Feb 28, 2017

🚩साँसों की माला



ॐ गुरूजी आदेश गुरुजी सतगुरुओ को आदेश गुरूजी

एक साँस आती है एक साँस जाती है।
एक साँस जाती है एक साँस आती है।


लिमिटेड साँस ही मिलती है सभी जीव को

किन्तु मानव जीव में सोचने समझने की शक्तियां भी होती है

योगी योग से अपनी आयु स्वयं बढ़ा सकता है।

आयु तो बढ़ा सकते है किन्तु साँसों को नही

अर्थात :- साँस तो हमे उतनी ही मिलती है किन्तु अगर हम योग से अपनी साँस को रोक लेते है 
थोड़े थोड़े समय के लिए ही सही तो हमे जीवन समय और प्राप्त हो सकता है

सोते वक्त अपनी साँसों की गति देखो
बैठते वक्त अपनी साँसों की गति देखो
चलते वक्त अपनी साँसों की गति देखो
भोग करते वक्त
क्रोध करते वक्त

सभी अलग अलग स्थिति में साँस की गति देखो

अब

योग ध्यान की शक्ति देखो
जो गुरूजी ने मन्त्र जाप दिया है
या ॐ जाप की शक्ति देखो
अजपा जाप की शक्ति देखो

जब हम जाप या ध्यान में बैठेंगे तो महसूस करोगे की हमारी साँसों की गति भी धीमी हो जाती है । और जीवन समय बढ़ जाता है ।
किन्तु साँस नही ।

आहार निंद्रा और ध्यान दृढ़ होना चाहिए 
ऐसा नही कि थोडा ध्यान योग जाप इत्यदि किया 
और फिर भोग क्रोध भोग वासना आदि में रत हो गए और सब बेकार कर दिया 
इसलिए सयम बहुत बहुत जरूरी है

जीवन के साथ साथ सुख दुःख आशा और निराशा चलती ही रहती है
उतराव चढ़ाव आते ही रहते है

किन्तु फिर ऐसा कोई जीव नही है जिसे जीवन की चाहत न हो ।

अब हमे स्वंय निधारित करना हो ता है कि जीवन में क्या लक्ष्य है क्या उदेश्य है ।

ये सोम के अपने भाव है विचार है जो गलत भी हो सकते है ।
अतः आप सब ज्ञानीजनों से विनती है कि हमारा उचित मार्गदर्शन करे 
और अपने अपने विचार प्रकट करे 
धन्यवाद
 गुरुदेव धर्मनाथ जी को आदेश आदेश
ॐ शिवगोरख योगी

"*"*"*"*"*"*"सोॐ"*"*"*"*"*"*"*"

🚩शिष्य

************** शिष्य********************




सेवादार

सेवादार तो एक ईट है,

जिसे सेवा की भट्टी में डालकर निखारता है सतगुरु |


खुद का और अपनों का आईना दिखाता है सतगुरु |


सेवादार बनता है समर्पण से,


समर्पण होता है प्रेम से,


प्रेम उत्पन्न होता है, सच्चे भावों से,


सच्चे भाव मिलते हैं श्रद्धा से,


श्रद्धा मिलती है भगवान से,


और भगवान मिलते हैं सच्चे गुरुओं से |


इसलिए मर भूल, सेवा देता और कराता है सतगुरु |

न कर सेवा "सोम"तू किसी मतलब से,


कर सेवा तू निस्वार्थ भावना से |


सेवा तो एक अग्नि - कुंड जिसमें,


डालनी है आहुति हमें अपने स्वार्थी विचारों की |


लाज रखनी है हमें इस सफ़ेद चोले की,


जो दिया है गुरु ने हमें किसी आस से |


न देख अवगुण दूसरों के,


जरा सर झुकाकर देख अपने अंतर में |


न खुद से अधिक अवगुणी किसी को पाएगा |


कुछ लाभ नहीं ऐसी सेवा से,


गर हुई कोई रूह खफा हमसे,


करना है गर अपने सतगुरु को खुश,


तो रख ध्यान हमेशा लगे न ठेस किसी के दिल को,


क्योंकि हर दिल में तो वही वसता है |


गर देखोगे हर दिल में तो उसको ही पाओगे |

ढूंढा जो तुझे पाया तेरा पता नही
पाया जो तेरा पता अब मेरा पता नही
Don't search god
क्योंकि
भगवान से मिला नही जाता 
भगवान में मिला जाता है
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गुरु





गुरु राग है गुरु रागनी गुरु बिना कोण दुःख हरे !

गुरु ही दर्पण गुरु के दर्शन गुरु नाम से काल डरे !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 





गुरु ही माता गुरु पिता है गुरु बिन कोण धीर धरे !



गुरु अजर है गुरु अमर है गुरु अगत मै सीर करे !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 




गुरु सत्संग है गुरु रसरंग है गुरु दाता गुरु दानी है !



गुरु करतारा गुरु संसारा गुरु महिमा सबने जानी है !!


सारे कारज छोड़ रे मनवा सतगुरु खोजन चाल रे !


जिनको सतगुरु नहीं मिले मत पूछो उनका हाल रे !! 



जय गुरुदेव



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बिन गुरु ज्ञान कहाँ ते पाऊं



गुरु-शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है।

गुरु,शिष्य को पुत्रवत समझकर, उसे टेड़े-मेडे मार्गौ से निकाल ले जाते है,

जिन्हे शिष्य "सोम"के लिए समझ पाना कठिन होता है।

इसलिए कई बार शिष्य अभिमान मे आकर गुरु की अवज्ञा कर जाता है,

इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है।

यधपी गुरु उसे कुछ भी न कहे,

किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है।

इसके लिए शिष्य मे गुरु के प्रति संपूर्ण समर्पण की अवश्यकता है।


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1 .गुरु ज्ञान बाँटते रहे, ले सके वही लेत,
भभूत समझे तो लगे, वर्ना वह तो रेत |

2. अमल करे तबही बढे, गुरु सबके हीसाथ,
करम सेही भाग्य बढे, भाग्य उसीके हाथ |





गुरु ज्ञान की गंगा. गुरु ज्ञान की गंगा. बहती रहे दिन रात !

गोता जिसने भी लगाया. वह हो गया भाव से पार !! 







जय गुरुदेव




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एक कच्ची मिट्टी के ढेले को सानकर, उसे चाक पर आकार देकर,

आग में तपाकर सुंदर कलाकृति के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय उस कुम्भकार को है

जिसने इतनी मेहनत करके उसे दूसरों के लिए बनाया .....धन्य है वह .

ठीक उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को संवारकर दूसरों के समक्ष अपनी क्षमताओं को

प्रदर्शित करने के लिए तैयार करता है,

वह उसके भविष्य के निर्माण में उसका सहयोग करता है.

मन से गहन अन्धकार को निकालकर जो अपने शिष्य को

प्रकाश से भरे सही मार्ग पर ले जाए वोही वास्तव में गुरु कहलाने का अधिकारी है

फिर चाहे वो माँ हो,

पिता हो, गुरु हो,

भाई अथवा बहन या फिर मित्र या कोई और.

हमें जीवन में जिससे ज्ञान प्राप्त हो जाए वही हमारा गुरु 







रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||






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यह वेबसाइट केवल धार्मिक भावना से प्रवृत्त होकर बनाई गयी है।


इस वेबसाइटकी रचनाएं श्रुति एवं स्मृति के आधार पर 

लोक में प्रचलित एवं विभिन्न महानुभावों द्वारा संकलित करके 

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इसी भाव के साथ बाबा शिवगोरख नाथ जी की सेवा में ........




आप सब इस वेबसाइट पर सादर आमंत्रित है ,हम आप का सहयोग चाहते है /
बाबा शिवगोरख नाथ जी का आशिर्वाद हम सब पर हमेशा बना रहे /

धन्येवाद......................."सोम".


