तिपीठ- उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।
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6 गोदावरी तट शक्तिपीठ- आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं।
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7 शुचीन्द्रम शक्तिपीठ- तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं।
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8 पंच सागर शक्तिपीठ- इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं।
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9. ज्वालामुखी शक्तिपीठ- हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं।
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10. भैरव पर्वत शक्तिपीठ- इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहांमाता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं।
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11. अट्टहास शक्तिपीठ- अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं।
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12. जनस्थान शक्तिपीठ- महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं।
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13. कश्मीर शक्तिपीठ- जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं।
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14. नन्दीपुर शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं।
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15. श्री शैल शक्तिपीठ - आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं।
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16. नलहरी शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।
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17. मिथिला शक्तिपीठ- इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं।
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18. रत्नावली शक्तिपीठ- इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं।
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19. अम्बाजी शक्तिपीठ, प्रभास पीठ- गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अिम्बका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है।
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20. जालंधर शक्तिपीठ- पंजाब के जालंध्र में स्थित है माता का जालंध्र शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं।
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21. रामगिरि शक्तिपीठ- इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं।
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22. वैद्यनाथ का हार्द शक्तिपीठ- झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।
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23. वक्त्रोश्वर शक्तिपीठ- माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं।
इस स्थान का मुख्य मंदिर वक्त्रेश्वर शिव मंदिर है।
माना जाता है कि इस स्थान पर सती का "मन" गिरा था।
कुछ विद्वान यहाँ सती के दोनों 'भ्रू' का निपात मानते हैं।
इस शक्तिपीठ की सती 'महिषासुरमर्दिनी' तथा शिव 'वक्त्रनाथ' हैं।
कहा जाता है कि यहीं पर महर्षि कहोड़ के पुत्र अष्टावक्र का आश्रम भी था, जो अब नहीं है।
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24. कण्यकाश्रम कन्याकुमारी- तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं।
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25. बहुला शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।
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26. उज्जयिनी शक्तिपीठ- मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं।
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27. मणिवेदिका शक्तिपीठ- राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं।
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28. प्रयाग शक्तिपीठ- उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं।
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29. विरजाक्षेत्रा, उत्कल- उत्कल शक्तिपीठ उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं।
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30. कांची शक्तिपीठ- तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं।
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31. कालमाध्व शक्तिपीठ- इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं।
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32. शोण शक्तिपीठ- मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं।
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33. कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ कामगिरि- असम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं।
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34. जयन्ती शक्तिपीठ- जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं।
35. मगध् शक्तिपीठ- बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं।
36. त्रिस्तोता शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं।
37. त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ- त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं।
38. विभाष शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं।
39. देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र (शक्तिपीठ)- हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप(भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण (गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं।
40. युगाद्या शक्तिपीठ (क्षीरग्राम शक्तिपीठ)- पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था।
41. विराट का अम्बिका शक्तिपीठ- राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पादांगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं।
42. काली शक्तिपीठ- पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं।
43. मानस शक्तिपीठ- तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं।
44. लंका शक्तिपीठ- श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे।
45. गण्डकी शक्तिपीठ- नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं।
46. गुह्येश्वरी शक्तिपीठ- नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं।
47. हिंगलाज शक्तिपीठ- पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था।
48. सुगंध शक्तिपीठ- बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं।
49. करतोयाघाट शक्तिपीठ- बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं।
50. चट्टल शक्तिपीठ- बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं।
51. यशोरेश्वरी शक्तिपीठ - बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसि( यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं
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