नवनाथ-शाबर-मन्त्र
“ॐ नमो आदेश गुरु की।
ॐकारे आदि-नाथ, उदय-नाथ पार्वती।
सत्य-नाथ ब्रह्मा। सन्तोष-नाथ विष्णुः,
अचल अचम्भे-नाथ। गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ,
ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ। माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ,
जति-गुरु है गोरखनाथ।
घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई।
नवनाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।
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नवनाथ-स्तुति
“आदि-नाथ कैलाश-निवासी, उदय-नाथ काटै जम-फाँसी।
सत्य-नाथ सारनी सन्त भाखै, सन्तोष-नाथ सदा सन्तन
की राखै। कन्थडी-नाथ सदा सुख-दाई, अञ्चति अचम्भे-
नाथ सहाई। ज्ञान-पारखी सिद्ध चौरङ्गी, मत्स्येन्द्र-नाथ
दादा बहुरङ्गी। गोरख-नाथ सकल घट-व्यापी, काटै कलि-
मल, तारै भव-पीरा। नव-नाथों के नाम सुमिरिए, तनिक
भस्मी ले मस्तक धरिए। रोग-शोक-दारिद नशावै, निर्मल
देह परम सुख पावै। भूत-प्रेत-भय-भञ्जना, नव-नाथों का
नाम। सेवक सुमरे धर्म नाथ, पूर्ण होंय सब काम।।”
प्रतिदिन नव-नाथों का पूजन कर उक्त स्तुति का २१ बार
पाठ कर मस्तक पर भस्म लगाए। इससे नवनाथों की
कृपा मिलती है। साथ ही सब प्रकार के भय-पीड़ा, रोग-
दोष, भूत-प्रेत-बाधा दूर होकर मनोकामना, सुख-सम्पत्ति
आदि अभीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं। २१ दिनों तक, २१ बार
पाठ करने से सिद्धि होती है।
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श्री गोरक्षनाथ जी
सिद्ध पुरुष योगेश्वर,
दो मुझको उपदेश ।
हर समय सेवा करुँ,
सुबह-शाम आदेश II
“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश।
गुरुजी को आदेश।
ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी।
हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री।
ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात,
अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर,
निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण।
सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ।
ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्।
ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया।
गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ।
नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति
गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश
-आदेश।।”
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त्रिशूल जाप
ॐ गुरूजी आदेश गुरूजी सतगुरुओ को आदेश गुरूजी
ॐ गुरूजी,
आदिपुरुष ने त्रिशूल रचाया,
त्रिगुणों को एक बन्ध बसाया,
पहली धार सत्व गुण दिखाया,
दूजी धार रजस गुण चमकाया,
दूजी धार रजस गुण चमकाया,
तीजी धार में तमस गुण भराया,
लोहे का त्रिशूल सतगुरु का मान
निर्गुण निराकार का ध्यान,
तीन लोक नो खण्ड चौदह भुवन
अलखपुरुष का त्रिशूल लहराया
नाथसिद्धो की वाणी साधक ने मानी
भय कटे रोग मिटे दूर हो नागन काली
पवित्र हो आसन,
पवित्र हो काया,
पवित्र हो धरती पाताल आकाश
जहाँ त्रिशूल का वास
भुत पिशाच ना आवे पास
रक्षा करे स्वंभूजति गोरखनाथ जी बाला
त्रिशूल जाप सम्पूर्ण भया अनन्त करोड़ सिद्धो में कथ मथ कर
गंगाघाट पर कहा गुरु के चरणों में नमस्कार बार बार नमस्कार
नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश "सोॐ"
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योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा:
नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण ने
ज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को
अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना।
वह द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी
चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार
श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ
भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा
सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों
से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।
जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से
प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान
चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को
उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा
सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ
आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ
उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री
पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से
प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी
सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव
कथा सुनाते ही रहे।
भगवान आदिनाथ ने द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न
पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे
प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के
उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो।
बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं
जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय
संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार
बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के
सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा,
इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ
द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर
सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ
या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो।
अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो,
यही हम दोनो का आदेश है।
मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही
अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने
भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बुद्धि के लिए
वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के
अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान
आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के
सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ
परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के
चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट
होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं,
स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर
प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और
याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें।
मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या विकास
करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय
उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार
से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग,
विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले
जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ
ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित
होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल
अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित
अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से
बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे
पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है।
हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है
तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै
सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै
बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे
से पृथक आप नही है।
जगदम्बा के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ
-जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ-
जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि
जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है
वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे
व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का
समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन
समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने
अपने आत्मबल समुदाय को दो भागों मे विभाजित किया। एक
समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षनाथ
रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष
पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये।
महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह
पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत
योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप
मे विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ
शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री
भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक
महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर
उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी
ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे
देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का
रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय
से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव
जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ही कथन का उत्तर देने
के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई हो? योगी की परीक्षा
का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता,
माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे
जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने
ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द
गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी
योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे
उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित
भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार
अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन
हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे
लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती
हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ
आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर
वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ
आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका
कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी
सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के
ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित
योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति को कुछ नही समझा। वह अपनी
समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का
तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव
मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है
समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै
ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित
भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी !
संसार का कल्याण हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से
मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।
जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ
नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी !
जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है,
और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत
आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक
रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे
चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म
शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर
रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे
समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी
माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस
प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे।
इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे
प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ
मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग
मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग
का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली
शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का
सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत
महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश
मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ
गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग
को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की
एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता को प्राप्त किया इस भगवान
आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को
शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन तीन शिक्षाओं के द्वारा
अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको
दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।
॥ आदेश आदेश ॥
गोरखनाथ का जन्म
गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में जन मानस में एक किंम्बदन्ती
प्रचलित है , जो कहती है कि गोरखनाथ ने सामान्य मानव के समान
किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लिया था । वे गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के
मानस पुत्र थे । वे उनके शिष्य भी थे । एक बार भिक्षाटन के क्रम में
गुरु गुरु मत्स्येन्द्रनाथ किसी गाँव में गये । किसी एक घर में भिक्षा
के लिये आवाज लगाने पर गृह स्वामिनी ने भिक्षा देकर आशीर्वाद में
पुत्र की याचना की । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ सिद्ध तो थे ही, उनका हृदय
दया ओर करुणामय भी था। अतः गृह स्वामिनी की याचना स्वीकार
करते हुए उनने पुत्र का आशीर्वाद दिया और एक चुटकी भर भभूत देते
हुए कहा कि यथासमय वे माता बनेंगी । उनके एक महा तेजस्वी पुत्र
होगा जिसकी ख्याति दिगदिगन्त तक फैलेगी । आशीर्वाद देकर गुरु
मत्स्येन्द्रनाथ अपने देशाटन के क्रम में आगे बढ़ गये । बारह वर्ष
बीतने के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी ग्राम में पुनः आये । कुछ भी
नहीं बदला था । गाँव वैसा ही था । गुरु का भिक्षाटन का क्रम अब भी
जारी था । जिस गृह स्वामिनी को अपनी पिछली यात्रा में गुरु ने
आशीर्वाद दिया था , उसके घर के पास आने पर गुरु को बालक का
स्मरण हो आया । उन्होने घर में आवाज लगाई । वही गृह स्वामिनी
पुनः भिक्षा देने के लिये प्रस्तुत हुई । गुरु ने बालक के विषय में पूछा
। गृहस्वामिनी कुछ देर तो चुप रही, परंतु सच बताने के अलावा उपाय
न था । उसने तनिक लज्जा, थोड़े संकोच के साथ सबकुछ सच सच
बतला दिया । हुआ यह था कि गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से आशीर्वाद प्राप्ति के
पश्चात उसका दुर्भाग्य जाग गया था । पास पड़ोस की स्त्रियों ने राह
चलते ऐसे किसी साधु पर विश्वास करने के लिये उसकी खूब खिल्ली
उड़ाई थी । उसमें भी कुछ कुछ अविश्वास जागा था , और उसने गुरु
प्रदत्त भभूति का निरादर कर खाया नहीं था । उसने भभूति को पास के
गोबर गढ़े में फेंक दिया था । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो सिद्ध महात्मा थे
ही, ध्यानबल से उनने सब कुछ जान लिया । वे गोबर गढ़े के पास
गये और उन्होने बालक को पुकारा । उनके बुलावे पर एक बारह वर्ष
का तीखे नाक नक्श, उच्च ललाट एवं आकर्षण की प्रतिमूर्ति स्वस्थ
बच्चा गुरु के सामने आ खड़ा हुआ । गुरु मत्स्येन्द्रनाथ बच्चे को लेकर
चले गये । यही बच्चा आगे चलकर अघोराचार्य गुरु गोरखनाथ के नाम
से प्रसिद्ध हुआ ।
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बारह पंथों के नाम
1 सत्यनाथ,
2 धर्मनाथ,
3 दरियानाथ,
4 आई पन्थी,
5 रास के,
6 वैराग्य के,
7 कपिलानी,
8 गंगानाथी,
9 मन्नाथी,
10 रावल के पन्थी
11 पाव पन्थी
12 पागल पन्थी
2 धर्मनाथ,
3 दरियानाथ,
4 आई पन्थी,
5 रास के,
6 वैराग्य के,
7 कपिलानी,
8 गंगानाथी,
9 मन्नाथी,
10 रावल के पन्थी
11 पाव पन्थी
12 पागल पन्थी
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ગોરક્ષ વાણી
बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥
गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥
हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग।
हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७।
हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८।
अहनिसि मन लै उनमन रहै गम कि छांड़ि अगम की कहै।
छाड़ै आसा रहै निरास कहै ब्रह्मा हूँ ताका दास।१६।
अजपा जपै सुंनि मन धरै पाँचों इंद्री निग्रह करै
ब्रह्म अगनि मै होमै काया तास महादेव बंदै पाया ।१६।
घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास।
नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९।