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पूर्ण गुरु के बिना जीवन का कल्याण संभव नहीं है |

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ 
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥ 

गुरु के बिना घोर अंधेरा है | गुरु के बिना हमें सत्य की समझ नहीं आ सकती है और न ही चित्त को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं | न ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है | आज मनुष्य का जीवन अंधकार से ग्रस्त है और गुरु की प्राप्ति के बिना क्या स्थिति होती है |

जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ 
ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥


जिस व्यक्ति ने सतगुरु पुरष की प्राप्ति नहीं की | वह भाग्यहीन समय के बंधन में फंस जाता है | उन्हें जन्म - मरण के भयानक कष्ट को भोगना पड़ता है | आवागमन की विष्टा रुपी गंदगी को झेलना पड़ता है 

जे लख इसतरीआ भोग करहि नव खंड राजु कमाहि ॥ 
बिनु सतगुर सुखु न पावई फिरि फिरि जोनी पाहि ॥


कितने भी संसार के भोगों को भोग लो या राज्य को कितना भी विस्तृत कर लो | सारी पृथ्वी का राज्य भी भोग लो | लेकिन सतगुरु की शरण के बिना न तो आवागमन से छुटकारा हो सकता है और न ही सुख शांति की प्राप्ति ही कर सकते हैं |

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ 
बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥


सभी स्मृति, शास्त्र वेद कहते हैं कि बिना गुरु के मुक्ति असंभव है | कितना भी सोच विचार कर देख लो, मुक्ति की प्राप्ति के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ेगा |

गुरु बिन माला फेरता, गुरु बिन करता दान |
कहे कबीर निहफल गया गावहि वेद पुरान |

गुरु की प्राप्ति किए बिना चाहे माला फेरे या दान पुण्य इत्यादि कितने भी कर्म कर लें | सब व्यर्थ चले जाते हैं | ऐसा सभी शास्त्रों का कथन है, यदि जीवन का वास्तविक कल्याण चाहिए तो जरूरत है पूर्ण गुरु की शरण में जाने की |

गुरु बिन भाव निधि तरइ न कोई | जो बिरिंच संकर सम होई ||

यदि कोई ब्रह्मा के सामान सृष्टि का सृजन करने की समर्थ प्राप्त कर ले, या शिव के सामान सृष्टि संहार करने की शक्ति प्राप्त कर ले | परन्तु गुरु के बिना भवसागर से पार नहीं हो सकता | यहाँ तक कि गुरु की शरण में गए बिना बहुत शक्ति समर्थ प्राप्त कर लेने पछ्चात भी विषय विकारों का त्याग करना मुश्किल है

भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ 
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥

ब्रह्मा, नारद, वेद व्यास किसी से भी पूछ लो गुरु के बिना कल्याण नहीं, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता | इस लिए हमें भी चाहिए हम भी ऐसे पूर्ण गुरु की खोज करें, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के हमें दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है |




सेवा - कर्त्तव्य है, मजदूरी नहीं


" जिस मिशन का ध्येय - विश्व शांति हो, वो अकेले गुरु महाराज जी का निजी दायित्व कैसे हो सकता है?

....जिस अभियान ने सम्पूर्ण मानवता के दर्द को मिटाने का बीड़ा उठाया हो - क्या उसे एकमेव महाराज जी का मिशन कहना सही होगा?"

ग्रंथों में गुरु के मिशन में हाथ बटाने अर्थात सेवा की आपर महिमा गाई है | किसी ने कहा, गुरु - सेवा एक कल्पवृक्ष है | किसी ने उसे बैकुंठ धाम का द्वार बताया | रामचरितमानस ने तो इसे भक्ति स्वरूप ही कह डाला, जो महाकल्याणकारी है | किसी ने तो इसे मुक्ति की युक्ति कहा |


जब एक पिता कोई कार्य या व्यापर करता है, तो क्या उसे अपने बेटों को मदद के लिए आह्वान करने की जरूरत पड़ती है? यदि सुपूत है, तो स्वयं ही बाप के कंधे से कंधा मिलाकर साथ आ खड़ा होता है | जितनी भी अपनी समझ है, सामर्थ्य है - बिन कहे ही उनके व्यापार में झोंक देता है | उसकी नजर अपने निजी स्वार्थ पर नहीं होती | पिता के लक्ष्य की सफलता ही उसका स्वार्थ होता है | उसकी समृद्धि ही उसका एकमेव वेतन या पारिशमिक ! गौर करो साधक! गुरु को तो हम अपनी माता, पिता,बल्कि सर्वस्व मानते हैं - गुरु ही मात - पिता अरु बीर | फिर उनके द्वारा संचालित मिशन में, जिसमें उनका भी तिल भर स्वार्थ नहीं, साथ खड़े होने के लिए हमें क्यों आह्वान या प्रेरणाओं की जरूरत पड़ती है? क्या हम सांसारिक सुपूतों से भी गए गुजरे हैं? या फिर हमने उन्हें अभी अपने सांसारिक पिता से ऊँचा दर्जा ही नहीं दिया? अरे भाई, इस विश्व कल्याणकारी मिशन में उनके साथ खड़े होना महज एक सद्कर्म नहीं है | हमारा कर्त्ताब्य है | हमारी ड्यूटी है | ऐसा करके हम कोई अहसास नहीं करेंगे - न उन पर, न खुद पर! यह तो हमारा धर्म है | एक बेटे का धर्म | उनका मिशन, हमारा मिशन है! हम सबके जीवन का मिशन है!
इसलिए क्यों चाहिए हमें पुण्यों की सौगातें| क्यों चाहिए कोई आश्वासन या मुक्ति का सिहासन! गुरु महाराज जी का मिशन - बाण अपने अंतिम लक्ष्य को भेदे और हम उसमें अपने को यथासामर्थ्य आर्पित कर सकें - क्या यही हमारे लिए काफी नहीं? क्या यही हमारा परम सौभाग्य नहीं? महाराज जी के मुख पर संतुष्टि या प्रसन्नता की प्यारी मुस्कान विखर जाए - क्या यही हमारा वेतन नहीं? क्या इसी में मेरी, तुम्हारी, सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति नहीं"




संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ||

संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ||


श्री गुरु अर्जुन देव जी सुखमनी साहिब में कहते हैं कि जो जन संत कि शरणागत होते हैं, उनका कल्याण होता है | पर यहाँ ध्यातव्य है कि संत किसे कहा गया | संत अर्थात वे महापुरष,जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है और अपनी शरण में आने वाले जिज्ञासुओं को भी करवाने कि सामर्थ्य रखते हैं | जो भी ज्ञान दीक्षा कि पिपासा लिए उनके सानिंध्य में आते हैं, वे तत्षण ही उन्हें उनके अंतर्जगत में परमात्मा के तत्वरूप का दर्शन करा देते हैं | परमात्म - दर्शन के उपरान्त साधक साधना सुमिरन द्वारा अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होता है व एक दिन अपने लक्ष्य ईश्वर को पूर्णत पा लेता है | अंश अंशी में मिल जाता है | फिर वह आवागमन के चक्र में नहीं फंसता | यही जीव का सर्वोत्तम कल्याण
है |
आगे कि दो पंकितयां कुछ रहस्यात्मक हैं | उनमें कहा गया -संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार अर्थात जो पूर्ण संतों कि शरण में नहीं आते, अपितु उसकी निंदा करते हैं, उन्हें बार - बार जन्म लेना पड़ता है| वे पुन: मृत्युलोक में आने को विवश होते हैं | अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं | पर मुख्य प्रशन है कि उनके लिए अवतार शब्द क्यों प्रयोग किया गया | जबकि प्रचलित भाषानुसार तो अवतार शब्द श्री राम, श्री कृषण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है | दरअसल इस शलोक में अवतार शब्द व्यगात्मक रूप में प्रयुक्त किया गया है | जैसे कि यदि आप बनारस कि तरफ जाएँ, तो वहां गुरु शब्द किस के लिए प्रयोग किया जाता है? यदि देखें तो गुरु शब्द हमारी संस्कृति के अनुसार अत्यंत महान शब्द है | उन ज्ञानी पुरषों को इससे संबोधित किया जाता है | जो हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले जाने कि सामर्थ्य रखते हैं | परन्तु बनारस में यह शब्द व्यगात्मक रूप में, असामाजिक तत्वों के लिए प्रयोग किया जाता है | ठीक इसी प्रकार इस शलोक में भी ऐसे दुष्टजनों के लिए जो संतों कि निंदा करते हैं, उनका विरोध करते हैं, उनके लिए व्यंगात्मक रूप में अवतार शब्द प्रयोग किया गया है | क्यों कि यह अटल सत्य है कि जब - जब भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं, तब - तब ये दुष्टजन भी जन्म लेते हैं | प्रभु के कार्य का विरोध करने के लिए, सत्य के खिलाफ आंधी चलाने के लिए | इसी बात को भगवान श्री कृषण जी ने भी अर्जुन को कहा कि ऐसा कोई समय नहीं था जब तू नहीं था, मैं नहीं था अथवा ये दुष्ट लोग नहीं थे और न ही भविष्य में ऐसा कभी होगा |
तात्पर्य यह है कि संतों के निंदक भी हमेशा ही संसार में रहते हैं | जब - जब संत आते हैं, तब - तब ये निंदक भी साथ - साथ आते हैं | हर युग में, हर वार, खूब डटकर संतों व उनके सत्य प्रचार का विरोध करते हैं | परन्तु संत महापुरषों ने कभी भी इन विरोधियों को अपना अवरोधक नहीं माना | अपितु उन्होंने तो इन्हें सत्य के बीजों को दूर - दूर तक बिखेरने वाली आंधी समझा | इसलिए अवतार जैसा सम्मानीय सम्बोधन का प्रयोग किया |

निंदक नेअरे रखिये, आँगन कुटि छवाय |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय || 

संत कबीर जी कहते हैं कि निंदक हमारे हितकारी हैं, हमारा कल्याण करते हैं | इसलिए उन्हें सदा समीप ही रखना चाहिए | जैसे संत ज्ञानवर्षा कर हमारे कर्म संस्कार धोते हैं, वैसे ही ये अज्ञानी निंदक हमारी निंदा चुगली कर हमारे पाप कर्मों का सफाया करते हैं | इस तरह एक प्रकार से ये भी संत अवतारों कि भांति हमारा उद्धार ही करते हैं |




मैं और मेरा लक्ष्य - दूसरा कोई नहीं!



आध्यात्मिक गुरु एक ही होते हैं | पर उपगुरु (शिक्षा गुरु) बहुत से हो सकते हैं | जैसे दत्तात्रेय जी ने 24 उपगुरु बनाए थे | .....एक दिन एक राह पर चलते - चलते दत्तात्रेय जी ने देखा कि सामने से पूरी सजबज और बैंड - बाजे के साथ एक बारात आ रही है | खूब धूम - धडाका हो रहा है | पर वहीं, उस सड़क के किनारे झाड़ियाँ की ओर तीर साधे एक शिकारी खड़ा है | उसकी दृष्टि अपलक, एकटक अपने शिकार पर गडी हुई है | न तो बारात की चकाचोंध ने उसका ध्यान बांटा और न उसके हंसी - ठट्ठे और शोर शराबे ने! शिकारी ने एक पल के लिए भी बारात की ओर मुड़कर नहीं देखा | एकचित होकर डटा रहा, अपने लक्ष्य पर! दत्तात्रेय जी ने उसे देखते ही प्रणाम किया, कहा -'आज से आप मेरे (उप) गुरु हैं | जब भी मैं ब्रह्मज्ञान की साधना में बैठूँगा, तो आपकी प्रेरणा से अपने प्रभु, अपने लक्ष्य पर, इसी प्रकार एक - केन्द्रित होने की कोशिश करूंगा | इतना तन्मन्य की आसपास की माया या दुनिया के विचारों का मुझे भान ही न रहे!'

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सतगुरु क्षमा कर दो उनको

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

जो विवेक से शून्य, दें कोरे तर्क,
बिन गुरु पाना चाहते ईश्वर |
जो जन्म अनेकों बदल चुके,
विश्वास नहीं परिवर्तन पर |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें दिव्य प्रकाश का भान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||

जो नहीं जानते गुरु उन्हें,
भवसागर पार करा सकता |
जो नहीं मानते कोई उन्हें,
घट में ईश्वर दिखला सकता |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें निज संस्कृति का मान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

अहंकार वश होकर जो,
कठिनाई अपनी बड़ा लेते |
वेदों व् धर्म - ग्रंथों तक को,
जो मनघड़त ठहरा देते |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
स्वीकार जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||



कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा ...

कहाँ है जन्नत? कहाँ है उसकी भोर?
है कोई जो ले जाए, उस एक की और?
ग़फलत की निद्रा से जगायेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन देगा सूर्य से अधिक प्रकाश?
जिसे मापने को कम पड़ेंगे तारे गगन आकाश
तमस की काली रात में, उजाले की किरण दिखाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो मन के वीराने में ज्ञान पुष्प करेगा प्रफुलित
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहम; पञ्च चोर जायेंगे मिट
आत्मा से भोगो की मलिनता उतार, पवित्र बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो बहती नदी को पहुँचाएगा उसके स्रोत?
हिलोरे खाती, भाटा लाती, होती ओतप्रोत
नदी की थकान दूर कर सागर मिलन कराएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो भक्ति का पथ पढ़, आत्मा की पुस्तक
अध्यात्म का रहस्य, दीक्षा का सत्य लाएगा मुझ तक
इंसानी पशु से मानव, मानव से ज्ञानी बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो तोड़ेगा कर्मों की बेड़ी?
संभालेगा डगरों पे तिरछी टेढ़ी – मेढ़ी
उँगली पकड़, विकारों से बचा, सत्यपथ पर चलेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

कौन है जो कराएगा साक्षात्त दर्शन चरण चक्षु मुंड?
तड़पते प्यासे चातक को देगा स्वाति बूँद
विवेक दृष्टि दे, अंतर्घर की क्षुधा बुझाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा? 

शास्त्र-ग्रन्थ, बाईबल, गीता, कुरान भी करती है ऐलान
घट में दिखती दिव्य ज्योति मिल जाए अगर कोई संत महान
अमृत कुंड नाम भक्ति भण्डार का है कोष
दिव्य ज्योति जलाते है कलयुग में भी आशुतोष .......




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भगवान की प्रतिज्ञा

मेरे मार्ग पर पैर रख के तो देख,
तेरे सब मार्ग न खोल दूं तो कहना |

मेरे लिए कड़वे वचन सुनकर तो देख,
कृपा न बरसा दूं तो कहना |
मेरी तरफ आ के तो देख ,
तेरा ध्यान न रखूं तो कहना

मेरे लिए खर्च करके तो देख,
कुबेर के भंडार न खोल दूं तो कहना |
मेरे चरित्रों का मनन करके तो देख,
ज्ञान के मोती न भर दूं तो कहना |

मेरा कीर्तन करके तो देख,
जगत का विस्मरण न करा दूं तो कहना |
तू मेरा बन के तो देख,
हर एक को तेरा न बना दूं तो कहना |

मुझे अपना मददगार बना के तो देख,
तुझे सब की गुलामी से न छुड़ा दूं तो कहना |
मेरे लिए आंसू बहा के तो देख,
तेरे जीवन में आनन्द के सागर न बहा दूं तो कहना |




अपने शारीर को मांसाहारी भोजन द्वारा गंदा मत करो |


घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए, 
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय, 
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें,
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें,
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें |

संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद, बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं | बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती | आस - पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते ,जाने - अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं!

कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता | पर क्या यही दो दिन धार्मिक बातें माननी चाहिए? क्या बाकी दिन ईश्वर के नहीं है? जब पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है, भगवान को पसंद नहीं, तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए? वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह लेकर जाते हैं? नहीं न! फिर क्या यह शारीर परमात्मा का जीता - जागता मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं | फिर इस जीवंत मंदिर में मांस क्यों? कबीर जी ने सही कहा, हमने तो इस मंदिर रुपी शारीर को कब्र बना दिया है | बर्नार्ड शा ने भी यही कहा - 'हम मांस खाने वाले वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं|'

जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ 
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥

यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके, उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे?



कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ 
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥

मांसाहार से मनुष्य का स्वाभाव हिंसक हो जाता है और वो राक्षस बन जाता है | उसके द्वारा किए गए सभी धर्म कार्य व्यर्थ चले जाते हैं | जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन! अगर शुद्ध सात्विक भोजन खाया जाए, तो मन में भी वैसे ही विचार और भावनाएं उठेंगी | अगर हम तामसिक भोजन जैसे चिकन - शिकन,मिर्च - मसलें खाते हैं, तो मन में तामसिक गुण पैदा हो जाते हैं | हिंसा, क्रोध जैसी भावनाएं उठती हैं | एक सर्वे किया गया, जिसमें 75 प्रतिशत कैदी मांसाहार पाए गए | कभी ध्यान से देखिओ मांसाहारी लोग अक्सर बड़े गुस्सैल होते हैं | जरा सी कोई बात हुई नहीं कि वे तमतमा उठते हैं |

देखो, जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है | अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह उसी का भक्षण करता है | उसी पर कायम रहता है | शेर भूखा होने पर भी कभी शाक - पत्तियां नहीं खाएगा | गाय चाहे कितनी भी शुधाग्रस्त क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी | क्या कभी उसको मांसाहार करते हुए देखा है? बस एक इन्सान ही है, जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य - अभक्ष्य खा लेता है | स्वयं विचार कीजिए, पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है | 

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somvir
~सोमनाथ~ 



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मौत ने पूछा कि-

मैंआऊंगी तो स्वागत

करोंगे कैसे,


मैंने कहा कि-

राहों में फूल बिछाकर

पूछूँगा

आने में देर इतनी कैसे"



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बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |

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एक सुझाव

जब मानव की नस नस में दानवता का प्रसार होता है
जब रक्षक ही भक्षक बन, बाप ही कुबाप बन
रिश्तों की पवित्रता को मिट्टी में मिला डाले
नौजवानों का आहार जब चरस और शराब हो
माया का नशा इंसा को बेहिसाब हो
मृत्यु जब अट्टहास करे, जीवन जब कराहने लगे
बेबसी की बेड़ियों में मानवता चिल्लाने लगे
घर-घर में जब कंस हो, कौरवों का वंश हो
बुद्धि पर कपाट हो
लहू की लालिमा से लथपथ ललाट हो
अर्थ जब अनर्थ लगे, अमृत जब व्यर्थ लगे
अमन बन जाए कफन, शान्ति हो जाए दफन

तब?
ब्रह्मज्ञान ही सर्वस्व बचा सकता है
दुनिया को स्वर्ग बना सकता है.......





जो सच को ईमान बना लेते हैं,
अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |
आ जाता है सच पर मरना जिन्हें,
वो मरने को वरदान बना लेते हैं 



इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में,
वह इबादत नहीं, एक तरह की तिजारत है ||





आग लगी आकाश में, झर झर गिरे अंगार !
संत न होते जगत में ,तो जल मरता संसार !!




सेवक सोॐ नाथ 


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🚩नवनाथ दर्शन



नवनाथ दर्शन







नवनाथ-शाबर-मन्त्र




“ॐ नमो आदेश गुरु की।

ॐकारे आदि-नाथ, उदय-नाथ पार्वती।

सत्य-नाथ ब्रह्मा। सन्तोष-नाथ विष्णुः,

अचल अचम्भे-नाथ। गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ,

ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ। माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ,

जति-गुरु है गोरखनाथ।


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घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई।

नवनाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।


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नवनाथ-स्तुति




“आदि-नाथ कैलाश-निवासी, उदय-नाथ काटै जम-फाँसी।

सत्य-नाथ सारनी सन्त भाखै, सन्तोष-नाथ सदा सन्तन

की राखै। कन्थडी-नाथ सदा सुख-दाई, अञ्चति अचम्भे-

नाथ सहाई। ज्ञान-पारखी सिद्ध चौरङ्गी, मत्स्येन्द्र-नाथ

दादा बहुरङ्गी। गोरख-नाथ सकल घट-व्यापी, काटै कलि-

मल, तारै भव-पीरा। नव-नाथों के नाम सुमिरिए, तनिक

भस्मी ले मस्तक धरिए। रोग-शोक-दारिद नशावै, निर्मल

देह परम सुख पावै। भूत-प्रेत-भय-भञ्जना, नव-नाथों का

नाम। सेवक सुमरे धर्म नाथ, पूर्ण होंय सब काम।।”

प्रतिदिन नव-नाथों का पूजन कर उक्त स्तुति का २१ बार

पाठ कर मस्तक पर भस्म लगाए। इससे नवनाथों की

कृपा मिलती है। साथ ही सब प्रकार के भय-पीड़ा, रोग-

दोष, भूत-प्रेत-बाधा दूर होकर मनोकामना, सुख-सम्पत्ति

आदि अभीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं। २१ दिनों तक, २१ बार

पाठ करने से सिद्धि होती है। 




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Feb 27, 2017

🚩शिव गोरख नाथ दर्शन






नाथ सम्प्रदाय 



नाथ सम्प्रदाय का परिचययह सम्प्रदाय भारत 


का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पन्थी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पन्थी और पागल।इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है।भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः-"सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।"अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-" वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।""एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥"उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है। वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। "योगश्चित वृत्ति निरोधः" सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। 




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“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश।

गुरुजी को आदेश।

ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी।

हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री।

ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात,

अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर,

निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण।

सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ।

ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्।

ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया।

गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ।

नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति

गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश

-आदेश।।”




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शशि मण्डल से अमृत टपके, 
पीकर प्यास बुझाता है।
सब कर्मों की धूनी जलाकर, तन में भस्म रमाता है।
भ्रमर गुफा में जाय विराजे, सुरता सेज बिछाता है।
नाभि दल में सोयी, नागिन जाय जगाता है।
मूल द्वार से खींच पवन को, उलटा पंथ चलाता है।
मेरुदण्ड की सीढ़ी बनाकर, शून्य शिखर चढ़ जाता है।
 कहे "सोॐ" हे नाथ तू जिवन नही मरण सिखलाता है।
भेद ये तेरा जिसने पाया वो ही योगी कहलाता है।



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अलख आदेश योगी गोरख



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गोरक्षनाथ संकट मोचन स्तोत्र



बाल योगी भये रूप लिए तब, आदिनाथ लियो अवतारों।
ताहि समे सुख सिद्धन को भयो, नाती शिव गोरख नाम उचारो॥


