मैं माया हूँ माया
मुझसे दुरी बनाये रखने में ही सबकी भलाई हैं
लेकिन कर नही सकते क्योंकि मैं माया हूँ
मैं एक भरम हूँ ,मैं ना होकर भी हूँ
मैं माया हूँ माया
मैं बहुत मीठी हूँ त्यागी नही जाती
अज्ञानी को भुलावे डालकर खाती रहती हूँ
**अवधू ऐसा ग्याँन बिचारी, ताथै भई पुरिष थैं नारी
ना हूँ परनी नाँ हूँ क्वारी, पून जन्यूँ द्यौ हारी
काली मूँड कौ एक न छोड़ो, अजहूँ अकन कुवारी
बाम्हन के बम्हनेटी कहियौ, जोगी के घरि चेला
कलमाँ पढ़ि पढ़ि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली
पीहरि जाँऊँ न सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाँऊँ।**
माया स्वयंं कहती है की मैं चैतन्य पुरुष से नारी रूप में पैदा हुई हूँ
न तो मई परिणीति हूँ न ही मई क्वारी हूँ
ब्रह्म से मेरा पूर्ण तादात्म्य नही है और उससे पूर्णतया अलग भी नही हूँ
चैतन्य की सत्ता से ही मेरी सत्ता हैं
मैंने अनेक जीव रूपी पुत्त्रो को पैदा किया है
जीव के अंदर अनेक विकार मैंने ही पैदा किया है
मैं काले सिर वाले अर्थात युवक एवं युवतियों को कभी नही छोड़ती फिर भी मैं अखंड हूँ
मेरा भोग कोई नही कर सकता , केवल भोग का मिथ्या एहसाह होता है
ब्राह्मण के घर ब्रह्मणि , योगी के घर शिष्य रूप में मैं ही विधमान हूँ
कलमा पढ़ कर मैं तुर्किनी हो जाती हूँ मैं अकेली घूमती हूँ
मेरा जीवात्मा से वास्तविक सम्बन्ध होता ही नही इसलिए अकेली हूँ
न तो मेरा पीहर में जाना होता है न सुसराल मै अर्थात इहलोक एंव परलोक
ईश्वर की तरह मैं भी सर्वत्र व्याप्त हूँ
चैतन्य पुरुष के अंगो का मैं इस्पर्श नही करती हूँ
मैं माया हूँ माया
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