बालै जोबनि जे नर जती काल दुकालां ते नर सती ।
फुरतैं भोजन अलप अहारी नाथ कहै सो काया हमारी।२०।
पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा अनिल तृषा जहटिया।
ससंबेद श्रीगोरख कहिया बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२२।
गगन मँडल में ऊंधाकूबा तहां अंमृत का बासा।
सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा॥२३॥
मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं गोरष मरि दीठा॥२६॥
हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरैं धारिबा पावं।
गरब न करिबा सहजैं रहिबा भणत गोरष रावं॥२७॥
नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ़ करि राषहु चोया।
काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया॥२९॥
स्वामी बनषडि जां तो षुध्या व्यापै नग्री जाउं त माया।
भरि भरि षाउं त बिद बियापै क्यों सीझति जल ब्यंद की काया॥३०॥
धाये न षाइबा भूषे न मारबा अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि क भेवं।
हठ न करिबा पड्या न रहिबा यूं बोल्या गोरष देवं॥३१॥
थोड़ा बोलै थोड़ षाइ तिस घटि पवनां रहै समाइ।
गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥३२॥
अवधू अहार तोड़ौ निद्रा मोड़ौ कबहुँ न होइगा रोगी।
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूं को को बिरला बिजोगी॥३३॥
देव कला ते संजम रहिबा भूत कला अहारं।
मन पवना लै उनमनि धरिबां ते जोगी तत सारं॥३४॥
अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल॥३६॥
घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो होई हमारी।
घटि घटि गोरष कहै कहांणीं। काचै भांडै रहे न पांणी॥३७॥
घटि घटि गोरष फिरै निरुता। को घट जागे को घट सूता।
घटि घटि गोरष घटि घटि मींन। आपा परचै गुर मुषि चींन्ह॥३८॥
दूधाधारी परघरि चित। नागा लकड़ी चाहै नित।
मौनीं करै म्यंत्र की आस। बिनु गुर गुदड़ी नहीं बेसास॥४०॥
दषिणी जोगी रंगा चंगा पूरबी जोगी बादी।
पछमी जोगी बाला भोला सिध जोगी उतराधी॥४१॥
अवधू पूरब दिसि ब्याधिका रोग पछिम दिसि मिर्तु क सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग उत्यर दिसि सिध का जोग॥४२॥
घरबारी सो घर ली जाणै। बाहारि जाता भीतरि आणै।
सरब निरंतरि काटै माया। सो घरबारी कहिए निरञ्जन की काया॥४४॥
अमरा निरमल पाप न पुंनि। सत रज बिबरजित सुंनि।
सोहं हंसा सुमिरै सबद। तिहिं परमारथ अनंत सिध॥४६॥
यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पांचतत्त्व का जीव।
यहु मन लेजै उनमन रहै। तौ तीनि लोक की बातां कहै॥५०॥१
सास उसास बाइकौं भषिवा रोकि लेहु नव द्वारं।
छठै छमासि काया पलटिबा तब उनमँनीं जोग अपारं॥५२॥
मन मैं रहिणा भेद न कहिणां बोलिबा अंमृत बाणीं।
आगिला अगनी होइबा अवधू तौ आपण होइबा पांणीं॥६३॥
उनमनि रहिबा भेद न कहिबा पीयबा नींझर पांणीं।
लंका छाड़ि पलंका जाइबा तब गुरमुष लेबा बांणीं॥६४॥
बैठ अवधू लोह की षूँति चलता अवधू पवन की मूंठी।
सोवता अवधू जीवता मूवा बोलता अवधू प्यंजरै सूवां॥७१॥
गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मैं ऐसैं रहणां।
आंषैं देषिबा कांनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणां॥७२॥
अहार न्यंद्रा बैरी काल कैसे कर रखिबा गुरूका भंदार।
अहारतोड़ो निंद्रा मोड़ौ सिव सकती लै करि जोड़ौ॥८४॥
तब जानिबा अनाहद का बंध ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध।
रकत की रेत अंग थैं न छूटै जोगी कहतां हीरा न फूटै॥८५॥
निहचल धरि बैसिवा पवन निरोधिबा कदे न होइगा रोगी।
बरस दिन मैं तौनि बार काया पलटिबा नाग बंग बनासपती जोजी॥९२॥
षोड़स नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी भांनं।
सहंस्रनाड़ी प्रांण का मेला जहाँ असंष कला सिव थांनं॥९३॥
जोगी सो जे मन जोगवै बिलाइत राज भोगवै।
कनक कांमनी त्यागें दोइ सो जोगेस्वर निरभै होइ॥१०२॥
बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट नहीं रे पूता गुरू सौं भेंट।
षड़ षड़ काया निरमलनेत भई रे पूता गुरू सौं भेंट॥१०९॥
चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा पंच की मेटिबा आसा।
बदत गोरष सतिते सूरिवां उनमनि मन मैं बासा॥११४॥
कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।
पढ्या गुंण्या सूबा बिलाइ षाया पंडित के हाथि रह गई पोथी॥११९॥
कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षांया गुड़ मींठा।
खाइ हींग कपूर बषांणै गोरष कहै सब झूठा॥१२०॥
आसण दिढ़ अहार दिढ़ जे न्यंद्रा दिढ़ होई।
गोरष कहै सुणौं रे पूता मरै न बूढ़ा होई॥१२५॥
कोई न्यंदै कोई ब्यंदै कोई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा॥१२६॥
तूटी डोरी रस कस बहै। उनमनि लागा अस्थिर रहै।
उनमनि लागा होई अनंद। तूटी डोरीं बिनसै कंद॥१२८॥
अगम अगोचर रहै नीहकांम। भंवर गुंफा नांही बिसराम।
जुगती न जांणै जागैं राति मन कहू कै न आवै हाथि॥१३२॥
नव नाड़ी बहोतरि कोठां। ए अष्टांग सब झूठा।
कूंची ताली सुषमन करै उलटि जिभ्या ले तालू धरै॥१३३॥
भरि भरि षाइ ढरि ढरि जाइ। जोग नहीं पूता बड़ी बलाइ।
संजम होइ बाइ संग्रहौ। इस बिधि अकल षुरिस कौ गहौ॥१४५॥
षांये भी मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहैं पूता संजमि ही तरिये।
मघि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर होई सांस॥१४६॥
पवन हीं जोग पवन हीं भोग। पवन हीं हरै छतीसौ रोग।
या पवन कोई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४७॥
ब्यंद ही जोग ब्यंद ही भोग। ब्यंद हीं हरै चौसठि रोग।
या बिंद का कोई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४८॥
साच का सबद सोना का रेख। निगुरां कौंचाणक सगुरा कौं उपदेस।
गुर क मुंड्या गुंन मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै॥१४९॥