भेष भगवन के करी विनती तब अनुपन शिला पे ज्ञान विचारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य युग मे भये कामधेनु गौ तब जती गोरखनाथ को भयो प्रचारों।
आदिनाथ वरदान दियो तब , गौतम ऋषि से शब्द उचारो॥


त्रिम्बक क्षेत्र मे स्थान कियो तब गोरक्ष गुफा का नाम उचारो ।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य वादी भये हरिश्चंद्र शिष्य तब, शुन्य शिखर से भयो जयकारों।
गोदावरी का क्षेत्र पे प्रभु ने , हर हर गंगा शब्द उचारो।


यदि शिव गोरक्ष जाप जपे , शिवयोगी भये परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

अदि शक्ति से संवाद भयो जब , माया मत्सेंद्र नाथ भयो अवतारों।
ताहि समय प्रभु नाथ मत्सेंद्र, सिंहल द्वीप को जाय सुधारो ।


राज्य योग मे ब्रह्म लगायो तब, नाद बंद को भयो प्रचारों।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

आन ज्वाला जी किन तपस्या , तब ज्वाला देवी ने शब्द उचारो।
ले जती गोरक्षनाथ को नाम तब, गोरख डिब्बी को नाम पुकारो॥


शिष्य भय जब मोरध्वज राजा ,तब गोरक्षापुर मे जाय सिधारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

ज्ञान दियो जब नव नाथों को , त्रेता युग को भयो प्रचारों।
योग लियो रामचंद्र जी ने जब, शिव शिव गोरक्ष नाम उचारो ॥


नाथ जी ने वरदान दिया तब, बद्रीनाथ जी नाम पुकारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

गोरक्ष मढ़ी पे तपस्चर्या किन्ही तब, द्वापर युग को भयो प्रचारों।
कृष्ण जी को उपदेश दियो तब, ऋषि मुनि भये परम सुखारो॥


पाल भूपाल के पालनते शिव , मोल हिमाल भयो उजियारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥


ऋषि मुनि से संवाद भयो जब , युग कलियुग को भयो प्रचारों।
कार्य मे सही किया जब जब राजा भरतुहारी को दुःख निवारो,


ले योग शिष्य भय जब राजा, रानी पिंगला को संकट तारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

मैनावती रानी ने स्तुति की जब कुवा पे जाके शब्द उचारो।
राजा गोपीचंद शिष्य भयो तब, नाथ जालंधर के संकट तारो। ।


नवनाथ चौरासी सिद्धो मे , भगत पूरण भयो परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥



दोहा :- नव नाथो मे नाथ है , आदिनाथ अवतार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जो , पूर्ण ब्रह्म करतार॥
संकट -मोचन नाथ का , सुमरे चित्त विचार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जी मेरा करो निस्तार ॥





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नवनाथ-शाबर-मन्त्र




“ॐ नमो आदेश गुरु की।

ॐकारे आदि-नाथ, उदय-नाथ पार्वती।

सत्य-नाथ ब्रह्मा। सन्तोष-नाथ विष्णुः,

अचल अचम्भे-नाथ। गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ,

ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ। माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ,

जति-गुरु है गोरखनाथ।


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घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई।

नवनाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।


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नवनाथ-स्तुति




“आदि-नाथ कैलाश-निवासी, उदय-नाथ काटै जम-फाँसी।

सत्य-नाथ सारनी सन्त भाखै, सन्तोष-नाथ सदा सन्तन

की राखै। कन्थडी-नाथ सदा सुख-दाई, अञ्चति अचम्भे-

नाथ सहाई। ज्ञान-पारखी सिद्ध चौरङ्गी, मत्स्येन्द्र-नाथ

दादा बहुरङ्गी। गोरख-नाथ सकल घट-व्यापी, काटै कलि-

मल, तारै भव-पीरा। नव-नाथों के नाम सुमिरिए, तनिक

भस्मी ले मस्तक धरिए। रोग-शोक-दारिद नशावै, निर्मल

देह परम सुख पावै। भूत-प्रेत-भय-भञ्जना, नव-नाथों का

नाम। सेवक सुमरे धर्म नाथ, पूर्ण होंय सब काम।।”

प्रतिदिन नव-नाथों का पूजन कर उक्त स्तुति का २१ बार

पाठ कर मस्तक पर भस्म लगाए। इससे नवनाथों की

कृपा मिलती है। साथ ही सब प्रकार के भय-पीड़ा, रोग-

दोष, भूत-प्रेत-बाधा दूर होकर मनोकामना, सुख-सम्पत्ति

आदि अभीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं। २१ दिनों तक, २१ बार

पाठ करने से सिद्धि होती है। 




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shiv gorakh nath


योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा:


नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण ने

ज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को

अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। 
वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना।

वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी

चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार

श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ

भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा

सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों

से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।



जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से

प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान

चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को

उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा

सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ

आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ

उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री

पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से

प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी

सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव

कथा सुनाते ही रहे।



भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न

पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे

प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के

उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो।

बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं

जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय

संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार

बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के

सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा,

इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ

द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर

सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ

या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो।

अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो,

यही हम दोनो का आदेश है।



मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही

अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने

भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए

वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के

अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान

आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के

सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ

परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के

चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट

होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं,

स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर

प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और

याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें।

मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास

करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय

उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार

से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग,

विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले

जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ

ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित

होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल

अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित

अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से

बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे

पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है।

हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है

तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै

सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै

बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे

से पृथक आप नही है।



जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ

-जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ-

जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि

जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है

वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे

व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का

समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन

समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने

अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक

समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ

रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष

पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये।

महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह

पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत

योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप

मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ

शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री

भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक

महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर

उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी

ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे

देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का

रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय

से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव

जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने

के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा

का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता,

माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे

जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने

ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द

गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी

योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे

उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित

भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार

अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन

हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे

लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती

हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ

आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर

वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ

आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका

कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी

सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के

ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित

योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी

समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का

तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव

मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है

समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै

ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित

भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी !

संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से

मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।



जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ

नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी !

जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है,

और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत

आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक

रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे

चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म

शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर

रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे

समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी

माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस

प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे।

इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे

प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ

मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग

मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग

का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली

शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का

सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत

महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश

मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ

गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग

को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की

एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इस भगवान

आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को

शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा

अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको

दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया। 





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॥ आदेश आदेश ॥


गोरखनाथ का जन्म





गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में जन मानस में एक किंम्बदन्ती

प्रचलित है , जो कहती है कि गोरखनाथ ने सामान्य मानव के समान

किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लिया था । वे गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के

मानस पुत्र थे । वे उनके शिष्य भी थे । एक बार भिक्षाटन के क्रम में

गुरु गुरु मत्स्येन्द्रनाथ किसी गाँव में गये । किसी एक घर में भिक्षा

के लिये आवाज लगाने पर गृह स्वामिनी ने भिक्षा देकर आशीर्वाद में

पुत्र की याचना की । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ सिद्ध तो थे ही, उनका हृदय

दया ओर करुणामय भी था। अतः गृह स्वामिनी की याचना स्वीकार

करते हुए उनने पुत्र का आशीर्वाद दिया और एक चुटकी भर भभूत देते

हुए कहा कि यथासमय वे माता बनेंगी । उनके एक महा तेजस्वी पुत्र

होगा जिसकी ख्याति दिगदिगन्त तक फैलेगी । आशीर्वाद देकर गुरु 

मत्स्येन्द्रनाथ अपने देशाटन के क्रम में आगे बढ़ गये । बारह वर्ष

बीतने के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी ग्राम में पुनः आये । कुछ भी

