मेरी "मैं" की एक अनन्त ब्रह्माण्ड यात्रा
तू ही बता भगवान मैं क्या हूँ ?
ज्योति हूँ या ज्योति का धुँआ ?
क्यों धरता हूँ ध्यान मैं अपना ही?
क्यों देखता हूँ ध्यान में अपने ही आपको ?
क्यों अलग हो जाता हूँ मैं अपने आपसे?
क्यों बिखर जाता हूँ रेत की भाँति मैं?
क्यों हो जाती है एक टूटकर धरा पर गिरे हुए दीपक की सी हालत?
क्यों होता हूँ मैं अपने ही सामने अपने ही रूप में?
और फिर
संघर्ष करता करता हुआ बढ़ जाता हूँ मैं
अनन्त ब्रह्माण्ड में *एक ज्योति के धुँए* के रूप में समाने के लिए एक प्रकाश पुंज में
सब कहते है की ज्योति स्वरूप हो
क्या मैं भी ज्योति रूप ही हूँ ??
या फिर
ज्योति रूप नही सिर्फ ज्योति का धुँआ रूप मात्र
फिर इतनी मैं मैं मैं किसलिए ??
?
?
?
अलख आदेश योगी गोरख
"*"*"*"*"*"*"सोॐ"*"*"*"*"*"
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