गुरु की बाचा षोजैं नाहीं अहंकारी अहंकार करै।
षोजी जीवैं षोजि गुरू कौं अहंकारीं का प्यंड परै॥१५१॥
अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा। बांध्या मेल्हा तो जगत्र चेला।
बदंत गोरष सति सरूप। तत बिचारैं ते रेष न रूप॥१५३॥
सीषि साषि बिसाह्या बुरा। सुपिनैं मैं धन पाया पड़ा।
परषि परषि लै आगैं धरा। नाथ कहै पूता षोटा न षरा॥१५४॥
स्वामी काची वाई काचा जिंद। काची काया काचा बिंद।
क्यूं करि पाकै क्यूं करि सीझै। काची अगनी नीर न षीजै॥१५६॥
तौ देबी पाकी बाई पाका जिंद। पाकी काया पाका बिंद।
ब्रह्म अगनि अषंडित बलै। पाका अगनी नीर परजलै॥१५७॥
सोवत आडां ऊभां ठाढ़ां। अगनीम ब्यंद न बाई।
निस्चल आसन पवनां ध्यानं। अगनीं ब्यंद न जाई॥१५८॥
अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।
मन मांनैं तो संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला॥१६१॥
पंथि चले चलि पवनां तूटैनाद बिंद अरु बाई।
घट हीं भींतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भाई॥१६३॥
जोगी होइ परनिंद्या झषै। मद मांस अरु भांगि जो भषै।
इकोतरसै पुरिषा नरकहि जाई। सति सति भषत श्रीगोरष राई॥१६४॥
अवधू मांसम भषत दया धरम का नास।
मद पीवत तहां प्राण निरास
भांगि भषंत ग्यांन ध्यांन षोवत।
जम दरबारी ते प्रांणीं रोवत॥१६५॥
चालिबा पथा कै सींबा कंथा। धरिबा ध्यांन कै कथिबा ग्यांनं।
एकाएकी सिध सग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भग॥१६६॥
पढ़ि देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं। मूवां मुकति बेकुंठा थांनं।
गाड्या जाल्या चौरासी मैं जाइ। सतिसति भाषंत गोरषराई॥१६७॥
आकास तत सदासिव जांण। तसि अभिअंतरि पद निरबांण।
प्यंडे परचांनैं गुरमुषि जोइ। बाहुडि आबा गवन न होइ॥१६८॥
ऊरम धूरम ज्वाला जोति। सुरजि कला न छीपै छोति।
कंचन कवल किरणि परसाइ। जल मल दुरगंध सर्ब सुषाइ॥१६९॥
घटि घटि सूण्यां ग्यांन न होइ। बनि बनि चंदन रूष न कोइ।
रतन रिधि कवन कै होइ। ये तत बूझै बिरला कोई॥१७०॥
कै मन रहै आसा पास। कै मन रहै परम उदास।
कै मन रहै गुरू के ओलै। कै मन रहै कांमनि कै षोलै॥१७२॥
बाहरि न भीतरि नड़ा न दूर। षोजत रहे द्रह्मा अरु सूर।
सेत फटक मनि हीरैं बीघा। इहि परमारथ श्री गोरश सीधा॥१७४॥
आवति पंचतत कूं मो है जाती छैल जगावै।
गोरष पूछै बाबा मछिंद्र या न्यंद्रा कहां थैं आवै॥१७५॥
गगन मंडल मैं सुंनि द्वार। बिजली चंमकै घोर अंधर।
ता महि न्यंद्रा आवै जाइ। पंच तत मैं रहै समाइ॥१७६॥
ऊभां बैठां सूतां लीजै। कबहूँ चित्त भंग न कींजै।
अनहद सबद गगन मैं गाजै। प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥१७७॥
एकलौ बीर दुसरौ धीर तीसरौ षटपट चोथौ उपाध।
दस पंच तहाँ बाद बिबाद॥१७८॥
एकाएकी सिध नांउं दोइ रमति ते साधवा।
चारि पंच कुटुम्ब नांउं दस बीस ते लसकरा॥१७९॥
दरवेस सोइ जो दरकी जांणै। पंचे पवन अपूठां आंणै।
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह कि जाति॥१८२॥
रूसता रूठ गोला-रोगी। भोला भछिक भूषा भोगी।
गोरष कहै सरबटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी॥२१४॥
अवधू अहार कूं तोड़िबा पवन कूं मोड़िब ज्यं कबहु न हियबा रोगी।
छठै छमासि काया पलटंत नाग बंग बनासपतो जोगी॥२१५॥
जिभ्या इन्द्री एकैं नाल। जो राषै सो बंचै काल।
पंडित ग्यांनी न करसि गरब। जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब॥२१९॥
गोरख कहै हमारा षरतर पंथ। जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।
जोग जुगति मैं रहै समाय। ता जोगी कूं काल न खाय॥२२०॥
जीव सीव संगे बासा। बधि न षाइबा रुध्र मासा।
हंस घात न करिबा गोतं। कथंत गोरष निहारि पोतं॥२२७॥
जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी। मारि लै पंचभू म्रगला।
चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया दाण॥
कथंत गोरष मुकति लै मानवा मारि लै रै मन द्रोही।
जाकै बप बरण मास नहीं लोही॥२२८॥
जोगी सो जो राषैं जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग।
अंजन छोड़ि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै॥२३०॥
सुंनि ज माई सुंनि ज बाप। सुंनि निरंजन आपै आप।
सुंनि कै परचै भया सथीर। निहचल जोगी गहर गंभीर॥२३१॥
अवधू यो मन जात है याही तै सब जांणि।
मन मकड़ी का ताग ज्यूं उलटि अपूठौ आंणि॥२३४॥
ऊजल मीन सदा रहै जल मैं सुकर सदा मलीना।
आतम ग्यांन दया बिणि कछू नाहीं कहा भयौ तन षीणा॥२४०॥
धोतरा न पीवो रे अवधू भांगि न षावौ रे भाई।
गोरष कहै सुणौ रे अवधू या काया होयगी पराई॥२४१॥
रांड मुवा जती धाये भोजन सती धन त्यागी।
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी॥२४७॥
पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा कथिकथिकथि कहा कीन्ह।
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु धट गया पारब्रह्म नहीं चीन्ह॥ २४८॥
जप तप जोगी संजम सार। बाले कंद्रप कीया छार।
येहा जोगी जग मैं जोय। दूजा पेट भरै सब कोय॥२५३॥
सत्यो सीलं दोय असनांन त्रितीये गुर बाधक।
चत्रथे षीषा असनान पंचमे दया असनान।
ये पंच असनान नीरमला निति प्रति करत गोरख बला॥२५८॥
कथणी कथै सों सिष बोलिये वेद पढ़ै सो नाती।
रहणी रहै सो गुरू हमारा हम रहता का साथी॥२७०॥
रहता हमारै गुरू बोलिये हम रहता का चेला।
मन मानै तौ संगि फिरै नहितर फिरै अकेला॥२७१॥
दरसण माई दरसण बाप। दरसण माहीं आपै आप।
या दरसण का कोई जाणै भेव। सो आपै करता आपै देव॥२७२॥
नासिका अग्रे भ्रू मंडले अहनिस रहिबा थीरं।
माता गरभि जनम न आयबा बहुरि न पीयबा षीरं॥२७५॥
बस्ती न शून्यम शून्यम न बसतू, अगम अगोचर ईसू |
गगन शिखर मंह बालक बोलान्ही, वाका नांव धरहुगे कैसा ||१||
सप्त धातु का काया प्यान्जरा, टा मांही जुगति बिन सूवा |