नहीं बदला था । गाँव वैसा ही था । गुरु का भिक्षाटन का क्रम अब भी

जारी था । जिस गृह स्वामिनी को अपनी पिछली यात्रा में गुरु ने

आशीर्वाद दिया था , उसके घर के पास आने पर गुरु को बालक का

स्मरण हो आया । उन्होने घर में आवाज लगाई । वही गृह स्वामिनी

पुनः भिक्षा देने के लिये प्रस्तुत हुई । गुरु ने बालक के विषय में पूछा

। गृहस्वामिनी कुछ देर तो चुप रही, परंतु सच बताने के अलावा उपाय

न था । उसने तनिक लज्जा, थोड़े संकोच के साथ सबकुछ सच सच

बतला दिया । हुआ यह था कि गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से आशीर्वाद प्राप्ति के

पश्चात उसका दुर्भाग्य जाग गया था । पास पड़ोस की स्त्रियों ने राह

चलते ऐसे किसी साधु पर विश्वास करने के लिये उसकी खूब खिल्ली

उड़ाई थी । उसमें भी कुछ कुछ अविश्वास जागा था , और उसने गुरु

प्रदत्त भभूति का निरादर कर खाया नहीं था । उसने भभूति को पास के

गोबर गढ़े में फेंक दिया था । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो सिद्ध महात्मा थे

ही, ध्यानबल से उनने सब कुछ जान लिया । वे गोबर गढ़े के पास

गये और उन्होने बालक को पुकारा । उनके बुलावे पर एक बारह वर्ष

का तीखे नाक नक्श, उच्च ललाट एवं आकर्षण की प्रतिमूर्ति स्वस्थ

बच्चा गुरु के सामने आ खड़ा हुआ । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ बच्चे को लेकर

चले गये । यही बच्चा आगे चलकर अघोराचार्य गुरु गोरखनाथ के नाम

से प्रसिद्ध हुआ ।

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बारह पंथों के नाम


1 सत्यनाथ,
2 धर्मनाथ,
3 दरियानाथ,
4 आई पन्थी,
5 रास के,
6 वैराग्य के,
7 कपिलानी,
8 गंगानाथी,
9 मन्नाथी,
10 रावल के पन्थी
11 पाव पन्थी 
12 पागल पन्थी



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ગોરક્ષ વાણી

बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।



गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥

हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग। 
हसिबा षेलिबा गा‍इबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७।

हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन। 
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८।

अहनिसि मन लै उनमन रहै गम कि छांड़ि अगम की कहै। 
छाड़ै आसा रहै निरास कहै ब्रह्मा हूँ ताका दास।१६।

अजपा जपै सुंनि मन धरै पाँचों इंद्री निग्रह करै 
ब्रह्म अगनि मै होमै काया तास महादेव बंदै पाया ।१६।

घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास। 
नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९।

बालै जोबनि जे नर जती काल दुकालां ते नर सती । 
फुरतैं भोजन अलप अहारी नाथ कहै सो काया हमारी।२०।

पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा अनिल तृषा जहटिया। 
ससंबेद श्रीगोरख कहिया बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२२।

गगन मँडल में ऊंधाकूबा तहां अंमृत का बासा। 
सगुरा हो‍इ सु भरि-भरि पीवै निगुरा जा‍इ पियासा॥२३॥

मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं गोरष मरि दीठा॥२६॥

हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरैं धारिबा पावं। 
गरब न करिबा सहजैं रहिबा भणत गोरष रावं॥२७॥

नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ़ करि राषहु चोया। 
काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया॥२९॥

स्वामी बनषडि जां तो षुध्या व्यापै नग्री जा‍उं त माया। 
भरि भरि षा‍उं त बिद बियापै क्यों सीझति जल ब्यंद की काया॥३०॥

धाये न षा‍इबा भूषे न मारबा अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि क भेवं। 
हठ न करिबा पड्या न रहिबा यूं बोल्या गोरष देवं॥३१॥

थोड़ा बोलै थोड़ षा‍इ तिस घटि पवनां रहै समा‍इ। 
गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥३२॥

अवधू अहार तोड़ौ निद्रा मोड़ौ कबहुँ न हो‍इगा रोगी। 
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूं को को बिरला बिजोगी॥३३॥

देव कला ते संजम रहिबा भूत कला अहारं। 
मन पवना लै उनमनि धरिबां ते जोगी तत सारं॥३४॥

अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै। 
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल॥३६॥

घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो हो‍ई हमारी। 
घटि घटि गोरष कहै कहांणीं। काचै भांडै रहे न पांणी॥३७॥

घटि घटि गोरष फिरै निरुता। को घट जागे को घट सूता। 
घटि घटि गोरष घटि घटि मींन। आपा परचै गुर मुषि चींन्ह॥३८॥

दूधाधारी परघरि चित। नागा लकड़ी चाहै नित। 
मौनीं करै म्यंत्र की आस। बिनु गुर गुदड़ी नहीं बेसास॥४०॥

दषिणी जोगी रंगा चंगा पूरबी जोगी बादी। 
पछमी जोगी बाला भोला सिध जोगी उतराधी॥४१॥

अवधू पूरब दिसि ब्याधिका रोग पछिम दिसि मिर्तु क सोग। 
दक्षिण दिसि माया का भोग उत्यर दिसि सिध का जोग॥४२॥

घरबारी सो घर ली जाणै। बाहारि जाता भीतरि आणै। 
सरब निरंतरि काटै माया। सो घरबारी कहि‍ए निरञ्जन की काया॥४४॥

अमरा निरमल पाप न पुंनि। सत रज बिबरजित सुंनि। 
सोहं हंसा सुमिरै सबद। तिहिं परमारथ अनंत सिध॥४६॥

यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पांचतत्त्व का जीव। 
यहु मन लेजै उनमन रहै। तौ तीनि लोक की बातां कहै॥५०॥१

सास उसास बा‍इकौं भषिवा रोकि लेहु नव द्वारं। 
छठै छमासि काया पलटिबा तब उनमँनीं जोग अपारं॥५२॥

मन मैं रहिणा भेद न कहिणां बोलिबा अंमृत बाणीं। 
आगिला अगनी हो‍इबा अवधू तौ आपण हो‍इबा पांणीं॥६३॥

उनमनि रहिबा भेद न कहिबा पीयबा नींझर पांणीं। 
लंका छाड़ि पलंका जा‍इबा तब गुरमुष लेबा बांणीं॥६४॥

बैठ अवधू लोह की षूँति चलता अवधू पवन की मूंठी। 
सोवता अवधू जीवता मूवा बोलता अवधू प्यंजरै सूवां॥७१॥

गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मैं ऐसैं रहणां। 
आंषैं देषिबा कांनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणां॥७२॥

अहार न्यंद्रा बैरी काल कैसे कर रखिबा गुरूका भंदार। 
अहारतोड़ो निंद्रा मोड़ौ सिव सकती लै करि जोड़ौ॥८४॥

तब जानिबा अनाहद का बंध ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध। 
रकत की रेत अंग थैं न छूटै जोगी कहतां हीरा न फूटै॥८५॥

निहचल धरि बैसिवा पवन निरोधिबा कदे न हो‍इगा रोगी।
बरस दिन मैं तौनि बार काया पलटिबा नाग बंग बनासपती जोजी॥९२॥

षोड़स नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी भांनं। 
सहंस्रनाड़ी प्रांण का मेला जहाँ असंष कला सिव थांनं॥९३॥

जोगी सो जे मन जोगवै बिला‍इत राज भोगवै। 
कनक कांमनी त्यागें दो‍इ सो जोगेस्वर निरभै हो‍इ॥१०२॥

बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट नहीं रे पूता गुरू सौं भेंट। 
षड़ षड़ काया निरमलनेत भ‍ई रे पूता गुरू सौं भेंट॥१०९॥

चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा पंच की मेटिबा आसा। 
बदत गोरष सतिते सूरिवां उनमनि मन मैं बासा॥११४॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी। 
पढ्या गुंण्या सूबा बिला‍इ षाया पंडित के हाथि रह ग‍ई पोथी॥११९॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षांया गुड़ मींठा। 
खा‍इ हींग कपूर बषांणै गोरष कहै सब झूठा॥१२०॥

आसण दिढ़ अहार दिढ़ जे न्यंद्रा दिढ़ हो‍ई। 
गोरष कहै सुणौं रे पूता मरै न बूढ़ा हो‍ई॥१२५॥

को‍ई न्यंदै को‍ई ब्यंदै को‍ई करै हमारी आसा। 
गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा॥१२६॥

तूटी डोरी रस कस बहै। उनमनि लागा अस्थिर रहै। 
उनमनि लागा हो‍ई अनंद। तूटी डोरीं बिनसै कंद॥१२८॥

अगम अगोचर रहै नीहकांम। भंवर गुंफा नांही बिसराम। 
जुगती न जांणै जागैं राति मन कहू कै न आवै हाथि॥१३२॥

नव नाड़ी बहोतरि कोठां। ए अष्टांग सब झूठा। 
कूंची ताली सुषमन करै उलटि जिभ्या ले तालू धरै॥१३३॥

भरि भरि षा‍इ ढरि ढरि जा‍इ। जोग नहीं पूता बड़ी बला‍इ। 
संजम हो‍इ बा‍इ संग्रहौ। इस बिधि अकल षुरिस कौ गहौ॥१४५॥

षांये भी मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहैं पूता संजमि ही तरिये। 
मघि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर हो‍ई सांस॥१४६॥

पवन हीं जोग पवन हीं भोग। पवन हीं हरै छतीसौ रोग। 
या पवन को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४७॥

ब्यंद ही जोग ब्यंद ही भोग। ब्यंद हीं हरै चौसठि रोग। 
या बिंद का को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४८॥

साच का सबद सोना का रेख। निगुरां कौंचाणक सगुरा कौं उपदेस। 
गुर क मुंड्या गुंन मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै॥१४९॥

गुरु की बाचा षोजैं नाहीं अहंकारी अहंकार करै। 
षोजी जीवैं षोजि गुरू कौं अहंकारीं का प्यंड परै॥१५१॥

अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा। बांध्या मेल्हा तो जगत्र चेला। 
बदंत गोरष सति सरूप। तत बिचारैं ते रेष न रूप॥१५३॥

सीषि साषि बिसाह्या बुरा। सुपिनैं मैं धन पाया पड़ा। 
परषि परषि लै आगैं धरा। नाथ कहै पूता षोटा न षरा॥१५४॥

स्वामी काची वा‍ई काचा जिंद। काची काया काचा बिंद। 
क्यूं करि पाकै क्यूं करि सीझै। काची अगनी नीर न षीजै॥१५६॥

तौ देबी पाकी बा‍ई पाका जिंद। पाकी काया पाका बिंद। 
ब्रह्म अगनि अषंडित बलै। पाका अगनी नीर परजलै॥१५७॥

सोवत आडां ऊभां ठाढ़ां। अगनीम ब्यंद न बा‍ई। 
निस्चल आसन पवनां ध्यानं। अगनीं ब्यंद न जा‍ई॥१५८॥

अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला। 
मन मांनैं तो संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला॥१६१॥

पंथि चले चलि पवनां तूटैनाद बिंद अरु बा‍ई। 
घट हीं भींतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भा‍ई॥१६३॥

जोगी हो‍इ परनिंद्या झषै। मद मांस अरु भांगि जो भषै। 
इकोतरसै पुरिषा नरकहि जा‍ई। सति सति भषत श्रीगोरष रा‍ई॥१६४॥

अवधू मांसम भषत दया धरम का नास। 
मद पीवत तहां प्राण निरास
भांगि भषंत ग्यांन ध्यांन षोवत।
जम दरबारी ते प्रांणीं रोवत॥१६५॥

चालिबा पथा कै सींबा कंथा। धरिबा ध्यांन कै कथिबा ग्यांनं। 
एका‍एकी सिध सग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भग॥१६६॥

पढ़ि देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं। मूवां मुकति बेकुंठा थांनं। 
गाड्या जाल्या चौरासी मैं जा‍इ। सतिसति भाषंत गोरषरा‍ई॥१६७॥

आकास तत सदासिव जांण। तसि अभि‍अंतरि पद निरबांण। 
प्यंडे परचांनैं गुरमुषि जो‍इ। बाहुडि आबा गवन न हो‍इ॥१६८॥

ऊरम धूरम ज्वाला जोति। सुरजि कला न छीपै छोति। 
कंचन कवल किरणि परसा‍इ। जल मल दुरगंध सर्ब सुषा‍इ॥१६९॥

घटि घटि सूण्यां ग्यांन न हो‍इ। बनि बनि चंदन रूष न को‍इ। 
रतन रिधि कवन कै हो‍इ। ये तत बूझै बिरला को‍ई॥१७०॥
कै मन रहै आसा पास। कै मन रहै परम उदास।
कै मन रहै गुरू के ओलै। कै मन रहै कांमनि कै षोलै॥१७२॥

बाहरि न भीतरि नड़ा न दूर। षोजत रहे द्रह्मा अरु सूर। 
सेत फटक मनि हीरैं बीघा। इहि परमारथ श्री गोरश सीधा॥१७४॥

आवति पंचतत कूं मो है जाती छैल जगावै। 
गोरष पूछै बाबा मछिंद्र या न्यंद्रा कहां थैं आवै॥१७५॥
गगन मंडल मैं सुंनि द्वार। बिजली चंमकै घोर अंधर।
ता महि न्यंद्रा आवै जा‍इ। पंच तत मैं रहै समा‍इ॥१७६॥

ऊभां बैठां सूतां लीजै। कबहूँ चित्त भंग न कींजै। 
अनहद सबद गगन मैं गाजै। प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥१७७॥

एकलौ बीर दुसरौ धीर तीसरौ षटपट चोथौ उपाध। 
दस पंच तहाँ बाद बिबाद॥१७८॥

एका‍एकी सिध नांउं दो‍इ रमति ते साधवा। 
चारि पंच कुटुम्ब नांउं दस बीस ते लसकरा॥१७९॥

दरवेस सोइ जो दरकी जांणै। पंचे पवन अपूठां आंणै। 
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह कि जाति॥१८२॥

रूसता रूठ गोला-रोगी। भोला भछिक भूषा भोगी। 
गोरष कहै सरबटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी॥२१४॥

अवधू अहार कूं तोड़िबा पवन कूं मोड़िब ज्यं कबहु न हियबा रोगी। 
छठै छमासि काया पलटंत नाग बंग बनासपतो जोगी॥२१५॥

जिभ्या इन्द्री एकैं नाल। जो राषै सो बंचै काल। 
पंडित ग्यांनी न करसि गरब। जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब॥२१९॥
गोरख कहै हमारा षरतर पंथ। जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।
जोग जुगति मैं रहै समाय। ता जोगी कूं काल न खाय॥२२०॥

जीव सीव संगे बासा। बधि न षा‍इबा रुध्र मासा। 
हंस घात न करिबा गोतं। कथंत गोरष निहारि पोतं॥२२७॥
जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी। मारि लै पंचभू म्रगला।
चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया दाण॥
कथंत गोरष मुकति लै मानवा मारि लै रै मन द्रोही।
जाकै बप बरण मास नहीं लोही॥२२८॥

