~जाग मछन्दर गोरख आया~
~चेत मछन्दर गोरख आया~
~ चल मछन्दर गोरख आया ~
गुरू को टोकने का साहस किसी में नहीं था, लेकिन वह चेला ही क्या,
जो अनाचार को सहन कर जाए। भले ही वह अनाचार खुद उसके गुरू ही करने पर आमादा क्यों ना हों। बस फिर क्या था, चेले ने लगायी भभूत,
उठाया त्रिशूल और लगा दिया हुंकारा :- ~उठ जाग मछन्दर गोरख आया~
~जाग मछन्दर गोरख आया~
~चेत मछन्दर गोरख आया~
~ चल मछन्दर गोरख आया ~
यह गाथा है उस सात्विकता की जिसकी रक्षा का संकल्प किया गोरखनाथ जी ने। बाद में गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस चेले ने अपने ही गुरू को उसके गुरूत्व का आभास कराने के लिए किसी भी सीमा तक जाने में तनिक भी संकोच नहीं किया।
क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्स्येन्द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्स्येन्द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये।
अब रही चेले की बात।
गुरु मछिन्दर नाथ जी ने एक नि:संतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन साधुओ के चक्कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ।
इसके बाद से ही साथ हो गया
~ मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का~
इन दोनों ने काया, मन और आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्यान को इसके केंद्र में रखा गया।
गुरू-चेले का यह सम्बन्ध अविच्छिन्न रूप से चल ही रहा था कि अचानक कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्यों को ही भूल गये (स्मरण रहे की ये सब तिर्याराज को श्राफ से मुक्त करने के लिए लीला थी )और तिर्याराज में लीलाओं ने उन्हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ इस हालत से विचलित थे।
गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।
स्त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक
मत्स्येन्द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं।
गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि
~जाग मछन्दर गोरख आया~
~चेत मछन्दर गोरख आया~
~ चल मछन्दर गोरख आया ~
मत्स्येन्द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर टांग दिया। मत्स्येन्द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं।
शर्त माननी ही पड़ी।
गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है।
काया, मन और आत्मा की शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्तविक सार है। यहीं से ब्रह्मनुभूति होती है जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्त होता है।
जय गुरुदेव योगी धर्मनाथ जी की
अलख आदेश योगी गोरख
आदेश आदेश आदेश
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