सतगुरु मिली तो उबरे बाबू, नन्ही तो पर्ली हूवा ||२||
आवै संगे जाई अकेला | ताथैन गोरख राम रमला ||
काया हंस संगी हवाई आवा | जाता जोगी किनहू न पावा ||
जीवत जग में मुआ समान | प्राण पुरिस कट किया पयान ||
जामन मरण बहुरि वियोगी | ताथैन गोरख भैला योगी ||३||
गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वासा |
सगुरा होई सो भर-भर पीया, निगुरा जाय प्यासा ||४||
गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी |
अपनी आत्मा आप विचारों, सोवो पाँव पसारी ||५||
ऐसा जाप जपो मन लाई | सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ||
आसन द्रिधा करी धारो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान ||
नासा आगरा निज ज्यों बाई | इडा पिंगला मध्य समाई ||
छः साईं सहंस इकीसु जाप | अनहद उपजी आपे आप ||
बैंक नाली में उगे सूर | रोम-रोम धुनी बाजी टूर ||
उल्टे कमल सहस्रदल बॉस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ||६||
खाए भी मारिये अनाखाये भी मारिये |
गोरख कहै पुता संजमी ही तरिये ||७||
धाये न खैबा भूखे न मरिबा |
अहिनिसी लेबा ब्रह्मगिनी का भेवं ||
हाथ ना करीबा, पड़े न रहीबा |
यूँ बोल्या गोरख देवं ||८||
कई चलिबा पन्था, के सेवा कंथा |
कई धरिबा ध्यान, कई कठिबा जनान ||९||
हबकी न बोलिबा, थाबकी न चलिबा, धीरे धरिबा पावं |
गरब न करीबा, सहजी रहीबा, भंंत गोरख रावं. ||१०||
गोरख कहै सुनहु रे अबधू, जग में ऐसे रहना |
आंखे देखिबा, काने सुनिबा, मुख थीं कछू न कहना ||
नाथ कहै तुम आपा राखो, हाथ करी बाद न करना |
याहू जग है कांटे की बाडी, देखि दृष्टि पग धारणा ||११||
मन में रहना, भेद न कहना, बोलिबा अमृत बाँई |
आगिका अगिनी होइबा अबधू, आपण होइबा पानी ||१२||
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गोरक्षनाथ संकट मोचन स्तोत्र
बाल योगी भये रूप लिए तब, आदिनाथ लियो अवतारों।
ताहि समे सुख सिद्धन को भयो, नाती शिव गोरख नाम उचारो॥
भेष भगवन के करी विनती तब अनुपन शिला पे ज्ञान विचारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
सत्य युग मे भये कामधेनु गौ तब जती गोरखनाथ को भयो प्रचारों।
आदिनाथ वरदान दियो तब , गौतम ऋषि से शब्द उचारो॥
त्रिम्बक क्षेत्र मे स्थान कियो तब गोरक्ष गुफा का नाम उचारो ।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
सत्य वादी भये हरिश्चंद्र शिष्य तब, शुन्य शिखर से भयो जयकारों।
गोदावरी का क्षेत्र पे प्रभु ने , हर हर गंगा शब्द उचारो।
यदि शिव गोरक्ष जाप जपे , शिवयोगी भये परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
अदि शक्ति से संवाद भयो जब , माया मत्सेंद्र नाथ भयो अवतारों।
ताहि समय प्रभु नाथ मत्सेंद्र, सिंहल द्वीप को जाय सुधारो ।
राज्य योग मे ब्रह्म लगायो तब, नाद बंद को भयो प्रचारों।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
आन ज्वाला जी किन तपस्या , तब ज्वाला देवी ने शब्द उचारो।
ले जती गोरक्षनाथ को नाम तब, गोरख डिब्बी को नाम पुकारो॥
शिष्य भय जब मोरध्वज राजा ,तब गोरक्षापुर मे जाय सिधारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
ज्ञान दियो जब नव नाथों को , त्रेता युग को भयो प्रचारों।
योग लियो रामचंद्र जी ने जब, शिव शिव गोरक्ष नाम उचारो ॥
नाथ जी ने वरदान दिया तब, बद्रीनाथ जी नाम पुकारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
गोरक्ष मढ़ी पे तपस्चर्या किन्ही तब, द्वापर युग को भयो प्रचारों।
कृष्ण जी को उपदेश दियो तब, ऋषि मुनि भये परम सुखारो॥
पाल भूपाल के पालनते शिव , मोल हिमाल भयो उजियारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
ऋषि मुनि से संवाद भयो जब , युग कलियुग को भयो प्रचारों।
कार्य मे सही किया जब जब राजा भरतुहारी को दुःख निवारो,
ले योग शिष्य भय जब राजा, रानी पिंगला को संकट तारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
मैनावती रानी ने स्तुति की जब कुवा पे जाके शब्द उचारो।
राजा गोपीचंद शिष्य भयो तब, नाथ जालंधर के संकट तारो। ।
नवनाथ चौरासी सिद्धो मे , भगत पूरण भयो परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥
दोहा :- नव नाथो मे नाथ है , आदिनाथ अवतार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जो , पूर्ण ब्रह्म करतार॥
संकट -मोचन नाथ का , सुमरे चित्त विचार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जी मेरा करो निस्तार ॥
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नाथ सम्प्रदाय
नाथ सम्प्रदाय का परिचययह सम्प्रदाय भारत
का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पन्थी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पन्थी और पागल।इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है।भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः-"सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।"अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-" वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।""एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥"उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है। वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। "योगश्चित वृत्ति निरोधः" सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। उर्पयुक्त 12 पंथो में जो "मन्नाथी" पंथ है वह इन्ही का श्री मन्नाथ पंथ है।
जय गुरु धर्म नाथ
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गुरु की मूरत मन में धयान !
गुरु के शब्द मंत्र मन मान !!
गुरु के चरण हृदय मैं धारो !
गुरु पारब्रह्म सदा नमस्कारो !!