जोगी सो जो राषैं जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग। 
अंजन छोड़ि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै॥२३०॥

सुंनि ज मा‍ई सुंनि ज बाप। सुंनि निरंजन आपै आप। 
सुंनि कै परचै भया सथीर। निहचल जोगी गहर गंभीर॥२३१॥

अवधू यो मन जात है याही तै सब जांणि। 
मन मकड़ी का ताग ज्यूं उलटि अपूठौ आंणि॥२३४॥

ऊजल मीन सदा रहै जल मैं सुकर सदा मलीना। 
आतम ग्यांन दया बिणि कछू नाहीं कहा भयौ तन षीणा॥२४०॥

धोतरा न पीवो रे अवधू भांगि न षावौ रे भा‍ई। 
गोरष कहै सुणौ रे अवधू या काया होयगी पराई॥२४१॥

रांड मुवा जती धाये भोजन सती धन त्यागी। 
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी॥२४७॥

पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा कथिकथिकथि कहा कीन्ह। 
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु धट गया पारब्रह्म नहीं चीन्ह॥ २४८॥


जप तप जोगी संजम सार। बाले कंद्रप कीया छार। 
येहा जोगी जग मैं जोय। दूजा पेट भरै सब कोय॥२५३॥


सत्यो सीलं दोय असनांन त्रितीये गुर बाधक। 
चत्रथे षीषा असनान पंचमे दया असनान।
ये पंच असनान नीरमला निति प्रति करत गोरख बला॥२५८॥


कथणी कथै सों सिष बोलिये वेद पढ़ै सो नाती। 
रहणी रहै सो गुरू हमारा हम रहता का साथी॥२७०॥


रहता हमारै गुरू बोलिये हम रहता का चेला। 
मन मानै तौ संगि फिरै नहितर फिरै अकेला॥२७१॥


दरसण मा‍ई दरसण बाप। दरसण माहीं आपै आप। 
या दरसण का को‍ई जाणै भेव। सो आपै करता आपै देव॥२७२॥


नासिका अग्रे भ्रू मंडले अहनिस रहिबा थीरं। 
माता गरभि जनम न आयबा बहुरि न पीयबा षीरं॥२७५॥







बस्ती न शून्यम शून्यम न बसतू, अगम अगोचर ईसू |

गगन शिखर मंह बालक बोलान्ही, वाका नांव धरहुगे कैसा ||१||

सप्त धातु का काया प्यान्जरा, टा मांही जुगति बिन सूवा |

सतगुरु मिली तो उबरे बाबू, नन्ही तो पर्ली हूवा ||२||

आवै संगे जाई अकेला | ताथैन गोरख राम रमला ||

काया हंस संगी हवाई आवा | जाता जोगी किनहू न पावा ||


जीवत जग में मुआ समान | प्राण पुरिस कट किया पयान ||
जामन मरण बहुरि वियोगी | ताथैन गोरख भैला योगी ||३||

गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वासा |

सगुरा होई सो भर-भर पीया, निगुरा जाय प्यासा ||४||

गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी |

अपनी आत्मा आप विचारों, सोवो पाँव पसारी ||५||

ऐसा जाप जपो मन लाई | सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ||

आसन द्रिधा करी धारो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान ||


नासा आगरा निज ज्यों बाई | इडा पिंगला मध्य समाई ||
छः साईं सहंस इकीसु जाप | अनहद उपजी आपे आप ||


बैंक नाली में उगे सूर | रोम-रोम धुनी बाजी टूर ||
उल्टे कमल सहस्रदल बॉस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ||६||


खाए भी मारिये अनाखाये भी मारिये |

गोरख कहै पुता संजमी ही तरिये ||७||


धाये न खैबा भूखे न मरिबा |

अहिनिसी लेबा ब्रह्मगिनी का भेवं ||


हाथ ना करीबा, पड़े न रहीबा |
यूँ बोल्या गोरख देवं ||८||

कई चलिबा पन्था, के सेवा कंथा |
कई धरिबा ध्यान, कई कठिबा जनान ||९||

हबकी न बोलिबा, थाबकी न चलिबा, धीरे धरिबा पावं |

गरब न करीबा, सहजी रहीबा, भंंत गोरख रावं. ||१०||

गोरख कहै सुनहु रे अबधू, जग में ऐसे रहना |

आंखे देखिबा, काने सुनिबा, मुख थीं कछू न कहना ||


नाथ कहै तुम आपा राखो, हाथ करी बाद न करना |
याहू जग है कांटे की बाडी, देखि दृष्टि पग धारणा ||११||


मन में रहना, भेद न कहना, बोलिबा अमृत बाँई |
आगिका अगिनी होइबा अबधू, आपण होइबा पानी ||१२||


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गोरक्षनाथ संकट मोचन स्तोत्र



बाल योगी भये रूप लिए तब, आदिनाथ लियो अवतारों।
ताहि समे सुख सिद्धन को भयो, नाती शिव गोरख नाम उचारो॥


भेष भगवन के करी विनती तब अनुपन शिला पे ज्ञान विचारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य युग मे भये कामधेनु गौ तब जती गोरखनाथ को भयो प्रचारों।
आदिनाथ वरदान दियो तब , गौतम ऋषि से शब्द उचारो॥


त्रिम्बक क्षेत्र मे स्थान कियो तब गोरक्ष गुफा का नाम उचारो ।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य वादी भये हरिश्चंद्र शिष्य तब, शुन्य शिखर से भयो जयकारों।
गोदावरी का क्षेत्र पे प्रभु ने , हर हर गंगा शब्द उचारो।


यदि शिव गोरक्ष जाप जपे , शिवयोगी भये परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

अदि शक्ति से संवाद भयो जब , माया मत्सेंद्र नाथ भयो अवतारों।
ताहि समय प्रभु नाथ मत्सेंद्र, सिंहल द्वीप को जाय सुधारो ।


राज्य योग मे ब्रह्म लगायो तब, नाद बंद को भयो प्रचारों।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

आन ज्वाला जी किन तपस्या , तब ज्वाला देवी ने शब्द उचारो।
ले जती गोरक्षनाथ को नाम तब, गोरख डिब्बी को नाम पुकारो॥


शिष्य भय जब मोरध्वज राजा ,तब गोरक्षापुर मे जाय सिधारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

ज्ञान दियो जब नव नाथों को , त्रेता युग को भयो प्रचारों।
योग लियो रामचंद्र जी ने जब, शिव शिव गोरक्ष नाम उचारो ॥


नाथ जी ने वरदान दिया तब, बद्रीनाथ जी नाम पुकारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

गोरक्ष मढ़ी पे तपस्चर्या किन्ही तब, द्वापर युग को भयो प्रचारों।
कृष्ण जी को उपदेश दियो तब, ऋषि मुनि भये परम सुखारो॥


पाल भूपाल के पालनते शिव , मोल हिमाल भयो उजियारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥


ऋषि मुनि से संवाद भयो जब , युग कलियुग को भयो प्रचारों।
कार्य मे सही किया जब जब राजा भरतुहारी को दुःख निवारो,


ले योग शिष्य भय जब राजा, रानी पिंगला को संकट तारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

मैनावती रानी ने स्तुति की जब कुवा पे जाके शब्द उचारो।
राजा गोपीचंद शिष्य भयो तब, नाथ जालंधर के संकट तारो। ।


नवनाथ चौरासी सिद्धो मे , भगत पूरण भयो परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥



दोहा :- नव नाथो मे नाथ है , आदिनाथ अवतार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जो , पूर्ण ब्रह्म करतार॥
संकट -मोचन नाथ का , सुमरे चित्त विचार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जी मेरा करो निस्तार ॥





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