मत को भ्रम भूले संसार !
गुरु बिन कोई न उतरे पार !!
भूले को गुरु मार्ग पाये !
अवर त्याग हरि भक्ति लाये !!
जन्म मरन की त्रास मिटाई !
गुरु पूरन की इह बढियाई !!
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गुरु देवो गुरु देवता, गुरु बिन घोर अन्धकार !
जे गुरु वाणी वेगला रादिवादिया संसार !!
श्री गुरु प्रार्थना और महिमा
आदि मध्य नाहिं अन्त है, बने मिटे कछु नाहिं।
अमृत रहता एक रस, तीन काल के माहिं॥
नमों सच्चिदानन्द को, नमस्कार सब वेश।
सतगुरु धर्मनाथ को, बार बार आदेश॥
सतगुरु प्रबल समर्थ हैं, दयासिन्धु जगदीश।
"सेवक" निशदिन चरण में, नम्र होय धर शीष ॥
अधम उबारण भय हरण, सतगुरु परम दयालु।
गुरु बिन दूजा है नहीं, "सोम" शीघ्र कृपालु॥
जिसकी गुरु रक्षा करें, उसको दुःख न नेक।
"सेवक" चित्त में धारिये, दृढ़ कर ऐसी टेक॥
सतगुरु धर्मनाथ के बार बार बलि जाहु।
सत्य वचन कहे, मम मति अमल उछाहु॥
एक भरोसा एक बल, नहीं अन्य विश्वास।
"सेवक" निशदिन हो रहो, गुरु चरण का दास॥
जिसने सतगुरु को किया, अर्पण अपना शीष।
मिलती उसे अवश्य है, मुक्ति विश्वास बीस॥
सतगुरु सन्मुख ना द्रवे, धृक वह बुद्धि विवेक।
"सेवक" व नहीं पायेंगे, मनुज जन्म फल नेक॥
गुरु आज्ञा दे सो करे, देख करे कुछ नाहिं।
ऐसे गुरु मुखि पायेंगे, सत्य पथ जग के माहिं॥
सतगुरु की शिक्षा बिना, छुटे नहीं विवाद।
"सेवक" गुरु को ढूँढ ले, होवे दूर विषाद॥
गुरु चरणन की धूरि को धूर धूर कर जीव।
दूर दूर हो कपट से, भूरि भूरि मिल पीव॥
अब तो मुर्ख सचेत हो, आयु चली है बीत।
"सेवक" गुरु की शरण में, सीख भजन की रीत॥
प्रार्थनाष्टकः-
विलक्षण महा अन्धकारं विनाशी।
गुणातीत रूपम् सुषुम्ना निवासी॥
सदा सर्वदा भक्त मण्डल सुसेवम।
नमो योगिराजम् 'धर्मनाथ' देवम् ॥
दयालु महादीन के दुःखहारी।
निराल्म्ब अवलम्ब हे निर्विकारी॥
सदा सत्य शिक्षा हटाती कुटेवम।
नमो योगिराजम 'धर्मनाथ' देवम॥
महा ब्रह्मचारी बड़े तत्व ज्ञाता।
अनुपम बली हो अभयदान दाता॥
अनोखे सती हो अपारं अभेदं।
नमो योगिराजम् 'धर्मनाथ' देवम् ॥
अचल समाधि नहीं को उपाधि।
सुधारे प्रमादी, हरो भक्त व्याधि॥
महाशून्य वासी, सगुण हो तथैवम।
नमो योगिराजम्, 'धर्मनाथ' देवम् ॥
प्रभो गौर-वर्ण मनो व्याधि हरणम् ।
महातेज धारी गहे भक्त शरणम॥
नयनाभिरामं दयालु सदैवम् ।
नमो योगिराजम्, 'धर्मनाथ' दैवम॥
प्रभो पूर्ण योगी सकल भाव ज्ञाता।
सदा भक्त त्राता सुभक्ति प्रदाता॥
त्रिलालज्ञ सर्वज्ञ निष्पृह सदैवम् ॥
नमो योगिराजम्, 'धर्मनाथ' देवम् ॥
काषाय वस्त्रं लसे कर्ण मुद्रा।
हते काम, क्रोधा लयी जीत निद्रा॥
किये मुक्त पापी, उदासीन एवम् ।
नमो योगिराजम्, 'धर्मनाथ' देवम् ॥
कई भक्त तारे सदा कष्ट टारे।
दयी सत्य शिक्षा हरे दोष भारे॥
भयंकर हरो पीर 'शंकर' सुसेवम् ॥
नमो योगिराजम्, 'धर्मनाथ' देवम् ॥
प्रार्थना महिमा
करते-करते प्रार्थना सुन लेते भगवान।
दया करे 'शकंर' तभी, बन जाते मतिमान॥
करते-करते प्रार्थना, निर्मल होवे गात।
विषय भोग से चित्त हटे, मन हो जावे मात॥
करते-करते प्रार्थना,बनती बुद्धि पवित्र।
'शकंर' सुख की प्राप्ति हो, निर्मल बने चरित्र॥
करते-करते प्रार्थना,क्रोध काम हट जाय।
शम दम शक्ति सचेत हो, घट में समता आय॥
करते-करते प्रार्थना, हटे जगत् से हेत।
समय पाय मिल जात है, भव सागर का सेत॥
करते-करते प्रार्थना, निस्पृहता आजाय।
'शंकर' तृष्णा दूर हो, तब नही जगत सुहाय॥
निर्मल मन से प्रार्थना, करते जो मतिमान।
हो गदगद् रोने लगे, पहुँचे' शंकरा' कान॥
जा बैठ एकान्त में, त्याग जगत से नेह।
गदगद् हो विनती करे, सुधरे मानव देह॥
कूक कूक विनती करे, ममता मद हट जाय।
समता, दृढ़ता प्रकटे हो, चार पदारथ पाय॥
नित प्रति विनती कीजिये, प्रेम भाव के साथ।
'शंकर' निश्चय मिलेगा, सकल जगत् का तात॥
श्री सतगुरु देव की प्रार्थनाः-
ऊँ जय सतगुरु दाता, ऊँ जय सतगुरु दाता।
त्रिगुण रहित निर्वाणी, जग में विख्याता॥ ऊँ जय॥
चेतन रूप निरंजन, आप पिता-माता।
भक्तन के हितकारी, सदा-सुखी-नाता॥ ऊँ जय॥
आदि-सनातन देवा, अगम ज्ञान ज्ञाता।
दुःख हरता सुख कर्ता, सत्य रूप भाता॥ ऊँ जय॥
मन के रोग मिटावन, पावन पथ जाता।
शील, क्षमा गुण आगर, शरणागत त्राता॥ ऊँ जय॥
शांति रूप शरीर, नाशक भव-पीर।
सुख सागर के नीरा, भक्तन के नाता॥ ऊँ जय॥
आदि पुरूष अविनाशी, संतन घट वासी।
भव सागर दुख नाशी, सतसुख के दाता॥ ऊँ जय॥
अगम अगोचर स्वामी, आप अन्तर्यामी।
अमर लोग के धामी, संतन मन राता॥ ऊँ जय॥
सत्य रूप भय हारी, कामादिक मारी।
भक्तन के अध-हारी, पार नहीं पाता॥ ऊँ जय॥
श्री धर्मनाथजी दयाला, हरिये भव जाला।
'शंकर कर प्रतिपाला, चरणन बलि जाता॥ ऊँ जय॥
श्री गोरक्षनाथ जी की आरती
श्री गोरक्षनाथ जी की आरती
ऊँ जय गोरक्ष देवा, श्री स्वामी जय गोरक्ष देवा।
सुर-नर मुनि जन ध्यावें, सन्त करत सेवा॥
ऊँ गुरुजी योगयुक्ति कर जानत, मानत ब्रह्म ज्ञानी।
सिद्ध शिरोमणि राजत, गोरक्ष गुणखानी ॥1॥ जय
ऊँ गुरुजी ज्ञान ध्यान के धारी, सब के हितकारी।
गो इन्द्रिन के स्वामी, राखत सुध सारी ॥2॥ जय
ऊँ गुरुजी रमते राम सकल, युग मांही छाया है नाहीं।
घट-घट गोरक्ष व्यापक, सो लख घट माहीं ॥3॥ जय
ऊँ गुरुजी भष्मी लसत शरीरा,रजनी है संगी।
योग विचारक जानत, योगी बहु रंगी ॥4॥ जय
ऊँ गुरुजी कण्ठ विराजत सींगी-सेली, जत मत सुख मेली।
भगवाँ कन्था सोहत, ज्ञान रतन थैली ॥5॥ जय
ऊँ गुरुजी कानन कुण्डल राजत, साजत रविचन्दा।
बाजत अनहद बाजा, भागत दुख-द्वन्द्वा ॥6॥ जय
ऊँ गुरुजी निद्रा मारो,काल संहारो, संकट के बैरी।
करो कृपा सन्तन पर, शरणागत थारी ॥7॥ जय
ऊँ गुरुजी ऐसी गोरक्ष आरती, निशदिन जो गावै।
वरणै राजा 'रामचन्द्र योगी', सुख सम्पत्ति पावै ॥8॥ जय
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श्री गोरक्ष-चालीसाजय
Gorakh Chalisa
श्री गोरक्ष-चालीसाजय जय जय गोरक्ष अविनाशी, कृपा करो गुरुदेव प्रकाशी ।जय जय जय गोरक्ष गुणखानी, इच्छा रुप योगी वरदानी ॥ अलख निरंजन तुम्हरो नामा, सदा करो भक्तन हित कामा।नाम तुम्हारो जो कोई गावे, जन्म-जन्म के दुःख नसावे ॥जो कोई गोरक्ष नाम सुनावे, भूत-पिसाच निकट नही आवे।ज्ञान तुम्हारा योग से पावे, रुप तुम्हारा लखा न जावे॥निराकर तुम हो निर्वाणी, महिमा तुम्हारी वेद बखानी ।घट-घट के तुम अन्तर्यामी, सिद्ध चौरासी करे प्रणामी॥भरम-अंग, गले-नाद बिराजे, जटा शीश अति सुन्दर साजे।तुम बिन देव और नहिं दूजा, देव मुनिजन करते पूजा ॥चिदानन्द भक्तन-हितकारी, मंगल करो अमंगलहारी ।पूर्णब्रह्म सकल घटवासी, गोरक्षनाथ सकल प्रकाशी ॥गोरक्ष-गोरक्ष जो कोई गावै, ब्रह्मस्वरुप का दर्शन पावै।शंकर रुप धर डमरु बाजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजै॥नित्यानन्द है नाम तुम्हारा, असुर मार भक्तन रखवारा।अति विशाल है रुप तुम्हारा, सुर-नुर मुनि पावै नहिं पारा॥दीनबन्धु दीनन हितकारी, हरो पाप हम शरण तुम्हारी ।योग युक्त तुम हो प्रकाशा, सदा करो संतन तन बासा ॥प्रातःकाल ले नाम तुम्हारा, सिद्धि बढ़ै अरु योग प्रचारा।जय जय जय गोरक्ष अविनाशी, अपने जन की हरो चौरासी॥अचल अगम है गोरक्ष योगी, सिद्धि देवो हरो रस भोगी।कोटी राह यम की तुम आई, तुम बिन मेरा कौन सहाई॥कृपा सिंधु तुम हो सुखसागर, पूर्ण मनोरथ करो कृपा कर।योगी-सिद्ध विचरें जग माहीं, आवागमन तुम्हारा नाहीं॥अजर-अमर तुम हो अविनाशी, काटो जन की लख-चौरासी ।तप कठोर है रोज तुम्हारा को जन जाने पार अपारा॥योगी लखै तुम्हारी माया, परम ब्रह्म से ध्यान लगाया।ध्यान तुम्हार जो कोई लावे, अष्ट सिद्धि नव निधि घर पावे॥शिव गोरक्ष है नाम तुम्हारा, पापी अधम दुष्ट को तारा।अगम अगोचर निर्भय न नाथा, योगी तपस्वी नवावै माथा ॥शंकर रुप अवतार तुम्हारा, गोपीचन्द-भरतरी तारा।सुन लीज्यो गुरु अर्ज हमारी, कृपा-सिंधु योगी ब्रह्मचारी॥पूर्ण आश दास की कीजे, सेवक जान ज्ञान को दीजे।पतित पावन अधम उधारा, तिन के हित अवतार तुम्हारा॥अलख निरंजन नाम तुम्हारा, अगम पंथ जिन योग प्रचारा।जय जय जय गोरक्ष अविनाशी, सेवा करै सिद्ध चौरासी ॥सदा करो भक्तन कल्याण, निज स्वरुप पावै निर्वाण।जौ नित पढ़े गोरक्ष चालीसा, होय सिद्ध योगी जगदीशा॥बारह पाठ पढ़ै नित जोही, मनोकामना पूरण होही।धूप-दीप से रोट चढ़ावै, हाथ जोड़कर ध्यान लगावै॥अगम अगोचर नाथ तुम, पारब्रह्म अवतार।कानन कुण्डल-सिर जटा, अंग विभूति अपार॥सिद्ध पुरुष योगेश्वर, दो मुझको उपदेश।हर समय सेवा करुँ, सुबह-शाम आदेश॥सुने-सुनावे प्रेमवश, पूजे अपने हाथ।मन इच्छा सब कामना, पूरे गोरक्षनाथ
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पंचदेव
1.श्रीब्रह्मा
2. विष्णु
3. शिव
3. शक्ति
5 गणेश .
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64 योगिनीयों के नाम
1. छाया,
2. माया,
3. नारायणी,
4. ब्रह्मायणी,
5. भैरवी,
6. महेश्वरी,
7. रूद्रायणी,
8. बसेली,
9. त्रिपुरा,
10. उग्रतारा,
11. कार्चिका,
12. तारिणी,
13. अंबिका
14. कुमारी,
15. भागबती,
16. नीला,
17. कमला,
18. शांति,
19. कांति,
20. घटारानी,
21. चामुंडा,
22. चंद्रकांती,
23. माधवी,
24. काचीकेश्वरी,
25. अनला,
26. रूपा,
27. बराही,
28. नगरी,
29. खेचरी,
30. भूचरी,
31. बैताली,
32. कालींजरी,
33. शंखा,
34. रूद्रकाली,
35. कलावती,
36. कंकाली,
37. बुकुचाई,
38. बाली,
39. दोहिनी,
40. द्वारिनी,
41. सोहिनी,
42. संकटातारिणी,
43. कोटलाई,
44. अनुछाया,
45. केचामुखी
46. समूहा,
47. उल्का,
48. समशिला,
49. मुधा,
50. डाकिनी,
51. गोपाली,
52. कामसेना,
53. कपाली,
54. उत्रायणी,
55. त्रैलोक्यवासिनी,
56. त्रिलोचना,
57. निमाई,
58. डाकेश्वरी,
59. कमला,
60. रामायणी,
61. आदिशक्ति,
62. बालछत्राणी,
63. ब्राह्मणी,
64. धारणी,
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गायत्री की २४ सिद्धियाँ
चौबीस अक्षरों की अपनी विशेषताएँ और प्रतिक्रियाएँ हैं-
जिन्हें सिद्धियाँ भी कहा जा सकता है, जो इस प्रकार बताई गई हैं-
जिन्हें सिद्धियाँ भी कहा जा सकता है, जो इस प्रकार बताई गई हैं-
(१) आरोग्य
(२) आयुष्य
(३) तुष्टि
(४) पुष्टि
(५) शान्ति
(६) वैभव
(७) ऐश्वर्य
(८) कीर्ति
(९) अनुग्रह
(१०) श्रेय
(११) सौभाग्य
(१२) ओजस्
(१३) तेजस्
(१४) गृहलक्ष्मी
(१५) सुसंतति
(१६) विजय
(१७) विद्या
(१८) बुद्धि
(१९) प्रतिभा
(२०) ऋद्धि
(२१) सिद्धि
(२२) संगति
(२३) स्वर्ग
(२४) मुक्ति ।
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आठों सिद्धियां और नवों निधियां
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(1)अणिमा
(2) महिमा
(3) लघिमा
(4) गरिमा
(5) प्राप्ति
(6) प्राकाम्य
(7) ईशित्व
(8) वशित्व !
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9 निधियां ===
(1) कलानिधि ,
(2) महाकाल ,
(3) नैसर्प ,
(4) पांडुक ,
(5) पद्म ,
(6) माणवक ,
(7) पिंगल ,
(8) शंख ,
(9) सर्वरत्न
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भगवान् विष्णु के दस अवतार
१. मत्स्य अवतार,
2. कूर्म अवतार
3. वराहावतार
4. नरसिंहावतार
5. वामन् अवतार
6. परशुराम अवतार
7. राम अवतार
8. कृष्णावतार
9. बुद्ध अवतार
10. कल्कि अवतार ( यह अवतार इस युग के अंत में होगा ) भागवत पुराण के अनुसार |
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तीन लोक और चोह्द भवन
1.पाताल लोक ( अधोलोक )
2.भूर्लोक ( मध्यलोक )
3.स्वर्गलोक ( उच्चतरलोक्) यह तीन लोक है,
इन लोको को चौदह लोको मैं बाँटा गया हे |
1.सत्यलोक
2.तपोलोक
3.जनलोक
4.महलोक
5. ध्रुवलोक
6.सिध्द्लोक
7.पृथ्वीलोक
8.अतललोक
9.बितललोक
10.सुतललोक
11.तलातललोक
12.महातललोक
13.रसातललोक
14.पाताललोक
इन चौदह लोको को भवन कहा जाता है |
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समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्न
(1) हलाहल (विष),
(2) कामधेनु,
(3) उच्चैःश्रवा घोड़ा,
(4) ऐरावत हाथी,
(5) कौस्तुभ मणि,
(6) कल्पद्रुम,
(7) रम्भा,
(8) लक्ष्मी,
(9) वारुणी (मदिरा),
(10) चन्द्रमा,
(11) पारिजात वृक्ष,
(12) शंख,
(13) धन्वन्तरि वैद्य
(14) अमृत।
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